Monday, April 29, 2019

#कामरेड_ने_कहा_


(एक)

एक तज़ुर्बेकार कामरेड हैं। बचपन से उन्हें देखती-जानती हूँ। सुबह-सुबह अगर उनके साथ सड़कों पर मटरगश्ती का मौक़ा मिले तो ज़िंदगी के इतने दिलचस्प किस्से सुनाते हैं कि उनसे कई अफ़सानों और नॉवेल्स तक के लिए कच्चा माल हासिल हो जाये। 'दुनिया से तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में जो कुछ भी' हासिल किया है, उसे दरियादिली से बाँटते रहते हैं। बाज़ दफ़ा खुशनुमा और तक़लीफदेह अनुभवों के निचोड़ भी चन्द लफ़्ज़ों में पिरोकर मज़ाकिया मगर निहायत मानीखेज़ अंदाज़ में पेश करते हैं। कई बातें उनसे बचपन में सुनीं जो आजतक ज़ेहन में बसी हुई हैं।

एक दफ़ा उन्होंने कहा कि अगर तुम घुमक्कड़ी करते हुए सही मायने में नदी-पहाड़-समंदर की खूबसूरती को दिल में उतार लेना चाहती हो, या कुछ क्रिएटिव-आर्टिस्टिक काम कर रही हो, या संजीदगी के साथ कुछ नया सोच रही हो, तो सात किस्म के लोगों को अपने पास फटकने तक मत देना, उनकी परछाईं से भी दूर रहना -- मनहूस, ढोंगी, स्वार्थी, लालची, कायर, काहिल और कंजूस I इनकी आत्माएँ बदसूरत होती हैं, इस मिजाज़ के लोग मानव-द्रोही होते हैं जो आपकी ताज़गी और रचनात्मकता को स्पंज की तरह सोख लेते हैं।

मैंने पूछा,"और झुट्ठे लोग ?" उन्होंने कहा,"नहीं, झुट्ठे लोगों से राजनीतिक-सामाजिक कामों में नुकसान होता है और उनसे होशियार रहना पड़ता है, पर गौर करना झुट्ठे लोग हमेशा तरोताज़ा और चौकन्ना रहते हैं, हमेशा अपने झूठ की हिफ़ाज़त करने और अगला झूठ गढ़ने के बारे में सोचते रहते हैं । वे आलसी और मनहूस नहीं होते, उनका व्यक्तित्व बहुरंगी होता है। उनके साथ होने पर आपका दिमाग हमेशा सक्रिय और चौकन्ना रहता है और हमेशा आप यह ताड़ने का खेल खेलते रहते हैं कि इस बार यह शख्स जो बात कह रहा है, उसमें कितना झूठ है और कितना सच ! जो आदतन और बिना किसी बदनीयती के झूठ बोलते रहते हैं, वे दिलचस्प और मजेदार होते हैं, अध्ययन की चीज़ होते हैं !"

इसके बाद हम बहुत देरतक हँसते रहे, कई दिनों तक याद कर-करके हँसते रहे।

(28अप्रैल, 2019)


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(दो)


वह दिसंबर की एक सुबह थी, या शायद जनवरी की I सुबह की सैर करते हुए घाटी में तक़रीबन चार-पाँच किलोमीटर की दूरी तय करके हम पाँच लोग वहाँ तक आ पहुँचे थे जहाँ से पहाड़ों की चढ़ाई शुरू होती थी I कोहरा और घना हो चला था Iआखिरकार एक चाय का ढाबा मिल ही गया ! चाय के गिलासों से उठती भाप के साथ हवा में तैरती अदरक-इलायची की गंध नथुनों में ताज़गी भर रही थी I

