कई लेखक और आलोचक इस बात को बार-बार कूपमंडूकता भरे दंभ के साथ दुहराते रहते हैं कि ज़िंदगी की सच्चाइयों को उन्होने मार्क्सवाद की किताबों से नहीं बल्कि सीधे ज़िंदगी को जीकर या उसका अध्ययन करके जाना है।
बात बहुत सीधी है। मार्क्सवाद अपने आप में जीवन का वस्तुगत यथार्थ नहीं है बल्कि जीवन को देखने-समझने का एक नज़रिया है, वह एक जीवन-दृष्टि और सामाजिक गतिकी के नियमों की समझ है। बिना जीवन-दृष्टि और पद्धति शास्त्र के यदि आप जीवन को देखने-समझने का काम करते हैं तो आप एक अनुभववादी हैं। एक अनुभववादी चीजों के केवल बाह्य, प्रतीतिगत रूप को ही जान सकता है, सारभूत यथार्थ तक कदापि नहीं पहुँच सकता। प्रतीति (अपीयरेंस) और सार (एस्सेन्स) कभी एक दूसरे के हूबहू अनुरूप नहीं होते। प्रतीति को भेदकर सार तक पहुँचने का काम केवल वैज्ञानिक दृष्टि के द्वारा ही संभव हो सकता है। मार्क्स के शब्दों में, " यदि चीजों की बाह्य प्रतीति और सारवस्तु सीधे एक समान हुआ करतीं तो सारा विज्ञान गैरज़रूरी हो जाता" ( 'पूंजी', खंड-3, भाग-7, अध्याय-48)। एक अनुभववादी यथार्थ के सतही पर्यवेक्षण के आधार पर जो साहित्य लिखता है वह यथार्थवादी न होकर प्रकृतवादी (नेचुरलिस्ट) होता है। जो काम राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 'वलगर इकोनोमिस्ट' करते हैं, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रकृतवादी करते हैं। दोनों ही भोंडे भौतिकवादी होते हैं।
वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि आप सचेतन तौर पर अपनाते हैं, वह महज अभ्यास या अनुभव से नहीं आ जाती। यदि आप सचेतन तौर पर कोई जीवन-दृष्टि नहीं विकसित करते, तो भी अचेतन तौर पर आपकी एक जीवन-दृष्टि होती ही है। आपकी वह जीवन-दृष्टि किसी न किसी रूप में, अपने आभासी परिवर्तनकामी स्वरूप के बावजूद, शासक वर्ग की सेवा करने वाली जीवन-दृष्टि होती है क्योंकि हर समाज में शासक वर्ग की विचारधारा ही शासक विचारधारा होती है। यही कारण है कि आजकल का ज़्यादातर वाम साहित्य निहायत अरुचिकर, अपाठ्य , प्राणहीन और ज़िंदगी से दूर मालूम पड़ता है। ज़्यादातर लेखक, कवि और आलोचक राजनीति, समाज विज्ञान और आर्थिक समझ के मामलों में अज्ञानी और बोदे होते हैं, इसीलिए वे जीवन और समाज की जटिल परिघटनाओं की सारवस्तु को अपनी कृतियों में उद्घाटित नहीं कर पाते।
बेशक सिर्फ मार्क्सवाद की किताबें पढ़कर रचनाओं में सामाजिक यथार्थ को गढ़ा नहीं जा सकता। ऐसी रचनाएँ नारेबाजी से भरी हुई, उबाऊ और अप्रामाणिक होगीं, वे यथार्थ से कोसों दूर होगीं। पर मार्क्सवाद पढे बिना महज सामाजिक यथार्थ के पर्यवेक्षण और प्रत्यक्ष अनुभव से भी यथार्थवादी रचना नहीं लिखी जा सकती क्योंकि यथार्थ को समझने के लिए वैज्ञानिक नज़रिया तो चाहिए ही।
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