Monday, June 10, 2019

चुनावों के नतीजे और आने वाले दिन



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(1) जो लोग इतिहास के सभी अनुभवों की अनदेखी करते हुए चुनावों में हराकर फासीवाद को पीछे धकेल देने का मुगालता पाले हुए थे, वे सभी चित्त लेटे लम्बी आहें भर रहे हैं, या फिर आम जनता को ही कोस रहे हैं ! चारो ओर सन्नाटे का आलम है ! मैं भी मानती हूँ कि कठिन, अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण दिनों का आगाज़ हो चुका है, पर क्रांति के विज्ञान की समझ रखने वालों के लिए यह समय निराशा का नहीं, बल्कि नयी परिस्थितियों को समझकर रास्ता निकालने का है, अपने कार्यभार तय करने का है !

(2) इस चमत्कारी जीत में ई.वी.एम. बदलने की निश्चित एक भूमिका है I स्ट्रांग रूम की चौकीदारी तो लोग बाद के दिनों में कर रहे थे जब ई.वी.एम. से भरे कई ट्रक पकड़े गए I असली काम तो मतदान के अलग-अलग चरणों के बीच संपन्न किया जा चुका था ! ई.वी.एम. बदलने का काम, सवाल उठने से बचने के लिए अत्यंत कुशलता से स्ट्रैटेजिक और सेलेक्टिव ढंग से चुनिन्दा सीटों पर ही किया गया, इतना तय है I लेकिन फासिस्टों की रिकार्डतोड़ चुनावी जीत के पीछे ई.वी.एम. चमत्कार से भी मुख्य बात यह है कि मोदी ने उन्मादी राष्ट्रवाद का जो नया नैरेटिव पुलवामा और बालाकोट के बाद सेट किया, उस अंधराष्ट्रवादी लहर का जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा था और जैसाकि स्वाभाविक था कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टी, या संसदीय वामपंथी जड़वामन अंधराष्ट्रवादी लहर का प्रभावी जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि वे दे ही नहीं सकते थे I अंधराष्ट्रवादी लहर का प्रभावी जवाब सर्वहारा स्टैंडपॉइंट से सिर्फ़ क्रांतिकारी वाम की शक्तियाँ दे सकती थीं I पर सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य पर ऐसी संजीदा शक्तियों की उपस्थिति फिलहाल प्रतीकात्मक से अधिक नहीं है और ज्यादातर ऐसी शक्तियाँ तो कठमुल्लावाद और बहिष्कारवाद की चपेट में फंसी हुई विघटन और विसर्जन की राह पर हैं ! मैंने बहुत पहले ही लिख दिया था कि मंदिर का सिक्का नहीं चलने के बाद हमेशा की तरह फासिस्टों का अंतिम शरण्य अंधराष्ट्रवादी उन्माद होगा I मोदी का "राष्ट्रवाद" हिन्दू आइडेंटिटी के साथ जुड़ा हुआ है और इस हिन्दू आइडेंटिटी को इसतरह मैन्युफैक्चर किया गया है कि सवर्णों के साथ ही ओ.बी.सी. जातियों का एक बड़ा हिस्सा भी, और यहाँतककि दलित मध्यवर्ग का एक हिस्सा भी इसके साथ अपने को आइडेंटिफाई करने लगा है ! कहने की ज़रूरत नहीं कि यह "राष्ट्रवाद" पाकिस्तान-विरोध को अपना लक्ष्य घोषित करता है और देश की 20-22 करोड़ मुस्लिम आबादी की पहचान को पाकिस्तान के साथ जोड़ देता है I इसतरह हिटलर की यहूदी-विरोधी नीति को हिंदुत्ववाद और अधिक ख़तरनाक और परिष्कृत तरीके से भारत के मुसलमानों के सन्दर्भ में लागू कर रहा है I मोदी ने उग्र राष्ट्रवाद का नैरेटिव व्यापक प्रचार-तंत्र के सहारे लोगों के दिलो-दिमाग में ऐसा बैठाया कि पुलवामा की टाइमिंग पर किसी को संदेह नहीं हुआ, बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान को नुक्सान पहुँचाने के दावे पर सबने यकीन किया और भारतीय मिग के पाकिस्तानी सीमा में गिरने, भारतीय पायलट की गिरफ्तारी और खुद अपने ही हेलीकाप्टर के गिरा दिए जाने की बावजूद लोगों ने इस बात पर विश्वास किया कि 'मोदी ने घर में घुसकर मारा है !'

