Wednesday, December 04, 2013

गन्‍ना किसानों की तबाही पर जारी चर्चा में कुछ ज़रूरी सवाल




-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

गन्‍ना किसानों का संकट पूँजीवादी खेती का आम संकट है, जिसमें बीच-बीच की राहत के बावजूद, मालिक किसानों को, विशेषकर छोटी मिल्कियत वालों को लुटना-पिसना ही है। पूँजीवाद में कृषि और उद्योग  के बीच बढ़ता अंतर मौज़ूद रहेगा और संकटकाल में, ज्‍यादा उत्‍पादकता वाले  उद्योगों के मालिक कम उत्‍पादकता वाली खेती के मालिकों को दबायेंगे  ही। नतीज़ा -- पूँजीवादी दायरे में छोटी किसानी की तबाही, कंगाली, भूस्‍वामित्‍व के ध्रुवीकरण और कारपोरेट खेती के तरफ क्रमिक संतरण की गति बीच-बीच में मंद हो सकती है, पर दिशा नहीं बदल सकती। हम पीछे नहीं लौट सकते। नरोदवाद और सिसमोंदी का यूटोपिया सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में ग़लत सिद्ध हो चुका है। खेती के संकट और छोटे मालिक किसानों की तबाही का एकमात्र समाधान खेती का समाजवादी नियोजन ही है जो क्रान्ति के बाद ही सम्‍भव है। हमें मध्‍यम किसानों को य‍ह समझाना होगा । और आने वाले दिनों में हालात भी उन्‍हें यह समझने के लिए बाध्‍य कर देंगे ।

मगर मेरे वामपंथी साथियो, सिर्फ मालिक गन्‍ना किसानों की तबाही पर ही छाती पीटते रहोगे या उ.प्र. के चीनी मिलों में कार्यरत उन लाखों अस्‍थायी, कैजुअल, सीज़नल और दिहाड़ी मज़दूरों के बारे में भी कभी बात करोगे, जिनके लिए काम के घण्‍टे, रोज़गार-सुरक्षा, न्‍यूनतम वेतन, स्‍वास्‍थ्‍य  सुविधा आदि से जुड़े श्रम क़ानूनों का कोई मतलब ही नहीं है और जो नारकीय स्थितियों में काम करते हैं! जो थोड़ी से स्‍थायी मज़दूर हैं, उनकी भी कोई ख़ास अच्‍छी स्थिति नहीं है। यूनियनें कहीं भी नहीं हैं और यदि हैं भी तो निष्‍प्रभावी हैं या दल्‍लों के गिरोह हैं। ''वामपंथी'' दल और धरतीपकड़ पत्रकार उन लाखों फार्म मज़दूरों की ज़ि‍न्‍दगी और रोज़गार की परिस्थितियों की भी चर्चा तो दूर, उनपर ध्‍यान तक नहीं देते, जो उ.प्र. और उत्‍तराखण्‍ड  के तराई इलाके और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के बड़े फार्मो में काम करते हैं।

सर्वहारा को छोड़कर मालिक किसानों की ''विपदा'' पर शोक मनाना -- यह वामपंथ की सही राजनीति नहीं है, यह मज़दूर-किसान संश्रय की राजनीति भी नहीं है, यह शुद्ध सरल नरोदवाद है, यूटोपियाई  ''किसानी समाजवाद'' है। सर्वहारा हितों के केन्‍द्र में रखकर मज़दूर-किसान संश्रय के साझा मुद्दों का चार्टर बनाना कम्‍युनिस्‍टों का काम है, न कि खेती के लागत मूल्‍य को कम करने और कृषि-उत्‍पादों के लाभकारी मूल्‍य की लड़ाई लड़ना। 

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