" हम एक ऐसे घोर मानवद्वेषी-मानवद्रोही समय के अँधेरे में जी रहे हैं जैसा शायद पहले कभी नहीं था," चाय के गिलास से दोनों हाथों को सेंकते हुए और बाजू के जंगल की ओर देखते हुए कामरेड ने कहा,"सामाजिक व्यक्तित्वों और मानवीय सारतत्व के क्षरण-विघटन का समय, अलगाव, अवसाद और आत्म-निर्वासन का दमघोंटू माहौल ! संकट चतुर्दिक है पर लोग अभी विकल्प के बारे में नहीं सोच रहे हैं I क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है I ऐसे में फासिज़्म का मौजूदा उभार भी कोई ताज्जुब की बात नहीं है I इस अमानुषिकता के समय में अपने दिलों की गर्मी और दिमागों की रोशनी को बचाए रख पाना आसान नहीं है I फिर भी अगर आप समस्या के कारणों को समझने लगते हैं तो उम्मीद की दिशाएँ फूटती दीखने ही लगती हैं I इस समय में भी अगर आप एक बेहतर मनुष्य बने रहना चाहते हैं, जिंदादिल, मानवीय, पारदर्शी, सहृदय और उम्मीदों से लबरेज़ बने रहना चाहते हैं तो तीन चीज़ों के लिए अपनी खोज और कोशिशें जारी रखिये और उनकी संगत कभी मत छोड़िये -- अच्छे लोग, प्रकृति और अच्छा साहित्य !"

"इनकी संगत का प्रभाव जादुई होता है," कुछ विराम लेकर कामरेड ने बात आगे बढ़ाई,"बस यूँ ही मटरगश्ती करते हुए आम लोगों के बीच जाइए, इस मानवद्रोही समय में भी आपको कुछ बेहद अच्छे और प्यारे लोग मिल जायेंगे -- स्वाभिमानी, जिंदादिल, साहसी और पारदर्शी ! अलगाव की सारी दीवारों को गिराकर उनके करीब जाइए और दोस्ती कीजिए I दूसरी बात, जब भी गुंजाइश बने, पीठ पर बैकपैक लादकर नदियों-पहाड़ों-मैदानों और समंदर के किनारों की सैर पर निकल जाइए I होटलों में नहीं, आम लोगों के घरों, धर्मशालाओं-गुरुद्वारों-आश्रमों में रुकिए, सस्ती और मेहनत वाली घुमाई कीजिए और पैसा घट जाए तो चाय के ढाबों पर काम कर लीजिये, कुलीगीरी कर लीजिये, या कुछ भी कर लीजिए I प्राकृतिक सौन्दर्य से जीवन-रस सोखने के लिए एकदम सहज-सरल बन जाना होता है -- बेझिझक, बिंदास, कुंठामुक्त ! तब देखिये, प्रकृति आपको कितना कुछ देती है ! तीसरी बात, जो भी अतीत और वर्त्तमान का, दुनिया का श्रेष्ठ साहित्य है, उसे पढ़ने को अपने जीने की शर्त बना लीजिये, अच्छे साहित्य की संगत कभी मत छोड़िये ! इसमें आप रुचि अनुसार कला, संगीत, नाटक, सिनेमा को भी जोड़ ले सकते हैं ! साहित्य-कला मानवीय सार-तत्व हैं ! इनसे वंचित मनुष्य कल्पना, स्वप्नों और सृजनशीलता से वंचित अभागा होता है I"

"तो याद रखिये, अच्छी दोस्तियाँ, प्रकृति से नज़दीकी रिश्ता और हमेशा अच्छे साहित्य के संपर्क में रहना -- इन तीन चीज़ों के सहारे दुनियादारी,निराशा, कायरता और कमीनगी की कालिख अपनी आत्मा पर से साफ़ करते रहिए, तभी आप एक बेहतर मनुष्य बने रह सकेंगे, उम्मीदों और सृजनशीलता के आवेग के साथ जी सकेंगे, सपने देख सकेंगे, कुछ नया रचने-करने की उद्विग्नता से लबरेज़ रह सकेंगे और चीज़ों को बदलने के लिए संघर्ष करते हुए खुद को भी बदलने का आपका आत्म-संघर्ष जारी रहेगा," बात को ख़तम करते हुए कामरेड ने कहा,"इसी बात पर एक-एक कप चाय और हो जाए !"

