Sunday, November 10, 2013

मनबहकी लाल के पद



दस -बारह वर्षों पहले मज़दूर अखबार 'बिगुल' में मनबहकी लाल के पद प्राय: छपते थे और पाठकों में काफी लोकप्रिय थे। यहाँ कुछ पदों को फिर प्रस्‍तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ । आप भी पढि़ये और किताबी कीड़ों, बकवासी वामपंथी ''सिद्धान्‍तकारों,'' बड़बोले नौदौलतिये ''क्रान्तिकारियों'' और कठमुल्‍लावादी पुरातात्विक महत्‍व की ''सामग्रियों'' पर जी खोलकर हँसिये ।   --कविता कृष्‍णपल्‍लवी
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(एक)
सन्‍तो भाई, ज्ञान की आँधी आई रे ।
भूसा-टुर्री दाब के राख्‍यो, दाना सब उधियाई रे ।
चिन्‍तन के इस चमत्‍कार से नैन गये चुँधियाई रे ।
नित नव साखी-सबद सुनाये, बौद्धिक रास रचाई रे ।
ऐसा मता-अगाध परोसिन्हि, लक्ष्‍य हवा हुई जाई रे ।
अमल धरम आले पे राख्‍यो, ऐसी मति बढि़याई रे ।
जन को भूले, बैठ कक्ष में, मुक्ति-मार्ग बतलाई रे ।
बिना करम चिन्‍तन-फल चाख्‍यो, माया ठगिनी नचाई रे ।
अकल बहुरिया के मतवारे, भजते राम गुसाई रे ।

(दो)
साधो, बहुत कीन्हि बकवास ।
अति कर डाली, मति हर डाली, चहुँदिशि व्‍यापा त्रास ।
खूब निकाल्‍यो खाल बाल की, थम गई हवा-बतास ।
ज्ञान शास्‍त्र से सभागार में फैला खूब उजास ।
गदगद होकर बोतल खोल्‍यो, खूब कीन्हि परिहास ।
यह अतिचिन्‍तन पड़ी गले में जनगण के बनि फाँस ।
कैसे बजे बाँसुरी साधो, रहे न जग में बाँस ।
छोड़ क्रान्ति की, चादर तानो, यही जगत की आस ।
ओढ़ ज्ञान की काली कमरिया, जाओ प्रभु के पास ।

(तीन)
साधो भागे धुरियाझाऱ ।
जन ने पूछा ज्ञान कहाँ से मिला आपको अपरम्‍पार ।
जीवन के करघे से अथवा पोथी से, बतलाओ यार ।
ज्ञानी हो तो राह बताओ, दु:ख का नहीं पारावार ।
अन्‍धकार की इस सुरंग से कैसे निकलेंगे हम पार ।
चिन्‍तन कर तर माल उड़ाते, लेक्‍चर देते बारम्‍बार ।
धूल-धुआँ जो फाँक रहे हैं, उनकी किस्‍मत तारमतार ।
अनगढ़-बेढब बातें सुनकर साधु खा गये जन से खार ।
ज्ञान भार से लदफद-लथपथ घर को लपके, हो मुर्दार ।

(चार)
हम ठलुअन के, ठलुए हमारे ।
ग्रंथन बिच झींगुर जस चिपकिन्हिं, जिनगी की हरिहरी बिसारे ।
लायब्रेरि में पोथी घोखत, 'थियरी' बूकत साँझ-सकारे ।
भ्रान्ति भये सब सपन क्रान्ति के, अस गुरुमंत्र सिखाये प्‍यारे ।
गुरू भये पेरी एण्‍डरसन, चेला हुइ गये अन्‍ना हजारे ।
'बैकडोर' से छुपके पहुँचे, फण्डिंग एजेंसियन दुआरे ।
ऐसिहिं राह चुनो तुम ऊधो, मौज करेंगे ललुए तुम्‍हारे ।

(पाँच)
अब लौं नसानी, अब ना नसैंहो ।
ओढ़ ज्ञान की काली कमरिया किन्‍नर देश बसैंहो ।
अतिसय कठिन डगर पनघट की घर बादल  बरसैंहो ।
नियम उलटिकै अब चिन्‍तन से जीवन को उपजैंहो ।
बकबक-बकबक-बकबक-बकबक खूब विचार सुनैंहो ।
कथनी पर अधिकार जमा, सिद्धान्‍तकार कहलैंहो ।
जब करनी कै बारी चादर तानि तुरत सो जैंहो ।
मूरख भटकैं धूल-धुआँ में, हम लाइन गढ़ लैंहो ।
एन.जी.ओ. का चुग्‍गा चुगिकै, जो सिखिहैं, सिखलैंहो ।
जब लौं सिक्‍का चलिहैं तब लौं अनहद राग सुनैंहो ।
गगन घटा घहरानी जब झट स्‍वर्गपुरी उडि़ जैंहो ।

(छह)
मनुआ, तुम कत रहत हरे ।
अस अमूर्त दरसन सुनि-सुनि कै ठाढ़े क्‍यूँ न जरे ।
सभागार में बिद्वानन के रेवड़ ठूँस भरे ।
जूठन को मौलिक कहि-कहि कै, पगुरी खूब करे ।
चिन्‍तन से उत्‍तर-चिन्‍तन में अस संक्रमण करें ।
अस बिमर्श का चर्खा कातैं, भ्रम का धुआँ भरें ।
जो कुछ हुआ नकारे उसको, नव-सिद्धान्‍त गढ़ें ।
रस्‍सी फेंकें आसमान में, उस पर जाई चढ़ें ।
ठलुआ चिन्‍तन का सिक्‍का मण्‍डी में खूब चले ।
मूड़ मुड़ाये पढ़ुआ गन बिच इनकी दाल गले ।
मीन मेख अस काढ़ै जस निखुराहा बरध चरे ।
अस कसिकै पछींट कै धोवैं, कुकुरा घाट मरे ।

(सात )*
माधव हम परिनाम निरासा ।
अनुभव घट जब रीत गयो, तब बाजा ताहि बनायो ।
बैठी मियाँ की मल्‍हार छेड़ि‍न्हि, जीवन-धन बिसरायो ।
पैठी गुफा में ध्‍यान लगा चिन्‍तन का अण्‍डा सेऊँ ।
कोलम्‍बस बन पोखर में क़ागज की नैया खेऊँ ।
चेलन को जब राह सुझायो, चेले झट मुड़ि‍यायो ।
गच्‍चा खायो ग़जब हम भइया, इनके कहे पतियायो ।
जो जो जाये धँसे जनता में, बहुरि लौटि ना आयो ।
हम इक बचे जहाज के पंछी, पुनि जहाज पै आयो ।
हम धृतराष्‍ट्र महाभारत के, निकट न संजय कोई ।
दुखवा कासे रोउँ रे सजनी, काटुँ वही जो बोई ।
रावण जस मदमत्‍त भयो, ठलुअन से बाँधी आसा ।
मूर्खन बिच अस फँसे कि मरु बिच जैसे मरत पियासा ।
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*(पुरानी पीढ़ी के उन क्रान्तिकारियों के नाम, जो क्रान्ति-पीठों के महामण्‍डलेश्‍वर बनने के चक्‍कर में पड़ गये और पुरातात्विक महत्‍व की सामग्री बन गये ।)

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