Thursday, December 18, 2025


 मैं सोच रही हूँ कि तीन दिन तक दिन-रात पन्द्रह सौ कविताएँ लिखूँ, फिर उसकी पन्द्रह प्रतियाँ ख़ुद ही छाप लूँ, इस घोषणा के साथ कि यह पन्द्रह सौ वर्षों की श्रेष्ठतम काव्यकृति है। उसकी क़ीमत पन्द्रह करोड़ नहीं, पन्द्रह लाख भी नहीं बल्कि विनम्रतापूर्वक एक लाख पन्द्रह हज़ार रखूँ और फिर पन्द्रह बुद्धिजीवी पाठक खोज निकालूँ। 

अपनी यह इच्छा जाहिर करने पर एक मित्र ने कहा कि इसमें एक ख़तरा यह है कि पन्द्रह लोग पकड़ कर मुझे पागलखाने पहुँचा दें और वहाँ मुझे पन्द्रह महीने गुज़ारने पड़ें। 

लेकिन मेरा ख़याल है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। क्या किसी बुद्धिजीवी ने कभी यह प्रस्ताव रखा कि नॉन बायोलॉजिकल महामानव का, कंगना रनौत का या उन जैसे तमाम दूसरों का निवास किसी पागलखाने में होना चाहिए? और बुद्धिजीवियों और कवियों के बीच भी पागल और नीमपागल क्या कम हैं? और जो पागल नहीं हैं उनमें से एक बड़ी संख्या शातिरदिमाग़, काइयाँ, कायर, मौकापरस्त और दरबारी मिज़ाज के लोगों की है। ऐसे लोग किसी फ़ासिस्ट सिस्टम की अहम ताक़त होते हैं। 

#पगलैट_ख़यालात

(18 Dec 2025)

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