Tuesday, December 03, 2013

हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष: बुद्धिजीवियों के लिए कुछ व्‍यावहारिक प्रस्‍ताव






-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

मोदी प्रधानमंत्री बने या न बनें, भाजपा सत्‍ता में आये या न आये, आने वाले समय में हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद भारतीय राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्‍य पर एक प्रभावी विनाशकारी मौज़ूदगी बनाये रखेगा। फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन है जो समाज में तृणमूल(ग्रासरूट) स्‍तर पर पर अपने सामाजिक आधार का तानाबाना बुन रहा है। व्‍यापक आम जनता पर तृणमूल स्‍तर पर काम करके ही उसका मुक़ाबला किया जा सकता है। नवउदारवाद के दौर में, संकटग्रस्‍त पूँजीवादी समाज फासीवाद को आज नया भौतिक आधार दे रहा है। बुर्ज़ुआ जनवाद का सीमित स्‍पेस भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है।

ऐसे में, सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की जो भारी आबादी है, वह केवल सीमित प्रसार वाली पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर, सेमिनार करके, शहरों में कुछ रैलियाँ निकालकर और फेसबुक पर मोदी और संघ परिवार पर, उनके चाल-चेहरा-चरित्र पर, उनकी मूर्खताओं और झूठ पर टिप्‍पणियाँ करके इस जनद्रोही राजनीति का प्रभावी प्रतिकार नहीं कर सकता। हमें कुछ ज़मीनी कार्रवाई करनी होगी। घरों से बाहर सड़कों पर निकलना होगा। जनता के बीच जाना होगा। वरना इतिहास हमें हमारे 'पैस्सिव रैडिकलिज्‍़म' के लिए कभी माफ नहीं करेगा।

देश के आधे सेक्‍युलर प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी यदि मिलकर कोशिश करें तो बहुत कुछ कर सकते हैं। अन्‍य मुद्दों पर मतभेद हो सकते हैं, पर इस मामले में तो हम एकमत हो ही सकते हैं। हमारे अनुभवों के आधार पर मेरे कुछ सुझाव हैं। कृपया इनपर विचार करें।

(1) सभी सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को अपने शहरों-कस्‍बों-गाँवों में धार्मिक कट्टरपंथ के विरुद्ध, उसकी राजनीति और उसकी भीषण परिणतियों को बताते हुए पर्चे निकालने चाहिए। अपने जैसे लोगों को लेकर घर-घर और नुक्‍कड़-चौराहों पर पर्चे बाँटकर प्रचार कार्य करना चाहिए। कम से कम हर सप्‍ताह के शनिवार-रविवार और छुट्टियों के दिन, आधे‍ दिन का समय देकर तो आप यह कर ही सकते हैं।

(2) जहाँ सम्‍भव हो वहाँ सांस्‍कृतिक टोलियाँ बनाकर इस काम को निरंतरता के साथ चलाया जा सकता है।

(3) आप जहाँ भी रहते हों, अपने आस-पास की मज़दूर बस्तियों में जुटान के ऐसे अड्डे तैयार करें जहाँ एक प्रगतिशील साहित्‍य का पुस्‍तकालय हो, हफ्ते मे कम से कम दो दिन मज़दूरों के बच्‍चों को किशोरों और युवाओं को अनौपचारिक शिक्षा दी जाये, यानी उनकी कोर्स की तैयारी में मदद के साथ-साथ राहुल, भगतसिंह आदि के बारे में बताया जाये, उनका साहित्‍य पढ़ाया जाये, दुनिया की क्रान्तियों के बारे में, मानव समाज की विकास के बारे में, जाति-पाँति और धार्मिक कट्टरता की बुराइयों के बारे में बताया जाये। उसी स्‍थान पर हफ्ते में एक-एक दिन शाम को पुरुष मज़दूरों और स्‍त्री मज़दूरों को भी शिक्षा दी जाये, उनके क़ानूनी अधिकारों, उनके राजनीतिक लक्ष्‍य, मज़दूर संघर्षों के राष्‍ट्रीय-अन्‍तरराष्‍ट्रीय इतिहास, स्त्रियों के ग़ुलामी के कारण, जाति और धार्मिक कट्टरता आदि के बारे में शिक्षित किया जाये। स्‍कूलों-कॉलेजों की लंबी छुट्टियों के समय सांस्‍कृतिक कार्यशालाएँ लगाई जायें। ऐसी जगहों पर समय-समय पर अच्‍छी बाल फिल्‍मों, प्रगतिशील फिल्‍मों और डाक्‍यूमेटरीज़(विशेषकर संघ परिवार के कुकृत्‍यों पर) दिखायी जायें, तो और अच्‍छा होगा। मेहनतक़श आबादी के बीच सामाजिक रूढि़यों के विरुद्ध प्रचार पर विशेष बल देना होगा, क्‍योंकि फासीवादी इन्‍हीं रुढ़ि‍यों के चलते अपना समर्थन-आधार बनाने में सफल होते हैं।

