Friday, January 17, 2014

गुजरात - 2002 (एक बीहड़ देशकाल की बेहद सपाट कविता)


(नरेन्‍द्र मोदी की अगुवाई में संघ परिवार का हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद ज्‍यादा उग्र, ज्‍यादा मुखर चेहरा लेकर राष्‍ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभर रहा है।भारतीय ऑशवित्‍ज़ -- 2002 के गुजरात नरसंहार को भूलना नहीं होगा। मुजफ्फरनगर-2013 हमारे सामने है। हम यहाँ कात्‍यायनी की 'गुजरात-2002' की श्रृंखला की पहली कविता दे रहे हैं। - कविता कृष्‍णपल्‍लवी)


-कात्‍यायनी

ताप से पिघली तारकोल की सड़कों पर चलते-चलते
उखड़ चुके थे जब हमारे जूतों के तल्ले
और टाँगों की मांसपेशियाँ दुखने लगी थीं फोड़ों की तरह,
तब उन्होंने अचानक धावा बोला। एक बार फिर। मानो अचानक।
समूचा फासिस्टी कचरा और गन्द भरभराकर गिरा हमारे ऊपर।
मरे हुए चूहों ने, प्लेग ने, जंग लगे फाटकों के नीचे से बहकर आती
ऐतिहासिक गन्दगी ने, पौराणिक परनाले के महादुर्गन्धित काले जल के बुदबुदों ने,
अन्ध-आस्था की श्मशानी राख ने, उन्माद की चिरांयध गंध ने,
वित्तीय पूँजी के बिलों से निकले अपराधी तिलचट्टों ने
पूरी ताकत के साथ धावा बोल दिया यात्रातुर जलयानों के मस्तूलों पर,
कपास और करघे पर, मेहनत और पसीने पर, समुद्री पक्षियों पर,
बच्चाघरों और अस्पतालों पर, कबीर बानी पर, गदरी बाबाओं की कांस्य मूर्तियों पर
भगतसिंह और उनके साथियों के स्मृतिचिन्‍हों पर,
तेभागा-तेलंगाना-नौसेना विद्रोह और नक्सलबाड़ी की विरासत पर,
तर्कणा और मानववाद पर, इतिहास पर, स्वप्नों और भविष्य भ्रूणों पर।
न तितली-कट मूँछें, न स्वास्तिक चिन्‍ह, न ‘हेल हिटलर’ के नारे,
न आर्य-रक्त की श्रेष्ठता का नस्ली अहंकार -- कुछ भी पहले जैसा नहीं था।
पर ये वही हिंस्र-धृष्ट भेड़िये थे।
आगे-आगे चलते वही स्वस्थ-चमकते चेहरे, वही मानवद्रोही आत्माएँ
और उनके पीछे पीले-बीमार चेहरे और रुग्ण मन वाले युवाओं की
वही उन्मत्त भीड़ और बहता-पसरता आता सहस्राब्दियों प्राचीन बर्बर
कूपमण्डूकता का कीचड़
रथों पर सवार, रामनामी दुपट्टा ओढ़े, धर्मध्वजा उड़ाते आये वे
एक विचारहीन, पशुवत्, सम्मोहित भीड़ लिये हुए अपने पीछे,
अयोध्या का अर्थ और बोध बदलते हुए।
नरसंहार के पहले चक्र के बाद
उन्होंने पुरातत्व-विज्ञान की खुदाई की,
इतिहास की पुस्तकों पर हमला बोला,
चित्र जलाये, फिल्मों की शूटिंग रोकी,
प्रेम प्रकट करते ”मर्यादाहीनों“ को पीटा, सड़कों पर घसीटा,
हिन्दुत्वद्रोही ईसाई धर्मप्रचारक को बच्चे सहित अग्नि समाधि देकर
उसकी आत्मा को पवित्र कर डाला,
विज्ञान की जगह ज्योतिष शास्त्र और वैदिक गणित को प्रतिष्ठित किया
और फिर गुजरात की प्रयोगशाला में न्यूटन की उपयोगिता सिद्ध की
नरमेघ यज्ञ को स्वाभाविक बतलाने में।
यहाँ हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का जुनून था और ‘जय श्रीराम’ का नारा था।
जर्मनी नहीं, इटली या स्पेन नहीं, यह भारतवर्ष था पवित्र-पावन-पुरातन।