(2) मोदी की जीत का सर्वोपरि कारण यह है कि भारत के पूंजीपति वर्ग ने कुछ दुविधा और ऊहापोह के बावजूद एक बार फिर अपने हितों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी फासिस्ट गिरोह को ही सौंपने का निर्णय लिया और इसका एकमात्र अर्थ यह है कि निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लोहे के हाथों से लागू करते हुए मोदी सरकार आने वाले दिनों में दमन के पिछले सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त कर देगी !

(4) मोदी की इस जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की राजनीति अंततोगत्वा किसतरह फासिज्म की ही सेवा कर रही है Iउदितराज के बेआबरू होकर फासिस्टों के कूचे से बाहर निकलने और पासवान और आठवले के किस्से तो पुराने हो चुके हैं I मैं प्रकाश अम्बेडकर की बात कर रही हूँ, जिनकी नेतागीरी भीमा कोरेगांव के बाद एक बार फिर धूल झाड़कर चमकने लगी थी I उनके 'वंचित बहुजन अघाड़ी' ने महाराष्ट्र में इसबार कांग्रेस और एन.सी.पी. के वोट काटकर बी.जे.पी. की सर्वाधिक मदद की है और यह सब कुछ एक समझौते के तहत हुआ है ! अबतक जाति की राजनीति सबसे प्रभावी ढंग से क्षेत्रीय बुर्जुआ और फार्मरों-कुलकों की क्षेत्रीय पार्टियां खेला करती थीं ! संघी फासिज्म ने जाति की राजनीति का एक नया व्याकरण तैयार किया है और उसे हिंदुत्व की पहचान से अलग-अलग धरातलों पर जोड़ दिया है I इसतरह भाजपा ने सपा, राजद, रालोद से लेकर तेदेपा आदि तक के आधार पर चोट की है I भाजपा की चाल यह है कि ये पार्टियां भविष्य में अपने विनाश का खतरा देखकर उसकी गोद में आकर बैठ जाएँ I और इन पार्टियों के वर्ग-चरित्र और सामाजिक आधार को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात भी नहीं होगी I रही बात मायावती की, तो वह तो इस मामले में पहले से ही अविश्वसनीय रही हैं !

(5) जो सोशल डेमोक्रेट और बुर्जुआ लिबरल चुनावी "समर" में फासिज्म को हराकर पीछे धकेल देने का मुगालता पाले हुए थे वे अवसाद सागर में गोते लगा रहे हैं ! संशोधनवादी वामपंथ की जो परिणति बंगाल में हुई है,(शेष देश और त्रिपुरा में तो पहले ही हो चुकी थी )वही उसकी तार्किक परिणति है I छद्म-वामपंथ को अपनी काहिली, कायरता और कुकर्मों की कीमत चुकानी ही होगी ! यही वे लोग हैं जिन लोगों ने मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी चौकसी को कमजोर करके उसे संसदीय विभ्रमों का शिकार बनाया, उसे दुवन्नी-चवन्नी की लड़ाइयों में उलझाकर उसके ऐतिहासिक मिशन से दूर किया और जब फासिज्म के विरुद्ध सडकों पर मेहनतक़शों की जुझारू लामबंदी का समय था तो उसे यह भ्रम दिया कि चुनावों में हरा देने से फासिज्म पीछे हट जाएगा !

(6) हम एक बार फिर इस बात को दुहराना चाहते हैं कि फासिज्म-विरोधी मोर्चे का सवाल चुनावी मोर्चे का सवाल नहीं है ! फासिज्म को चुनाव में हराकर पीछे धकेलना नामुमकिन है I इसके विरुद्ध व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय का जुझारू सामाजिक आन्दोलन सडकों पर खड़ा करना होगा ! इसके लिए इस्पाती कैडर ढाँचे वाली क्रांतिकारी पार्टी खड़ी करनी होगी और मज़दूरों और सभी मेहनतक़शों के रैडिकल संगठनों, मंचों, आन्दोलनों और मंचों का व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना होगा I भारत में फासीवादी उभार वैश्विक परिघटना और आम प्रवृत्ति का ही एक अंग है ! यह नवउदारवाद के दौर में अर्थतंत्र के अति वित्तीयकरण, कारपोरेटों और राज्य के संलयन, अर्थतंत्र के अति वित्तीयकरण और ढांचागत संकट की उपाज है I आज की दुनिया में, पूंजीवाद के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष को नए सिरे से संगठित करते हुए, उसके एक अंग के तौर पर ही फासिज्म के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है I और कोई भी मुगालता पालना या किसी शॉर्टकट की तलाश करना न सिर्फ़ भ्रामक होगा, बल्कि आत्मघाती भी होगा !

(24मई, 2019)

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