(4) इतिहास गवाह है कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से सचेतन और सक्रिय बनाये बिना फासीवादी लहर का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। चुनावी वाम दलों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है, बल्कि उल्‍टे केवल आर्थिक लड़ाइयों और सौदेबाजियों में उलझाकर मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को विघटित करने का ही काम किया है। बिखरे हुए क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट ग्रुप मज़दूरों में नगण्‍य प्रभाव रखते हैं और वे भी जुझारू अर्थवाद और स्‍वत:स्‍फूर्ततावाद में ही फँसे हुए हैं। उनका एक प्रभावी हिस्‍सा वाम दुस्‍साहसवाद में धँसा हुआ है, शेष भारतीय समाज की ग़लत समझ (नवजनवादी क्रांति की मंजिल की समझ) के आधार पर मालिक किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं, भूमि वितरण की पुरानी माँग पर क़ायम हैं और व्‍यवहारत: नरोदवादी आचरण कर रहे हैं। मज़दूर वर्ग उनके एजेण्‍डे पर है ही नहीं। जहाँ तक असंगठित मज़दूरों की भारी आबादी का सवाल है, उन मे किसी की पहुँच न के बराबर है। इसका फासीवादियों को बहुत लाभ मिलेगा, यूँ कहें कि मिल रहा है। सोचना होगा कि इस समस्‍या को हल करने में क्‍या सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की कोई भूमिका हो सकती है? वे कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपनी दिनचर्या, घर-बार और नौकरी से कुछ समय निकालकर, समान विचार वाले कुछ साथियों को जुटाकर मज़दूर आबादी को राजनीतिक चेतना देने के लिए प्रचार के कुछ रूप अपनायें, मज़दूरों को उनके जनवादी अधिकारों के बारे में बतायें, श्रम क़ानूनों के बारे में बतायें, असंगठित मज़दूरों को संगठित होने के बारे में बतायें। इतना बहुत कम है, इतना तो किया ही जा सकता है।

(5) बेरोज़गार-अर्द्धबेरोज़गार, निराश मध्‍यवर्गीय युवाओं के भीतर से फासीवादी भरती करके अपनी वाहिनियाँ तैयार करते रहे हैं। अत: ज़रूरी है कि मध्‍यवर्गीय बस्तियों-मुहल्‍लों में और गाँवों की ऐसी आबादी के बीच भी युवाओं के सांस्‍कृतिक केन्‍द्र (पुस्‍तकालय, खेलकूद क्‍लब, फिल्‍म प्रदर्शन, सांस्‍कृतिक आयोजन आदि) विकसित किये जायें, जाति-पाँत और साम्‍प्रदायिकता पर उन्‍हें भगतसिंह, राहुल से लेकर अन्‍य विचारकों तक के लेखन से परिचित करायें और उन्‍हें संगठन बनाने की दिशा में प्रेरित करें।

फासीवादी उभार के वि‍रुद्ध लड़ाई एक लम्‍बी लड़ाई है, यह एक किस्‍म का 'पोज़ीशनल वारफेयर' है। यदि जनपक्षधर बुद्धिजीवी समाज महज़ लिखने-पढ़ने, फेसबुक पर लगे रहने और फालतू के बौद्धिक शग़ल एवं चिमगोइयों में डूबे रहने के बजाय कुछ समय निकालकर, साहस के साथ, सामाजिक सरगर्मियों में भागीदारी के लिए आगे नहीं आयेगा तो पूरे समाज सहित उसे भी फासीवादी कहर का दण्‍ड भुगतने के लिए तैयार रहना होगा, इतिहास के संग्रहालय में कालिखपुता मुँह लेकर बुत बनकर खड़ा रहने के लिए तैयार रहना होगा। पास्‍टर निमोलर की कविता और ओतो रेने कास्तिलो की कविता (अराजनीतिक बुद्धिजीवी) तो आप सबने पढ़ी ही होगी। गोर्की, लूशुन, नाज़ि‍म हिक़मत, नेरूदा, रॉल्‍फ फॉक्‍स आदि के उद्धरणों को दुहराने-चेंपने भर से कुछ नहीं होगा। समय आ गया है कि थोड़ी उन जैसी ज़ि‍न्‍दगी जीने की भी जहमत उठाई जाये, जोखिम मोल लिया जाये।

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