Sunday, October 27, 2013

उत्पादन-प्रणाली पर विचारधारा की निर्भरता


मैं इस अवसर से लाभ उठाकर अमरीका में प्रकाशित एक ज़र्मन पत्र के उस एतराज़ का संक्षेप में जवाब दे देना चाहता हूँ जो उसने मेरी रचना Zur Kritik der Politischen Oekonomie, 1859 पर किया है। मेरा मत है कि प्रत्‍येक विशिष्‍ट उत्‍पादन-प्रणाली और उसके अनुरूप सामाजिक सम्‍बन्‍ध, या संक्षेप में कहिए, तो समाज का आर्थिक ढाँचा ही वह वास्‍तविक आधार होता है, जिसपर क़ानूनी एवं राजनीतिक ऊपरी ढाँचा खड़ा किया जाता है और जिसके अनुरूप चिन्‍तन के भी कुछ निश्चित सामाजिक रूप होते हैं; मेरा म‍त है कि उत्‍पादन की प्रणाली आम तौर पर सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक जीवन के स्‍वरूप को निर्धारित करती है। इस पत्र की राय में, मेरा यह मत हमारे अपने ज़माने के लिए तो बहुत सही है, क्‍योंकि उसमें भौतिक स्‍वार्थों का बोलबाला है, लेकिन वह मध्‍ययुग के लिए सही नहीं है, जिसमें कैथोलिक धर्म का बोलबाला था, और वह एथेंस और रोम के लिए भी सही नहीं है, जहाँ राजनीति का ही डंका बजता था। अब सबसे पहले तो किसी का यह सोचना सचमुच बड़ा अजीब लगता है कि मध्‍ययुग और प्राचीन संसार के बारे में ये पिटी-पिटाई बातें किसी दूसरे को मालूम नहीं हैं। बहरहाल इतनी बात तो स्‍पष्‍ट है कि मध्‍ययुग के लोग केवल कैथोलिक धर्म के सहारे या प्राचीन संसार के लोग केवल राजनीति के सहारे ज़ि‍न्‍दा नहीं रह सकते थे। इसके विपरीत, उनके जीविका कमाने के ढंग से ही यह बात साफ़ हो जाती है कि क्‍यों एक काल में राजनीति की और दूसरे काल में कैथोलिक धर्म की भूमिका प्रधान थी। जहाँ तक बाक़ी बातों का सम्‍बन्‍ध है, तो, उदाहरण के लिए, रोमन गणतंत्र के इतिहास की मामूली जानकारी भी यह जानने के लिए काफ़ी है कि रोमन गणतंत्र का गुप्‍त इतिहास वास्‍तव में उसकी भूसम्‍पत्ति का इतिहास है। दूसरी ओर, दोन किहोते बहुत पहले अपनी इस ग़लत समझ का ख़ामियाज़ा अदा कर चुका है कि मध्‍ययुग के सूरमा-सरदारों जैसा आचरण समाज के सभी आर्थिक रूपों से मेल खा सकता है।


-कार्ल मार्क्‍स (पूँजी, खण्‍ड-एक, 1867, पृष्‍ठ-100 पर पाद टिप्‍पणी)

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