Wednesday, September 18, 2019


विज्ञान के पैरों में सबसे बड़ी डंडा-बेड़ी पूँजीवादी व्यवस्था होती है I विज्ञान के मुँह में लगाम डालकर उसे मज़बूर किया जाता है कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में सहायक बने और कच्चे माल की लूट और दुनिया के बाज़ारों के बंटवारे के लिए होने वाले युद्धों और शक्ति-प्रदर्शनों के लिए उन्नत से उन्नत युद्ध-तकनोलोजी विकसित करे ! दुनिया के विभिन्न देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रम और संचार-तकनोलोजी के विकास के सारे प्रोजेक्ट भी मूलतः और मुख्यतः पूँजी-संवर्धन और युद्ध तकनोलोजी के विकास की महापरियोजना के ही विस्तारित अंग होते हैं !

विज्ञान की सारी उपलब्धियाँ वस्तुतः मनुष्यता की उपलब्धियाँ होती हैं I जब इन्हें किसी देश-विशेष के राष्ट्रीय गौरव से जोड़ दिया जाता है तो विज्ञान एक बार फिर पूँजीवाद का हथियार बन जाता है I

पूँजीवादी समाज में विज्ञान की जो भी उपलब्धियाँ जन-समुदाय तक पहुँचती हैं, वे घलुवे की चीज़ होती हैं, मूल प्रक्रिया का बाई-प्रोडक्ट होती हैं ! जो तकनोलोजी युद्ध के लिए या मुनाफ़ा बढाने के लिए मशीनों को उन्नत करने के लिए विकसित होती हैं, उनका इस्तेमाल फिर नागरिकों के लिए भी होता है और नयी उपभोक्ता सामग्रियों का बाज़ार तैयार करके मुनाफ़ा कूटा जाता है ! जो जीवन-रक्षक दवाएँ हम इस्तेमाल करते हैं, उन्हें लागत से पचासों और सैकड़ों गुनी कीमतों पर बाज़ार में उतारा जाता है और उनका आविष्कारक वैज्ञानिक कुछ नहीं कर सकता ! वह दैत्याकार राष्ट्र्पारीय दवा कंपनियों का उजरती बौद्धिक गुलाम मात्र होता है ! हर वैज्ञानिक या वैज्ञानिकों की टीम अपने आविष्कारों का पेटेंट विभिन्न प्रतिष्ठानों को बेचने के लिए बाध्य होती हैं I

जिन वैज्ञानिकों की जनता और विज्ञान के प्रति थोड़ी भी प्रतिबद्धता होती है, जिनका वास्तव में किसी हद तक साइंटिफिक टेम्पर होता है, वे पूँजीवादी समाज के विज्ञान-प्रतिष्ठानों में तमाम दबावों को झेलते हुए घुट-घुट कर काम करते हैं I चूंकि पूँजीवाद को भी कुछ योग्य लोगों की ज़रूरत होती है, इसलिए वह ऐसे जेनुइन वैज्ञानिकों को एक सीमा तक छूट देने के लिए बाध्य भी होता है I लेकिन विज्ञान के अधिकांश सत्ता-प्रतिष्ठानों में ज़्यादातर ऐसे तिकड़मी नौकरशाह भरे होते हैं जो विज्ञान की दुनिया के पटवारी और क्लर्क होते हैं, या मात्र टेक्नीशियन होते हैं ! ज़्यादातर ऐसे लोग सत्ता में बैठे लोगों की जी-हुजूरी करते हैं, गुटबाजी करते हैं, थीसिसों की चोरी करते हैं, मातहतों के शोध-कार्यों का श्रेय लेते हैं,तथा, जेनुइन और स्वाभाविक वैज्ञानिकों को इतना सताते हैं कि कभी-कभी अवसाद, पागलपन और आत्महत्या के मुकाम तक पहुँचा देते हैं ! इनदिनों ज़्यादातर ऐसे लोग ही विज्ञान संस्थानों और प्रतिष्ठानों के शीर्ष तक पहुँच पाते हैं ! आप किसी भी सरकारी संस्थान के किसी कनिष्ठ वैज्ञानिक से बात कीजिए, अगर आप उसे विश्वास में ले सकें तो ऐसी सच्चाइयाँ आपको पता चलेंगी कि आँखें फटी रह जायेंगी! दरअसल इन सभी प्रतिष्ठानों के सत्ता-पोषित वैज्ञानिक नौकरशाह एक माफिया गैंग के समान काम करते हैं ! कई बार इन माफिया गैंगों के आपसी टकराव भी होते हैं जिनमें आम वैज्ञानिक ही खेत रहते हैं I

जब भी कोई वैज्ञानिक राजनेताओं की गणेश-परिक्रमा करता हुआ और गैर-ज़रूरी तौर पर दांत चियार-चियारकर उनकी लल्लो-चप्पो करता हुआ दीखे तो पक्का मानिए, वह एक जेनुइन वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सांस्थानिक नौकरशाह मात्र है जो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को खुश करके लगातार ऊँची कुर्सियों पर कूदते रहना चाहता है ! कल लैंडर विक्रम से संपर्क टूटने के बाद इसरो प्रमुख के.शिवन मोदी से गले मिलकर जब रो-धो लिए तो मोदी के प्रोत्साहन और आश्वासन से गदगदायमान होकर बोले कि 'प्रधानमंत्री हम सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं !' अब आप ही सोचिये कि जिस व्यक्ति की खुद की डिग्रियाँ संदिग्ध हैं, जो रोज़ झूठ बोलता रहता है, जो रामसेतु, पुष्पक विमान, गणेशजी की प्लास्टिक सर्जरी आदि-आदि की भयंकर गपोड़ी किस्म की बातें करते हुए विज्ञान की रोज़ ही ऐसी-तैसी करता रहता है, जो हरदम गणित से लेकर इतिहास और अर्थशास्त्र तक का क्रिया-कर्म करने पर आमादा रहता हैहै, जिसने सभी वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों और वैज्ञानिक शिक्षा के बजट में रिकॉर्ड कटौती कर डाली, जो एक ऐसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध है जो प्रकृति से ही विज्ञान-विरोधी है; उस व्यक्ति से किसी वैज्ञानिक को भला क्या प्रेरणा मिलेगी ? इतना बड़ा, सफ़ेद और शर्मनाक झूठ बोलते हुए अगर किसी वैज्ञानिक की जुबान लरज नहीं गयी, तो वह वैज्ञानिक नहीं, ज़रूर कोई तिकड़मी, सत्तासेवी नौकरशाह है !

(8सितम्बर, 2019)

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