--कविता कृष्णपल्लवी
मार्क्सवाद के नाम पर बौद्धिक जगत में इन दिनों एकदम सर्कस और अजायबघर का माहौल है! शर्मनाक!
एक मार्क्सवाद व्यक्तित्व-विकास परियोजना चलाने वाले गिरिजेश तिवारी का है। एक मार्क्सवाद इतिहासकार लालबहादुर वर्मा का है जिसमें मार्क्स, बुद्ध, अम्बेडकर, अस्मितावाद आदि सबकी खिचड़ी है, बस मार्क्सवादी इतिहासबोध नहीं है। एक घोर व्यवस्थाधर्मी मार्क्सवाद शीर्ष पुलिस अधिकारी विकास नारायण राय का है। एक उनके अग्रज म.गा.हि.वि.वि. के कुलपति विभूति नारायण का है। एक बौद्धिक गिरोह इन दिनों 'गैर पार्टी वाम बुद्धिजीवी मोर्चा' का बैलून बेच रहा है। मार्क्सवाद के नाम पर अस्मितावादी राजनीति की 'तीन पत्ती' खेलने वाले एन.जी.ओ. सुधारवादी लगातार बौद्धिक विमर्शो-संगोष्ठियों में रत हैं। इसके बाद पचास के आस-पास कुछ पतित, रिटायर्ड कम्युनिस्ट हैं, जो एन.जी.ओ. या मीडिया से पेट पालते हुए, आवारागर्दी व शराबखोरी करते हुए सोशल मीडिया पर रक्तरंजित, गर्मागर्म, शब्दबहादुरी करते रहते हैं। इन सबकी राजनीति में भिन्नता हैं, मतभेद हैं, आपस में विवाद भी होते हैं, पर जो लोग भी मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तरवस्तु की हिफाजत के लिए प्रयासरत हैं, जनता के बीच कुछ कर रहे हैं, सामाजिक प्रयोगरत हैं, एक सच्चे कम्युनिस्ट की तरह अपने विचारों और मतभेदों को साफगोई से रखते हैं, उनके विरुद्ध इन सभी पंथों के ''योगियों-साधकों'' की अद्भुत एकता देखने को मिलती है, एक जबरदस्त संयुक्त मोर्चा देखने को मिलता है।
हम अपना ही उदाहरण लें। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कई आन्दोलनों के दमन के दौरान बहुतेरे बुर्ज़ुआ जनवादी अधिकार कर्मियों तक ने गिरफ्तारियों, फर्जी मुकदमों और दमन के विरुद्ध हमारा साथ दिया, पर इन कथित मार्क्सवादियों ने नहीं। फिर चार वर्षों तक भगोड़े पतित तत्वों का एक गिरोह ब्लॉग-फेसबुक आदि पर हमलोगों के विरुद्ध निकृष्टतम गाली-गलौज करता रहा, हम लोगों को किताबें बेचने वाला, सम्पत्ति संचय करने वाला, मकान हड़पने वाला, हत्यारा ... आदि-आदि लिखता रहा। ये सभी कुर्सीतोड़ मार्क्सवादी मज़े लेते रहे। हमलोग बार-बार कहते रहे कि राजनीतिक बातें होनी चाहिए, न कि ऐसी बातें, जिनकी सच्चाई कोई दूर बैठा व्यक्ति पता लगा ही न सके। हमलोग बार-बार कहते रहे कि यह तरीका राजनीतिक नहीं है, यह पूरे आन्दोलन को नुकसान पहुँचायेगा। फिर भी भगोड़ों की कुत्सा प्रचार मुहिम जारी रही और 'फेंससिटर्स' मज़े लेते रहे। आखिर वाम क्रान्तिकारियों का कोई ट्रिब्युनल तो था नहीं, जहाँ हम शिकायत लेकर जाते। खुद बदमाशों को सज़ा देते तो इससे भी फिलहाल आन्दोलन को ही नुकसान पहुँचता। तब आजिज़ आकर हमारे साथियों ने मानहानि का मुकदमा किया। तब सारी ''न्यायशील'' आत्माएँ जाग उठी हैं, वे चीत्कार रही हैं कि क्रान्तिकारियों के आपसी विवाद में सरकार और अदालत को लाकर हमने भयंकर ग़लती की है। ये ''न्यायशील'' आत्माएँ चार वर्षों से लगातार ज़ारी कुत्सा प्रचार का मज़ा लेती रहीं। इन्होंने कुत्सा प्रचारकों पर कोई दबाव नहीं बनाया, जबकि सारे गंदे आरोप बुर्ज़ुआ मीडिया व सार्वजनिक मंचों से लगाये जा रहे थे (कोई क्रांतिकारियों के आपसी सर्कुलेशन वाले माध्यम से नहीं)। अब ये ''न्यायशील' आत्माएँ हमलोगों को कटघरे में खड़ा करने के लिए जाग उठी हैं। अभी भी ये महान आत्माएँ यह नहीं बतातीं कि हमारे सामने रास्ता क्या था? हर झूठे आरोप की सप्रमाण सफाई कैसे दी जा सकती है? हर गाली का जवाब कैसे दिया जा सकता है? और यदि कुत्सा प्रचारकों को हम स्वयं ही दण्डित कर देते तो यही ''न्यायशील'' आत्माएँ हमें 'गुण्डा' की उपाधि दे देंतीं!
दरअसल ''न्याय-विवेक'' आदि का कोई मामला है ही नहीं। जो अकर्मक मार्क्सवादी अपने निठल्लेपन के चलते कुण्ठित हैं, जो रिटायर्ड लोग अभी भी सक्रिय लोगों को देखकर कुण्ठित हैं और जो लोग राजनीतिक वाद-विवाद में हमलोगों के सामने उतर पाने का साहस न जुटा पाने के कारण कुण्ठित हैं, उन सभी को हमलोगों पर कुत्सा प्रचारकों के हमलों से अंदर ही अंदर गुदगुदी जैसा आनंद मिलता है। इसलिए जब हमलोगों के ऊपर हमले होते हैं तो वे 'गाँधी के बंदर' बन जाते हैं, पर हम यदि कोई कदम उठायें तो हमें उसूलों का पाठ पढ़ाने आ जाते हैं।
इन ''न्यायशील आत्माओं'' की असलियत हम समझ रहे हैं, इसलिए ''न्यायशील आत्माओ'', तुम्हारी ''न्यायशीलता'' पर हम हज़ार लानतें भेजते हैं।
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