संज्ञान के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत की शुरुआत भौतिकवाद की इस मूल स्थापना से होती है कि चेतना और विचार यथार्थ के प्रतिबिम्ब होते हैं। मगर चेतना यथार्थ को प्रतिबिंबित करते वक्त निष्क्रिय कदापि नहीं होती। चेतना और विचार संज्ञान की प्रक्रिया में सक्रिय रहते हैं और मनुष्य की चेतना के भीतर यथार्थ के प्रतिबिंबन में एक बहुत ही जटिल और अंतरविरोधपूर्ण प्रक्रिया काम करती है।
हम यहाँ वर्ग समाज में काम करने वाली चेतना को लेकर बहस नहीं करेंगे, हम वर्ग विचारधाराओं के बारे में भी कुछ नहीं कहेंगे। ये काफी घिसे-पिटे मसले हैं। हमारे लिए इस बात पर बल देना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि प्रतिबिंबन सिद्धांत विचारधारा के विभिन्न पहलुओं के प्रति एक निश्चित पद्धतिपरक रवैये की माँग करता है।
हर विचारधारा यथार्थ का ही एक प्रतिबिम्ब होती है; वह यथार्थ की व्याख्या होती है; मगर वह जड़ प्रतिबिम्ब या सीधी रेखा जैसा प्रतिबिम्ब नहीं होती। धर्म भी यथार्थ का एक प्रतिबिम्ब है, मगर वह मिथ्या और काल्पनिक प्रतिबिम्ब है जो यथार्थ का विकृत करता है। यही हाल भाववाद का है; वह भी वस्तुगत यथार्थ को ही प्रतिबिम्बित और व्याख्यायित करता है और किसी चीज़ को नहीं; मगर उसका तरीका अपना है, वह भी यथार्थ को विकृत करता है और उसे सिर के बल खड़ा कर देता है। इसी वजह से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि यह जानना है कि किसी विचारधारा या सिद्धांत में विशिष्ट क्या है, उसकी खास बात क्या है, और यदि उसका ज्ञान शास्त्रीय और सामाजिक आधार समझना है तो आवश्यक है कि उसे सामाजिक यथार्थ के समानांतर रखकर देखें परखें।
वास्तविक सामाजिक यथार्थ को वर्गों और वर्ग हितों के साथ रखकर, उस यथार्थ के विचारधारात्मक प्रतिबिंबन के समकक्ष रखकर देखने से ही हम किसी विचारधारा के समूचे अर्थ को और वर्ग संघर्ष में उसकी भूमिका को सही तरह से निर्धारित करने में सक्षम हो सकेंगे। जाँच-पड़ताल का पद्धतिपरक सही सिद्धांत वस्तुत: यही है जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी संज्ञान-सिद्धांत पर आधारित है।
दरअसल, यही वह सिद्धांत है जिसका इस्तेमाल मार्क्स ने एक आधार के रूप में किसी वर्ग और उस वर्ग के साहित्यिक नुमाइंदों व राजनैतिक प्रवक्ताओं के बीच के आपसी रिश्ते को परिभाषित करने के लिए उस वक्त किया था जब उन्होंने कहा था कि निम्न पूँजीवादी तबके की विचारधारा के प्रवक्ता के लिए स्वयं एक दुकानदार होना या दुकानदारों से जुड़े होना कत्तई ज़रूरी नहीं है। उसे जो चीज़ निम्न पूँजीवादी विचारधारा का प्रवक्ता बनाती है वह यह तथ्य है कि वह अपने सोचने के तौर-तरीके़ में, अपनी चेतना में, उन सीमाओं के परे नहीं जा पाता जिन्हें दुकानदार तबके ने अपने नीरस व्यवहार से गढ़ रखा है।
_मार्क रोज़ेन्थाल
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