(1मई, 2019)


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(तीन)

सुबह हमलोग चौपता के बुग्यालों में कुछ देर घूमते रहे, आसपास के खोखों में चाय पीते रहे ! फिर मैगी खाकर पेट भरा, कुछ बिस्किट, केले और पानी की बोतलें लीं और बारिश में भीगते हुए तुंगनाथ-चंद्रशिला तक की ट्रेकिंग की I फिर से वापस चौपता और फिर रात तक ऊखीमठ गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में I
साहित्य-कला में दिलचस्पी लेने वाले और भी साथी थे I बात सृजन-कर्म और शिल्पकारिता पर होने लगी I
"किसी संस्थान या गुरु से लेखन-कला और शिल्प की शिक्षा लेकर, या रचना-प्रक्रिया पर या सौन्दर्य शास्त्र की ढेरों किताबें पढ़कर भी कोई कवि-लेखक नहीं हो सकता I वैसे महज टुच्ची महत्वाकांक्षा के वशीभूत यूँ ही कागज़ काले करने वाले और साहित्यिक कचरा-उत्पादन करने वालों की मैं बात नहीं कर रहा हूँ जो पैसे देकर किताब छपवा लेते हैं और अब एक और राह निकल आयी है, ब्लॉग और फेसबुक पर बेहद अधकचरी, उबाऊ कवितायें ठूँस मारते हैं,"कामरेड ने बात आगे बढ़ाई,"जाहिर है कि सबसे पहले आपके भीतर कलात्मक सृजन की नैसर्गिक रुझान होनी चाहिए ! इसके बाद आपके अध्यवसाय, अनुशीलन, अनुशासन और अभ्यास की बात आती है I बेशक आपको साहित्यिक शिल्प, रचना कौशल और सौंदर्यशास्त्र के बारे में पढ़ना होगा और लगातार पढ़ते रहना होगा I पर इससे भी ज़रूरी है कि आप साहित्य पढ़ें और खूब पढ़ें I दुनिया भर के नए-पुराने प्रसिद्ध लेखकों-कवियों को पढ़िए, अपने देश के प्राचीन, भक्तिकालीन और आधुनिक साहित्य की परम्परा को आत्मसात कीजिए और समकालीन लेखन से जीवंत रिश्ता बनाए रखिये I जितना भी संभव हो, सिर्फ़ हिन्दी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से भी राबिता बनाइये I खूब पढ़िए, जीवन भर पढ़िए और कृतियों की गंभीर आलोचनाएँ पढ़कर एक आलोचनात्मक विवेक भी विकसित कीजिए, अन्यथा अनजाने ही आप अपने पसंदीदा रचनाकारों की प्रभाव-छायाओं में जीने लगेंगे और उनकी भोंड़ी नक़ल करने लगेंगे I हाँ, यह भी है कि शुरुआत में प्रभाव-छायाएँ तो होती ही हैं, मौलिक राह और पहचान बनाने में समय लगता है I धीरज और अनुशासन-बद्ध मेहनत बहुत ज़रूरी है, अन्यथा लोग ज़िंदगी भर साहित्य के नुक्कड़ों-चौराहों पर चनाजोरगरम बेंचते रह जाते हैं और अमरत्व का मुगालता भी पाले रहते हैं !"