कहीं बाहर से नहीं आये थे ये आक्रान्ता।
पूँजी के सर्वाधिक रुग्ण बीज जब रोपे गये प्रतिक्रिया की
सहस्राब्दियों पुरानी ज़मीन पर, तो ये विषबेलें उगी थीं
जो अब जीवित सर्पों में बदल चुकी थीं इतिहास के शाप से।
ये सर्प लोगों को डंसकर संसद, संविधान ओर न्यायालयों की
दरारों-बांबियों में घुसे जा रहे थे बार-बार।
दलितों, स्त्रियों, विधर्मियों और नास्तिकों के रक्त पर ही पलीं हैं
इनके पूर्वजों की पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ
और अभी भी ये पीते हैं उन्हीं के रक्त से निर्मित नये-नये आसव।
यहीं पैदा हुए हैं ये आक्रान्ता।
इनके कुछ सरगना जब संसदीय मुखौटे लगाकर तलवे चाटते हैं
वाशिंगटन-लन्दन-टोक्यो-बर्लिन-पेरिस के अधिपतियों के
तो इन्हीं में से कुछ मंच सजाकर ‘स्वदेशी-राग’ गाने लगते हैं
और तभी, इनके शस्त्रसज्जित गिरोह राष्ट्रीय गौरव की स्थापना के लिए
सबसे निरीह, सबसे बेबस, सबसे मासूम और सबसे आम लोगों पर
हमला बोल देते हैं
और नये-नये ऑसवित्ज़ रचते हैं।


गन्दगी और समस्त मानवीय चीज़ों से घृणा का सैलाब-सा
गुजर जाता है हमारे ऊपर से
और हम देखते हैं अपने चारो ओर, सड़कों पर, गलियों में फैले,
मलबे में दबे जले-अधजले शरीर, बिखरे हुए मांस के लोथड़े,
गर्भवती स्त्री का पेट चीरकर निकाले गये शिशु की छितराई बोटियाँ,
चैराहों पर, स्टेशनों और बस अड्डों पर लावारिस पड़े
चाकुओं-त्रिशूलों से गुदे-बिंधे नग्न नारी शरीर,
आसमान की ओर घूरती फटी-निर्जीव आँखें,
पत्थरों से ढंक दी गयीं बलात्कृत स्त्रियाँ
और कौवे और चीलें और गिद्ध और कुत्ते और सियार और लोमड़ियाँ और लकड़बग्घे।
और यह सब कुछ जब हो रहा होता है,
ठीक इसीसमय बजट पास हो रहा होता है
पोटा क़ानून बन रहा होता है
और ठीक इसीसमय प्रभाषजोशी टेस्ट मैच में सचिन की विफलता पर
छाती पीट रहे होते हैं,
प्रयाग शुक्ल अपने अखबारी कॉलम में प्रकृति की छटा निहार रहे होते हैं,
बशीर बद्र, यश मालवीय आदि कई कवि-शायर उत्तर प्रदेश के किसी भाजपाई
सांस्कृतिक आयोजन में महामहिम राज्यपाल, साहित्यकार विष्णुकान्त शास्त्री का
सान्निध्य-सुख लूट रहे होते हैं पंचतारा परिवेश में
और परम्परा और संस्कृति पर कहीं निर्मल वर्मा का व्याख्यान तो कहीं
विद्यानिवास मिश्र का आख्यान चल रहा होता है।


गोधरा चाहे हफ्ते भर से जारी रामसेवकों के उत्पात की प्रतिक्रिया हो,
या चाहे खुद इन्हीं की रची साजिश हो
या इन्हीं जैसे किन्हीं और तालिबान की
या आई.एस.आई. और अल-कायदा की
या फिर महज कुछ अपराधियों की करतूत रही हो,
जो गोधरा के बाद हुआ वह एकदम पूर्वनियोजित था
अनियन्त्रित दंगा नहीं, वह सत्ता द्वारा आयोजित नरसंहार था।
क्रिया से पहले ही हो चुकीं थीं प्रतिक्रिया की पूरी तैयारियाँ।
हत्यारे यहाँ-वहाँ दुबके हुए
अभी भी हमले बोल रहे हैं सहसा घात लगाकर।
तय कोटे के हिसाब से रोज़ाना होने हैं कुछ बलात्कार,
कुछ को जिन्दा जलाना है, कुछ बस्तियाँ जलानी हैं
और कुछ बच्चों के कलेजों में भोंकने हैं त्रिशूल।
चुनाव बहुत दूर नहीं हैं, तबतक माहौल बनाये रखना है
और सभी विकल्पों को खुला रखना है
और अठारह मुँहों से अठारह परस्पर-विरोधी बातें बोलते रहना है हत्यारों को


