Tuesday, March 18, 2014

'व्‍यक्तित्‍व-विकास का गुरुकुल' यानी 'अच्‍छे कम्‍युनिस्‍ट कैसे बनें!'


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

इन दिनों ब्‍लॉगों और फेसबुकों से बहुत सारी नयी-नयी सूचनाएँ मिलती रहती हैं और ज्ञान प्राप्ति होती रहती है।
कुछ लोग आत्‍मविकास, आत्‍म संघर्ष और व्‍यक्तित्‍व-विकास की काफी बातें कर रहे हैं। वैसे वे लोग स्‍वयं को पूरी तरह समाज-कार्य को समर्पित और मार्क्‍स से लेकर माओ तक को मानने वाला बताते हैं, पर उनका अमली काम कुछ अलग ही होता है। पहली बात, माओ ने भी 'स्‍व के विरुद्ध संघर्ष' (फाइट अगेन्‍स्‍ट सेल्‍फ') की, जीवन शैली-कार्यशैली में सुधार की और आत्‍मालोचना की बात की थी, पर वह ल्‍यू शाओ ची की 'अच्‍छे कम्‍युनिस्‍ट कैसे बनें' की हेगेलियन और निम्‍न पूँजीवादी कैरियरवादी लाइन से एकदम अलग थी। माओ का स्‍पष्‍ट ज़ोर था कि वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में सामूहिक तौर पर भागीदारी के दौरान ही यह सम्‍भव है। सिर्फ बंद कमरे की बैठकों, भाषणों, कक्षाओं से यह होने से रहा। 'चीज़ों को बदलो और चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में स्‍वयं को बदलो' -- माओ की द्वंद्वात्‍मक भौतिकवादी पहुँच ही सही संज्ञान सिद्धान्‍त है। मुझे तो यह समझ में नहीं आता केवल मानव सभ्‍यता का इतिहास-भूगोल वगैरह पढ़कर, लेखन-कला, भाषण देने की कला, शुद्ध हिन्‍दी और अंग्रेजी भाषा, उच्‍चारण आदि-आदि सीखकर कोई कम्‍युनिस्‍ट कैसे बन जायेगा? यही सब सीखकर वह सिविल सर्विसेज़ में जाने या किसी प्रा‍इवेट कम्‍पनी का योग्‍य अधिकारी बनने की भी तो सोच सकता है! ऐसे गुरुजी से यह जानने की उत्‍सुकता होती है कि अपने सुदीर्घ अध्‍यवसाय से अपने गुरुकुल से उन्‍होंने कितने ऐसे शिष्‍य तैयार किये, जो अपने समय, ऊर्जा और आय के एक अच्‍छे-खासे हिस्‍से को क्रान्तिकारी परिवर्तन के मुहिम में, कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लगाते हों या पूरा जीवन समर्पित कर चुके हों। मेरा ख़याल है, एक भी ऐसा नहीं होगा। यह मध्‍यवर्ग बड़ा चालाक होता है। क्रान्ति के नाम पर किसी 'मिट्टी के माधो' से यदि मँगनी का ज्ञान मिल जाये, तो लेकर चलते बनो, अपना कैरियर बनाओ, बदले में गुरुजी को जीवन भर श्रद्धेय मानते रहो और कभी-कभार कुछ भौतिक मदद भी कर दो। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि जीवन में और कुछ कर पाने में और क्रान्तिकारी जीवन में भी विफल होकर गुरुजी ने आत्‍मतुष्टि के लिए यह वृत्ति चुन ली हो। मार्क्‍सवादी होने के साथ-साथ आम्‍प्‍टे, अन्‍ना, विनोबा टाइप संत बनने का जो अपना दोहरा आनंद है, वह अद्वितीय तो है ही! मुझे तो बस माओ की यह सीधी-सादी सी ही बात जँचती है कि लोगों को कहके नहीं करके सिखाना होता है और जिसने करके सीखा है, वही सिखा सकता है।
एक सज्‍जन से इसी विषय पर बात हो रही थी, उनका कहना था कि यदि हम और कुछ नहीं कर पाते तो समाज में कुछ तार्किक, संवेदनशील, जनवादी चेतना के नागरिक तैयार कर पायें तो यह भी तो एक प्रगतिशील काम है।  मेरा कहना  था कि नहीं, यह एक प्रतिगामी काम होगा। ऐसा ''प्रगतिशील बुर्ज़ुआ नागरिक'' इसी व्‍यवस्‍था की मशीनरी का ज्‍यादा अहम पुर्जा बनेगा, उसका स्‍थान नीति निर्धारण, योजना निर्माण और क्रियान्‍वय-प्रबन्‍धन में होगा। ऐसी कोई भी सुधार की कार्रवाई यदि क्रान्तिकारी परिवर्तन की किसी वृहत्‍तर योजना का जैविक अंग नहीं है, मात्र एक या कुछ व्‍यक्तियों का प्रयास है तो वह ख़तरनाक़ सुधारवादी कार्रवाई  के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं सिद्ध होगा। यह कुल मिलाकर वही सड़ेला प्रतिगामी सिद्धान्‍त का एक रूप है कि स्‍वयं को बदलो और एक-एक नागरिक को बदलो, समाज बदल जायेगा। 'तुम बदलोगे, युग बदलेगा' -- गायत्री परिवार और युग निर्माण योजना वाले तो पहले से ही यह  कह रहे हैं। आजकल कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन को लगातार कोसने, विरक्ति प्रकट करने और नसीहत देने वाले कुछ पूर्व कम्‍युनिस्‍ट प्रोफेसर विचारक भी आध्‍यात्मिक मुद्रा में इस बात पर काफी बल दे रहे हैं, इधर-उधर यात्राएँ करके भाषण देते हुए मार्क्‍स से बुद्ध की ओर यात्रा कर रहे हैं।

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