Friday, April 26, 2019


1960 और 1970 के दशक का फ्रेंच सिनेमा रैडिकल वाम विचारों से गहराई से प्रभावित था I गोदार और उनके 'द्ज़ीगा वेर्तोव ग्रुप' (1968-1972) पर तत्कालीन मुक्ति-संघर्षों, जनांदोलनों और वियतनाम-युद्ध के साथ-साथ माओ के विचारों का भी प्रभाव था ! विश्व-प्रसिद्ध सिने-पत्रिका 'Cahiers du Cinema' के प्रोजेक्ट से जुड़े युवा फिल्मकारों पर अल्थूसर के संरचनावादी मार्क्सवाद का प्रभाव था I एकअन्य महत्वपूर्ण धारा 'सिचुएशनिस्ट' फिल्मकारों की थी और वह भी रैडिकल वाम विचारों के प्रभाव में थी I 'सिचुएशनिस्ट' फिल्मकारों ने एक बहुत ही दिलचस्प प्रयोग किया था I किसी पुरानी फिल्म को वे इसतरह 'रीडब' करते थे कि उसमें व्यंग्यात्मक अंदाज़ में नयी राजनीतिक विषयवस्तु समाविष्ट हो जाती थी I इस तकनीक को फ्रेंच में 'détournement' कहा जाता था I 1973 में ऐसी आख़िरी एपिकल फिल्म जो बनी थी, वह थी René Viénet की 'Can dialectics break bricks?' ( 'La dialectique peut-elle casser des briques ?' ) I इसमें एक जापानी समुराई फिल्म को हँसाते-हँसाते लोटपोट कर देने वाले अंदाज़ में फिर से डब किया गया था और इसकी नयी कथावस्तु में क्रांतिकारी मज़दूरों तथा राजकीय पूँजीवाद के नौकरशाहों का टकराव दिखाया गया था I फिल्म के संवादों में चुटीली राजनीतिक और विचारधारात्मक टिप्पणियाँ की गयी थीं I उससमय मार्क्सवाद के विरुद्ध अमेरिकी समाजशास्त्र और मनोविश्लेषणवाद के साथ-साथ फूको, लकां और संरचनावाद की वैचारिकियाँ चलन में आ चुकी थीं I इस फिल्म में एक संवाद है जो उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-मार्क्सवाद और उत्तर-सत्य आदि-आदि के हमारे ज़माने में भी उतना ही मौजूँ है I

फिल्म में राजकीय पूँजीवादी तंत्र का जो सबसे दुष्ट नौकरशाह है वह विद्रोही मज़दूरों को चेतावनी देता है : "मैं वर्ग-संघर्ष के बारे में आइन्दा से कुछ सुनना तक नहीं चाहता I इसके लिए अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं अपने समाजशास्त्रियों को भेजूँगा I और वह अगर काफ़ी नहीं होगा तो अपने मनोविश्लेषकों को भेजूँगा ... मेरे फूको लोग ! मेरे लकां लोग ! और यह भी अगर काफ़ी नहीं हुआ, तो मैं अपने संरचनावादियों तक को भेज दूँगा !"

वर्ग संघर्ष की चेतना को भ्रष्ट और कुंठित करने के लिए आज भी पूँजी के तमाम बौद्धिक टट्टू, तमाम उत्तर-संरचनावादी, तमाम उत्तर-आधुनिकतावादी, तमाम उत्तर-मार्क्सवादी, तमाम छोटे-बड़े, रंग-बिरंगे फूको, दरीदा, ल्योतार, बौद्रिला, लाक्लाऊ, माउफ़ आदि-आदि तिलचट्टों जैसी उद्विग्नता और छिपकिलियों जैसी तल्लीनता के साथ अपने बौद्धिक द्रविड़ प्राणायाम में जुटे हुए हैं ! निठल्ले बकवासियों के लिए उनकी अमूर्त-अकर्मक बातें नशे की खुराक जैसी होती हैं I ये कर्म-विरत, समाज-विमुख, शब्द-विलासी परजीवी प्रेत अगर शाब्दिक आलोचना से नहीं चेतेंगे तो जनता एक दिन इनकी शारीरिक आलोचना भी कर सकती है !

(25अप्रैल, 2019)

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