यही नहीं, आतंक और उन्माद को बनाये रखने की
और भी तरक़ीबें हैं उनके पास।
और संसद से सड़क तक उनका रस्मी विरोध जारी है!
लेकिन सवाल है अपने-आप से कि
शान्ति के गुहारों से क्या रुक सका था चार्वाकों और बौद्धों का संहार?
क्या मानवता की दुहाइयाँ दिलवा सकीं थीं
दासों, दलितों और स्त्रियों को मानव होने का अधिकार?
क्या अहिंसा से कायल किये जा सके हैं कभी भी लुटेरे और आततायी?
क्या भाईचारे का सदुपदेश सुना है कभी भेड़ियों ने?
क्या फ्रांको, मुसोलिनी, हिटलर या किसी भी तानाशाह के
हृदय-परिवर्तन का साक्षी बना है इतिहास कभी भी?
सवाल है हमारे सामने कि ग्रीज़ और कालिख सने करोड़ों हाथों में
क्यों नहीं हथौड़े सधे हैं आज आत्मरक्षा और प्रतिरोध के लिए?
इस सवाल से जूझे बग़ैर शान्ति कपोत उड़ाने और
जैतून की टहनियाँ लिये हाथों में बर्बरों की प्रतीक्षा करने से
क्या कुछ बदल सकेगा?
महज कुछ संगोष्ठियों और कुछ मानव-श्रृंखलाओं से
और कुछ मोमबत्तियाँ जलाने से
हत्या और विध्वंस के उन्मादी संकल्पों को पिघलाना सम्भव नहीं।
यदि ऐसा हो पाता तो दुनिया में आज
फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक की तबाहियों की जगह
हवा में लहराते-उड़ते रुमाल, रंगीन पन्नियाँ और पतंगें होतीं।


”मुझे बताओ --
            क्यों तुम चुप बैठे रह गये थे
मुझे बताओ!
            जब उपद्रवी पगलाये हुए थे,
क्यों नहीं तुमने उठाये हथियार
            वज्रधातु के बने अपने वे घन
और उन्हें तब पीट-पाटकर
पटरा क्यों नहीं कर डाला था
            उस फासिस्टी मलबे को?“
कवि येव्तुशेंको ने पूछा था जो सवाल
फासिस्टी उत्पात के समय फिनलैण्ड के लुहारों से
वही प्रश्न उभरता है जे़हन में
पर उसको ढाँपता हुआ उठता है यह विकट प्रश्न कि हम,
हम मानवात्मा के शिल्पी, हम जन-संस्कृति के सर्जक-सेनानी,
क्या कर रहे हैं इस समय?
क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी?
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच?
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं?
या अपने अध्ययन-कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न, या कोई जादू रच रहे हैं?
क्या हम भविष्य का सन्देश अपने रक्त से लिखने को तैयार हैं?
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतक़शों के पास
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतक़शों के पास
ललकारें उन्हें, याद दिलायें उन्हें उनके ऐतिहासिक मिशन की
और उनके पूर्वजों की शौर्यपूर्ण विजय की एक बार फिर,
और पूछें उनसे कि वे उठ क्यों नही खड़े होते
सामराजियों के दरबारी, पूँजी के टुकड़खोर,
धर्म के इन नये ठेकेदारों के तमाम षड्यंत्रों-कुचक्रों के विरुद्ध,
मुक्ति के स्वप्नों को रौंदती तमाम विनाशलीलाओं के विरुद्ध?


आखिर कब वे उठ खड़े होंगे और लोगों को बाँटने के
हर षड्यंत्र को निष्प्रभावी बना देंगे?
- हमें पूछना है उनसे जिनका कोई राष्ट्र नहीं,
इस लोक में गुलामी के नर्क से मुक्ति की राह जिन्हें कोई धर्म नहीं बताता,
जिनके पास जंजीरों के सिवा खोने को कुछ भी नहीं,
जिनकी ज़िन्दगी है एक-सी और इसलिए जो तोड़ सकते हैं
धार्मिक पूर्वाग्रहों से जन्मे मिथ्याभास,
जो धार्मिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय-नस्ली आधारों पर खड़ी
दीवारों को गिरा सकते हैं बशर्तें कि उनतक
हम एक बार लेकर जा सकें जीवन की गतिकी का ज्ञान।
वहीं पहुँचकर वह बनेगा प्रचण्ड भौतिक शक्ति
और हृदय के गुप्त पत्रों पर अंकित भविष्य के अदृश्य
रहस्य-संकेत अरुणाभा से प्रदीप्त हो उठेंगे।
समाजवाद या फिर बर्बरता -- हमें, हम सभी कवियों-लेखकों-कलाकारों को
किसी एक के पक्ष में सक्रिय होना ही होगा
हर जोखिम उठाते हुए।
कोई भी विकल्प न चुनना,
चुप रहना,
या बुदबुदाना अस्पष्ट शब्दों को
या सुगम-सुरक्षित विरोध की कोई नपुंसक राह ढूँढ़ लेना
-- यह सबकुछ और कुछ भी नहीं है
बर्बरता के पक्ष में खड़ा होने के सिवा।

(अप्रैल 2002)

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