"लेकिन मैं इससे अलग, इससे भी ज़रूरी पूर्वशर्त पर बात करना चाहता हूँ ! भारतीय साहित्यकार, और मैं वामपंथियों की भी बात कर रहा हूँ, जिस मध्य वर्ग से आते हैं, वह अपनी मानसिक बनावट-बुनावट से सुरक्षावादी, घोंसलावादी, कायर, कूपमंडूक और रोजमर्रा के जीवन में आम मेहनतकश आबादी से दूरी बरतने वाला होता है ! उसकी इस मानसिक निर्मिति के ऐतिहासिक कारण हैं I यह मध्य वर्ग रिनेसां-एनलाइटेनमेंट-बुर्जुआ क्रांतियों की प्रक्रिया से गुजरने की जगह औपनिवेशिक सामाजिक संरचना की कोख से पैदा हुआ है, इसलिए इसके पास आधुनिकता का कोई व्यापक प्रोजेक्ट कभी रहा ही नहीं I यह विचारों में मध्ययुगीन मूल्यों से समझौता करता रहा है और इसी के अनुरूप इसका जीवन भी सुरक्षावाद की कूपमंडूकीय चौहद्दियों में क़ैद रहा है I आज़ादी के बाद के दशकों के दौरान मध्यवर्गीय बौद्धिकों का बड़ा हिस्सा पूँजीवादी विकास के साथ-साथ समाज की ऊपरी, खुशहाल परतों में व्यवस्थित होता चला गया । आज़ादी के पहले बहुतेरे ऐसे लेखक-पत्रकार थे, उनमें कई गाँधीवादी भी थे, जिन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं की खातिर तमाम जोखिम उठाये, जेल गए, घर-गृहस्थी बर्बाद किया I अब ऐसे वामपंथी साहित्यकार भी बिरले ही हैं I यूँ कहें कि मध्यवर्गीय बौद्धिकों ने जनसमुदाय के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया है । इसका विकृततम रूप यह है कि सत्ता से सटे रहने के आदी, कई यशकामी कथित वामपंथी लेखक भी आज बेशर्मी की ऐसी गंद में मुँह के बल लेटे पड़े हैं कि फासिस्टों से गलबहियाँ डालने और पुरस्कृत होने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं है । ऐसे गिरे हुए लोग कभी भी कुछ प्रभावी और बड़ा नहीं रच सकते, कालजयी रचने का मुगालता पालना तो बस शेखचिल्ली का सपना ही हो सकता है I एक मौलिक और सच्चा रचनाकार-कलाकार वही हो सकता है, जिसमें अपने उसूलों की कीमत चुकाने का साहस हो I कलेजे में यह दम न हो तो लेखन-कर्म की जगह मुनीमी या मुदर्रिसी या ठेका-पट्टे-दलाली आदि का कोई काम कर लेना चाहिए I साहित्य को निजी महत्वाकांक्षाओं का साधन बनाने वाले लोग अनैतिक और गिरे हुए लोग हैं, वे नेरूदा, ब्रेष्ट आदि का ओवरकोट पहनकर घूमने वाले बौने और निराला की चप्पलें और मुक्तिबोध का बीड़ी का बण्डल लेकर भाग जाने वाले उठाईगीरे हैं ।"

सभी कुछ देर तक हँसते रहे, फिर कामरेड ने बात आगे बढ़ाई,"एक सच्चे क्रान्तिकारी रचनाकर्मी की ज़िंदगी भी उतनी ही तूफ़ानी, जोखिम और अनिश्चितताओं से भरी हुई होती है जितनी एक क्रान्तिकारी राजनीतिक कर्मी की ज़िंदगी ! यायावरी, प्रकृति और समाज में घूमना-भटकना एक लेखक-कलाकार की बुनियादी फितरत होनी चाहिए I अल्लामा इक़बाल की एक रुबाई है :



'ज़लाम-ए-बहर में खो कर सँभल जा
तड़प जा पेच खा-खा कर बदल जा
नहीं साहिल तिरी क़िस्मत में ऐ मौज!
उभर कर जिस तरफ़ चाहे निकल जा!'

एक और उनका शेर है जो बहुत मौजूँ है :

'नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में '



