एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन था
जहां बादलों ने विदाई दी मुझे।
फूल अलग हुए कहीं
हिमालय की तलहटी में।
गीतों के साथ
आख़िरी शाम बीती थी
कहीं किसी घाटी में।
रंग उड़ गये थे शायद
सदियों पहले गुजरी किसी गर्मी में
किसी एक व्यस्त महानगर की
आपाधापी में।
और तमाम युद्धों से लहुलुहान जब मैं
एक रेगिस्तानी इलाके के अस्पताल में
पड़ी थी अकेली,
मुझे बताया एक बूढ़े दरवेश ने
कि वहां से बाइस कोस दूर
पूरब के एक घने जंगल में
एक कैंप में मेरा इंतज़ार कर रहे हैं
कुछ लोग -
बादल, फूल, गीत और रंग...
यही ... या ऐसे ही कुछ शायद
नाम हैं उनके।
-कविता कृष्णपल्लवी
No comments:
Post a Comment