Friday, January 07, 2011

ओ विहग!



ओ विहग!

यदि संध्‍या मन्‍द मन्‍थर गति से आ रही हो
सारे संगीत एक इंगित पर थम गये हों
यदि कोई संगी इस अनन्‍त आकाश में न हो
यदि सारा शरीर थकान से ढल गया हो
महाआशंका चुपचाप अन्‍तर में व्‍याप्‍त हो रही हो
दिग-दिगन्‍त अवगुण्‍ठन में ठग गये हों
तब भी ओ मेरे विहग !
इस गहन अन्‍धकार में भी
अपनी उड़ान बन्‍द मत करना।


(रवीन्‍द्र नाथ टैगोर की एक लम्‍बी कविता का एक अंश)

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