Friday, February 15, 2013

दीपांकर चक्रवर्ती (1941-2013): देर से एक श्रद्धांजलि

कॉमरेड दीपांकर चक्रवर्ती नहीं रहे। गत 27 जनवरी 2013 को कोलकाता में तेघरिया स्थित आवास पर दिल का दौर पड़ने से उनका निधन हो गया।

शोकाकुल करने वाली यह सूचना जब हम लोगों को मिली, तब हम लोग एक दूसरी आपदा का सामना कर रहे थे। हमलोगों की अभिन्‍न कॉमरेड शालिनी के मेटास्‍टैटिक कैंसर से ग्रस्‍त होने की सूचना हाल ही में मिली थी और तब दिल्‍ली में उनकी कीमोथेरैपी की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई थी। हम सब उसी में व्‍यस्‍त थे।

दीपांकर दा सच्‍चे अर्थों में एक कम्‍युनिस्‍ट बुद्धिजीवी थे। वह वास्‍तव में जनता के आदमी थे। क्रान्तिकारी वाम आन्‍दोलन के वह आजीवन शुभचिन्‍तक-सहयात्री बने रहे। भारत के जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के वह एक अग्रणी सेनानी थे। ए.पी.डी.आर. के वह संस्‍थापक सदस्‍य थे और अन्तिम समय तक उसके उपाध्‍यक्ष थे।

दीपांकर दा जन्‍म 1941 में ढाका में हुआ था। उनकी परवरिश मुर्शिदाबाद में और शिक्षा-दीक्षा बहरामपुर और कोलकाता में हुई थी। छात्र में ही वह कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के सम्‍पर्क में आ चुके थे। कृष्‍णनाथ कॉलेज, बहरामपुर में अर्थशास्‍त्र पढ़ाने के बाद कोलकाता में रहने लगे थे।

1964 में अविभाजित कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष जब तीव्र हुआ और भाकपा से माकपा अलग हुई तो दीपांकर दा भी भाकपा से अलग हो गये। जब नक्‍सलबाड़ी किसान उभार हुआ तो दीपांकर दा ने उसका स्‍वागत किया। माकपा के नव संशोधनवाद के प्रति उनका आलोचनात्‍मक रुख था, पर साथ ही वाम दुस्‍साहसवादी विचलन औरकठमुल्‍लावाद से भी उनकी सहमति नहीं बन पायी। इसी कारणवश, जब भाकपा (मा-ले) की घोषणा हुई तो वह उसमें शामिल नहीं हुए।

'अनीक' बांग्‍ला पत्रिका का प्रकाशन वह 1964 में ही शुरू कर चुके थे। उसके पूर्व उन्‍होंने 'पुनश्‍च' नाम से भी एक लघु पत्रिका निकाली थी। वामपंथी चिन्‍तन और विमर्श के एक स्‍वतंत्र मंच के रूप में 'अनीक' का अस्तित्‍व उन्‍होंने आद्यंत बनाये रखा। आपातकाल के उन्‍नीस महीनों के अतिरिक्‍त 'अनीक' 1964 से लेकर अबतक अविराम प्रकाशित होता रहा है। क्रान्तिकारी वाम आन्‍दोलन के लिए 'अनीक' की वही भूमिका रही, जो समर सेन द्वारा सम्‍पादित अंग्रेजी साप्‍ताहिक 'फ्रंटियर' की थी। आपातकाल के काले दिनों के दौरान सिद्धार्थ शंकर राय के फासिस्‍ट दमन के दीपांकर दा भी साक्षी रहे और उन्‍नीस महीने कारावास में बिताये। उसके बाद भी वाम बौद्धिक दायरे और जनवादी अधिकार आन्‍दोलन में उनकी निरंतर भागीदारी बनी रही।हृदय रोग और गिरते स्‍वास्‍थ्‍य ने उनकी ऊर्जस्विता पर कोई प्रभाव नहीं डाला।

2011 में लखनऊ में अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास की ओर से  जनवादी अधिकार आन्‍दोलन पर आयोजित संगोष्‍ठी में हम लोगों को दीपांकर दा के साथ तीन दिन तीन रात बिताने का और जीवंत एवं आत्‍मीय विचार-विमर्श का जो अवसर मिला, वह भुलाया नहीं जा सकता। 'अनीक' के अगले अंक में सेमिनार में पठित कात्‍यायनी के मुख्‍य पर्चे को उन्‍होंने आग्रहपूर्वक छापा था। 'अनीक' में भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम पर जारी बहस में पिछले  ही अंक में उन्‍होंने अभिनव का लेख भी छापा था।'अनीक' में लिखने के बार-बार के उनके आग्रह को हमलोग पूरा नहीं कर पाते थें, इसका हमेशा अफसोस रहेगा।

दीपांकर दा से हमलोगों का सम्‍पर्क पच्‍चीस वर्षों पुराना रहा है। समय के साथ  यह प्रगाढ़ होता गया। हमलोगों के आग्रह पर उन्‍होंने 'पीकिंग-रिव्‍यू' की दशकों की दुर्लभ फाइलें उपलब्‍ध करवाई थीं। अभी निधन से एक सप्‍ताह पूर्व ही उनसे साथियों की दूरभाष पर लम्‍बी वार्ता हुई थी और उन्‍होंने चण्‍डीगढ़ में 'जाति प्रश्‍न और मार्क्‍सवाद' पर होने वाली चौथी अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी (12-16 मार्च2013) में पर्चे सहित आने का पक्‍का वायदा किया था। अब मार्च में संगोष्‍ठी में हमलोग जुटेंगे तो दीपांकर दा की अनुपस्थिति गहराई तक सालती रहेगी।

दीपांकर चक्रवर्ती जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के साथ ही लघुपत्रिका आन्‍दोलन के भी एक शीर्षस्‍थ पुरोधा थे। वे 'पीपुल्‍स बुक सोसाइटी' नामक प्रसिद्ध प्रकाशन संस्‍थान के भी संस्‍थापाक थे।

दीपांकर दा का स्‍थान भरना अत्‍यन्‍त कठिन होगा। हम उन्‍हें कभी न भूल पायेंगे। उनकी स्‍मृतियों को सादर नमन! उनके व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व को इंकलाबी सलाम!


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