"मेरे ख़याल से एक कवि-कलाकार-लेखक की ज़िंदगी ऐसी ही होनी चाहिए I वैसी ज़िंदगी जैसी गोर्की, मार्क ट्वेन, जैक लंडन, एमिल ज़ोला, अप्टन सिंक्लेयर, नेरूदा, नाजिम हिकमत, राहुल सांकृत्यायन आदि न जाने कितनों ने बिताई थी । दुनियादारी और स्वार्थपरता की गंद में धँसे हुए, अपनी अगली पीढ़ी तक का भविष्य सुरक्षित करते हुए, सुविधाजनक घोंसलों में जीते हुए सार्थक सृजन-कर्म नामुमकिन है I साहित्यकारों को घनघोर घुमक्कड़ी करते हुए सिर्फ़ प्रकृति का ही नहीं, समाज का भी सूक्ष्म और व्यापक अवलोकन और अध्ययन करना चाहिए । उन्हें औद्योगिक क्षेत्रों की मज़दूर बस्तियों में, गाँवों की दलित बस्तियों में, खदान मज़दूरों और गोदी मज़दूरों के बीच कुछ दिन बिताने चाहिए, रेलवे स्टेशनों पर भी रातें बितानी चाहिए, सुदूर पहाड़ों, समंदर किनारे और रेगिस्तानी इलाकों से लेकर विकसित पूँजीवादी खेती वाले गाँवों में कुछ दिन बिताने चाहिए I इसके बाद ही वह उत्पादन की प्रक्रिया, उत्पादन-संबंधों और सामाजिक जीवन में आने वाले बदलावों की प्रकृति, गति और दिशा को जान पायेगा । इसतरह सामाजिक यथार्थ से प्रत्यक्ष साक्षात्कार बिना सच्चा यथार्थवादी साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता । फॉर्म के स्तर पर चाहे आप जो प्रयोग करें, सारभूत यथार्थ को आलोचनात्मक विवेक के साथ देखने की अंतर्दृष्टि पाठक में पैदा करने के लिए जादुई यथार्थवाद या फंतासी या चाहे जिस शिल्प का इस्तेमाल करें, पहले खुद आप की तो स्पष्ट समझ होनी चाहिए कि आज के सामाजिक जीवन का चरित्र क्या है, सांस्कृतिक-आत्मिक जीवन कैसा है ! ट्रेनों-बसों की खिड़कियों से आम लोगों का जीवन देखकर, या बचपन की स्मृतियों या सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण-रपटों के आधार पर कहानी-उपन्यास अगर लिखे जायेंगे तो वे अप्रामाणिक, अविश्वसनीय और उबाऊ ही होंगे I ई.पी.डब्ल्यू. के शोध-पत्र और मार्क्सवाद की सैद्धांतिक पुस्तकें पढ़कर कहानी नहीं लिखी जा सकती। वह हवा-हवाई होगी ! पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि केवल सामाजिक यथार्थ के प्रत्यक्ष अनुभव से भी साहित्य नहीं रचा जा सकता । यदि रचा जाएगा तो वह अनुभववाद होगा, प्रत्यक्षवाद होगा। आपके पास यथार्थ को देखने की दृष्टि और बोध से धारणा बनाने की मेथडोलोजी भी होनी चाहिए ।"

बात को हलकी-फुल्की बनाते हुए कामरेड ने कहा," मैं तो साहित्य-कर्म में रुचि लेने वाले युवाओं से बस यही कहता हूँ कि जब भी मौक़ा मिले प्रकृति और समाज को जानने के लिए घूमने निकल पड़ो, घोंसले का जीवन चुनने और कोल्हू का बैल बनने से बचो, खूब पढो, प्यार करो तो अपने सपनों और जीवन-शैली के साझीदार को ही लाइफ पार्टनर बनाओ ताकि आगे मनचाहे तरीके से जीने में कोई अड़चन न आये । । जब भी मौक़ा मिले, उत्पादक कार्रवाइयों में हिस्सा लो I संभव हो तो पेड़ लगाओ, फूल-पौधे और सब्जियाँ लगाओ, अगर मर्द हो तो सभी घरेलू काम बराबरी से करो, वर्जिश करो, अनुशासित जीवन बिताओ ताकि कठिन जीवन जीने में कभी सेहत आड़े न आये I कवि-लेखक-कलाकार की जो नाज़ुक, झक्की, अराजक वाली इमेज प्रचारित की जाती है, उसे दिमाग से निकाल दो, तभी सार्थक सृजन-कर्म कर सकोगे ।"

(2मई, 2019)






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