Thursday, February 14, 2013


विचारों को मनुष्‍य क्रियान्वित करते हैं!

विचार हमें एक पुरानी विश्‍व-व्‍यवस्‍था से कभी भी आगे नहीं ले जा सकते, बल्कि केवल पुरानी विश्‍वव्‍यवस्‍था के विचारों से आगे ले जाते हैं विचार किसी चीज़ को किसी भी सूरत में क्रियान्वित नहीं कर सकते। विचारों को क्रियान्वित करने के लिए मनुष्‍यों की आवश्‍यकता होती है, जो सुनिश्चित व्‍यावहारिक शक्ति लगाते हैं...
-मार्क्‍स और एंगेल्‍स('पवित्र परिवार',1844)


इतिहास मनुष्‍य की लक्ष्‍य-सजग गतिविधि है!

इतिहास कुछ नहीं करता, इसके पास  ''कोई अकूत धन-सम्‍पदा नहीं होती है''', यह  ''कोई युद्ध नहीं लड़ता।'' यह मनुष्‍य है, वास्‍तविक जीवित मनुष्‍य, जो वह सब कुछ करता है, वही धन-सम्‍पदा का स्‍वामी होता है और वही लड़ता है; ''इतिहास'' अलग से कोई व्‍यक्ति नहीं है जो मनुष्‍य को अपने विशेष लक्ष्‍यों के लिए साधन के तौर पर इस्‍तेमाल करता है, इतिहास मनुष्‍य द्वारा अपने लक्ष्‍यों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए की जाने वाली गतिविधि के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं हैा
- मार्क्‍स और एंगेल्‍स('पवित्र परिवार', 1844)


इतिहास-विषयक मार्क्‍स की बुनियादी खोज(उन्‍हीं के शब्‍दों में)

...जहाँ तक मेरा सवाल है, न आधुनिक समाज में वर्गों का अस्तित्‍व और न ही उनके संघर्ष की खोज करने के श्रेय का मैं अधिकारी हूँ। मुझसे बहुत पहले ही बुर्जुआ इतिहासकार वर्गों के इस संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का और बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री वर्गों की आर्थिक बनावट का वर्णन कर चुके थे। मैंने जो नयी चीज़ की, वह यह सिद्ध  करना था कि: (1) वर्गों का अस्तित्‍व उत्‍पादन के विकास के ख़ास ऐतिहासिक दौरों के साथ बँधा हुआ है, (2) वर्ग-संघर्ष लाजि़मी तौर पर सर्वहारा के अधिनायकत्‍व की दिशा में ले जाता है, (3) यह अधिनायकत्‍व स्‍वयं सभी वर्गों के उन्‍मूलन तथा वर्गहीन समाज की ओर संक्रमण मात्र है।...
 -मार्क्‍स (जोज़ेफ वेडेमेयर को पत्र, 5 मार्च 1852)


व्‍यवहार से पृथक् चिन्‍तन पर विचार कोरा वितंडावाद है!

क्‍या मानव-चिन्‍तन के बारे में कहा जा सकता है कि वह वस्‍तुनिष्‍ठ [gegenstandliche] सत्‍य का अवबोध कर सकता है, यह प्रश्‍न सैद्धान्तिक नहीं, बल्कि व्‍यावहारिक है। व्‍यवहार में मनुष्‍य को अपने चिन्‍तन की सत्‍यता, अर्थात् यथार्थता और शक्ति, उसकी इह-पक्षता [diesseitigkeit] को प्रमाणित करना पड़ता है। व्‍यवहार से पृथक् रूप में चिन्‍तन की यथार्थता या अयथार्थता सम्‍बन्‍धी विवाद कोरा वितंडावादी प्रश्‍न है।
-कार्ल मार्क्‍स (फायरबाख़ पर निबंध,1845)


परिवर्तन, विचार और व्‍यवहार

यह भौतिकवादी सिद्धान्‍त कि मनुष्‍य परिस्थितियों एवं शिक्षा-दीक्षा की उपज है, और इसलिए परिवर्तित मनुष्‍य भिन्‍न परिस्थितियों एवं भिन्‍न शिक्षा-दीक्षा की उपज है, इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्‍य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्‍वयं शिक्षा की आवश्‍यकता होती है। अत: यह सिद्धान्‍त अनिवार्यत: समाज को दो भागों में विभक्‍त कर देने के निष्‍कर्ष पर पहुँचता है, जिनमें से एक भाग समाज से ऊपर होता है(राबर्ट ओवेन में, उदाहरणार्थ, हम ऐसा पाते हैं)।
परिस्थितियों तथा मानव क्रियाकलाप के परिवर्तन का संपात केवल क्रान्तिकारी व्‍यवहार के रूप में विचारों तथा तर्कबुद्धि द्वारा समझा जा सकता है।
-कार्ल मार्क्‍स (फायरबाख़ पर निबंध,1845)


सामाजिक जीवन मूलत: व्‍यावहारिक है

सामाजिक जीवन मूलत: व्‍यावहारिक है। सारे रहस्‍य जो सिद्धान्‍त को रहस्‍यवाद के ग़लत रास्‍ते पर भटका देते हैं, मानव-व्‍यवहार में और इस व्‍यवहार के संज्ञान में अपना बुद्धिसम्‍मत समाधान पाते हैं।
-कार्ल मार्क्‍स (फायरबाख़ पर निबंध,1845)


दर्शन की सार्थकता - दुनिया को बदलना

दार्शनिकों ने विभिन्‍न विधियों से विश्‍व की केवल व्‍याख्‍या ही की है, लेकिन प्रश्‍न विश्‍व को बदलने का है।
-कार्ल मार्क्‍स (फायरबाख़ पर निबंध,1845)



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