Tuesday, February 27, 2018

कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के 170 वर्षों बाद ...




आज से ठीक 170 वर्ष पहले दो युवा युगद्रष्टा क्रांतिकारियों --- मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखित यह पुस्तिका प्रकाशित हुई जो पूँजीवाद के खिलाफ विश्व सर्वहारा का ऐतिहासिक युद्धघोष बन गयी I
तबसे पूँजीवादी दुनिया को कम्युनिज्म का हौवा दिन-रात सताता रहा I आज भी सता रहा है I पूँजी के बौध्दिक टट्टू और प्रचार तंत्र एक ओर तो गला फाड़-फाड़कर चीखते हैं कि कम्युनिज्म की मौत हो गयी, दूसरी ओर वे कम्युनिज्म के "खूनी आतंक" के हौवे का बिना थके प्रचार करते हैं और उसे बदनाम करने के लिए बीसवीं शताब्दी की मज़दूर क्रांतियों के बारे में दिन-रात झूठे किस्से गढ़ते रहते हैं I
'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' ने मज़दूर क्रांति का जो उद्घोष किया था, उसे 1871 के पेरिस कम्यून के अल्पकालिक प्रयोग के बाद बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रांतियों ने अमल में उतारा I पूँजी की जालिम सत्ता के पतन के बाद समाजवादी समाजों ने प्रगति और खुशहाली के नए कीर्तिमान स्थापित किये I अपनी 2 करोड़ 70 लाख जनता की कुर्बानी देकर सोवियत संघ ने पूरी दुनिया को दुर्दांत फासिज्म के कहर से बचाया I
बीसवीं शताब्दी की मज़दूर क्रांतियाँ समाजवाद के प्रारंभिक प्रयोग थीं I पूँजी और श्रम के बीच जारी विश्व-ऐतिहासिक महासमर का वह पहला चक्र था जिसमें महत्वपूर्ण उपलब्धियां और अनुभव हासिल करने के बावजूद श्रम की शक्तियों की पराजय हुई I इसका बुनियादी कारण यह था कि पूरी दुनिया में पूँजी की ताकत अभी हावी थी और समाजवादी देशों में भी पूँजी और हज़ारों वर्षों से स्थापित वर्ग समाज की प्रतिगामी शक्तियां राज्यसत्ता खोने के बाद भी, समाज के पोर-पोर में, आर्थिक आधार और ऊपरी ढांचे में, खंदकें खोदकर जमी हुई थीं I यहाँतककि उन्होंने सर्वहारा राज्य और पार्टी में भी पैठ बना ली थी, जिसके चलते विविध विकृतियाँ पैदा होती रहती थीं I सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के सामने यह स्पष्ट होने में काफी समय लगा कि समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष किसतरह चलाया जाएगा ! कठिन संघर्षों और प्रयोगों से गुज़रकर यह यह दिशा और राह साफ़ हुई, तबतक आख़िरी सर्वहारा सत्ता का भी पतन हो चुका था I
आज दुनिया एक कठिन अंधकारमय संक्रमणकाल से गुज़र रही है I यह पूँजी और श्रम के बीच विश्व-ऐतिहासिक महायुद्ध के विगत पहले और भावी दूसरे चक्र के बीच का निराशा, घुटन और ठहराव भरा संक्रमण काल है जब प्रतिक्रिया की आंधी चल रही है, फासिज्म के प्रेत श्मशानी नृत्य कर रहे हैं, बुद्धिजीवी बुद्धि-विलास कर रहे हैं या रुदालियों की तरह विलाप कर रहे हैं या कम्बल ओढ़कर घी पी रहे हैं, बर्नस्टीन, काउत्स्की और ख्रुश्चेव के वंशज लाल झंडे कुर्सियों से टिकाये संसदीय सूअरबाड़ों में आराम फरमा रहे हैं, क्रांतिकारी वाम की बिखरी हुई और विचारधारात्मक रूप से कमजोर शक्तियां या तो लकीर की फकीरी कर रही हैं, या व्यवहार और सिद्धांत में राह निकालने की कोशिश कर रही हैं , और, मेहनतक़श जनता नवउदारवाद के दौर में पूँजी की नयी रणनीति वाले युद्ध में लगातार हारती और पीछे हटती हुई महज आत्मरक्षा की लड़ाई लड़ रही है I लेकिन इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है Iविश्व पूंजीवाद जिस दीर्घकालिक मंदी से गुज़र रहा है उसे अब सभी एक ऐसा असाध्य व्यवस्थागत संकट मान रहे हैं, जैसा पहले कभी नहीं आया था I दुनिया भर के मज़दूरों और आम लोगों की तबाही-बर्बादी, पर्यावरण का विनाश, विनाशकारी क्षेत्रीय युद्ध और उत्पादक शक्तियों की बर्बादी --- इन विभीषिकाओं का पूंजीवादी दायरे में कोई हल नहीं है I विकल्प दो ही हैं --- या तो समाजवाद, या फिर इंसानियत की तबाही I
ऐसे में, 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र का यह उद्घोष पुनर्नवा होकर क्षितिज पर जलती मशाल की तरह हमारी आँखों के सामने चमक रहा है : "कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक वर्ग को काँपने दो I सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है I जीतने के लिए सारी दुनिया है I दुनिया के मज़दूरों, एक हो !"
दुनिया को केवल सर्वहारा क्रांति के नए संस्करण ही बचा सकते हैं I 'सजेंगे फिर नए लश्कर, मचेगा रण महाभीषण !'
   (22 फरवरी,2018)




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