(स्त्री मुक्ति लीग की कविता पोस्टर श्रृंखला का पोस्टर-2)
जो रोज सड़कों पर या बन्द दरवाज़ों के पीछे
बर्बरता की शिकार हो रही हैं,
जो रोज़ जलाई जा रही हैं
या फाँसी चढ़ाई जा रही हैं
दहेज के लिए या जाति-बिरादरी की झूठी शान के नाम पर,
वे भी औरतें हैं हमारी जैसी, तुम्हारी जैसी।
बहनों सोचो! साथियों सोचो!
क्या जला दिये जाने से बेहतर नहीं होगा
पुराने रीति-रिवाज़ों और सड़ी-गली परम्पराओं को
जलाकर राख कर देना?
क्या बेहतर नहीं होगा कि
फंदा अपने गले से निकालकर
इस मानवद्रोही समाज-व्यवस्था के गले में
डाल दिया जाये?
जो युवा स्त्रियाँ सम्मोहित हैं
उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध से
और अपनी निजी आज़ादी के मिथ्याभास में
जी रही हैं, उन्हें पता होना चाहिए
कि पुरुषवादी दृष्टि में वे मात्र उपभोक्ता सामग्री हैं।
सावधान! बर्बरता खड़ी है
किसी भी अँधेरे मोड़ पर या घर-दफ़्तर
के किसी अँधेरे कोने में तुम्हें दबोचने के लिए
या शराफ़त का मुखौटा पहनकर
कहीं भी तुम्हें धोखा देने-ठगने के लिए!
बहनों! साथियों!
तब सबसे बदतर होती है गुलामी
जब हम अपनी गुलामी से बेखबर होते हैं
हमारी लड़ाई है बर्बरता के सभी नये-पुराने
रूपों के खिलाफ़ और इन्हें जन्म देने वाले
सामाजिक ढाँचे के ख़िलाफ़ ।
मुक्ति और न्याय के लिए हमें एकजुट होना है
और उठ खड़े होना है।
बहनो! साथियो! सोचो और आगे कदम बढ़ाओ
यात्रा कठिन है। सफ़लता दूर है।
लेकिन असम्भव नहीं।
-स्त्री मुक्ति लीग
सुन्दर प्रस्तुति,
ReplyDeleteजारी रहिये,
बधाई !!
सशक्त कविता ,निर्णायक पहल के लिए आवाहन करती हुई ,मजबूत रचना !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (29-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
very nice....
ReplyDeleteसशक्त रचना
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