Tuesday, December 19, 2017

गुजरात चुनावों के नतीजों के बाद याददिहानी के लिए मुख़्तसर-सी कुछ बातें



(1) आज दो राज्यों के विधानसभा चुनावों, विशेषकर गुजरात के नतीजे आने के बाद वामपंथी बौद्धिक हलकों में भी जिस मायूसी का माहौल है और जैसे विश्लेषण किये जा रहे हैं, उनसे यही पता चलता है कि हिन्दुत्ववादी फासीवाद के कहर और मोदी सरकार की निरंकुश नव उदारवादी नीतियों का मुकाबला करने के लिए उदारवादियों, सुधारवादियों और सामाजिक जनवादी टाइप वामपंथियों की सारी उम्मीद भाजपा को संसदीय चुनावों में शिकस्त देने पर ही टिकी हैं और इसके लिए वे कांग्रेस और अन्य गैर-भाजपा संसदीय बुर्जुआ दलों पर नज़रें टिकाये हुए हैं।

(2) एक बार फिर यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि भाजपा संघ परिवार की चुनावी शाखा मात्र है। नव उदारवादी नीतियों और पूंजीवादी व्यवस्था के असाध्य ढांचागत संकट ने पूरे समाज को फासिज्म की उपजाऊ नर्सरी बना दिया है और भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया है I लेकिन जैसाकि गत 27 वर्षों का इतिहास बताता है, भाजपा यदि सत्ता में न रहे, तब भी समाज में बर्बर फासिस्टों का उत्पात जारी रहेगा। इस नासूर का इलाज केवल आपरेशन ही हो सकता है। यानी फासिज्म को समाप्त तभी किया जा सकता है जब पूंजीवाद को समाप्त कर दिया जाये और उन्हें पीछे भी सडकों पर आमने-सामने की भिडंत करके ही धकेला जा सकता है I और यह काम मेहनतकशों की तैयारी और संगठन के बिना नहीं हो सकता I फासिज्म निम्न-बुर्जुआ वर्गों का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जिसे एक कैडर-ढाँचे वाली पार्टी संगठित करती है और नेतृत्व देती है। इसे एक कैडर-आधारित ढांचे वाले क्रांतिकारी संगठन के नेतृत्व में क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन खडा करके ही पीछे धकेला जा सकता है। यदि आपको यह काम बेहद कठिन और लंबा लगता है तो आप आसान उपायों से आस लगाकर मन को तसल्ली देते रहिये I झूठी उम्मीदों से ज्यादा खतरनाक और कुछ भी नहीं होता। याद रखिये, जहांतक फासिज्म के समूल नाश का सवाल है, वह, आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं उसमें, पूंजीवाद के समूल नाश के बिना संभव नहीं है।

(3) बुर्जुआ चुनावों से न्यायपूर्ण फैसलों की उम्मीद बताती है कि प्रगतिशील बौद्धिक भद्रजन बुर्जुआ संसदीय जनवाद को लेकर कितने मोहग्रस्त और विभ्रमग्रस्त हैं! समाजवादी परियोजनाओं की विगत पराजयों को स्थायी हार मान लेने के बाद अब वे उदार बुर्जुआ जनवाद की चौहद्दी से आगे कुछ देख ही नहीं पाते हैं।  संसदीय चुनावों में सबकुछ थैली की ताकत से तय होता है और भारत के बड़े पूंजीपतियों के लिए अभी भी पहला विकल्प भाजपा ही है क्योंकि वह बर्बर दमन की कीमत पर नव उदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए सर्वाधिक तैयार और सर्वाधिक सक्षम है I कारपोरेट घरानों से प्राप्त धन में से 85 प्रतिशत भाजपा को मिला है और शेष का बंटवारा अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों में हुआ है I दूसरी बात, एक क्रांतिकारी वर्ग-राजनीति की प्रभावी उपस्थिति के अभाव में धर्मान्धता और अंधराष्ट्रवाद सहित विभिन्न भावनात्मक मुद्दे उभाडकर भाजपा का आगे निकल जाना स्वाभाविक है।  तीसरी बात, फासिस्ट जब बुर्जुआ जनवाद का इस्तेमाल करते हैं तो हर तौर-तरीके को ताक पर रखकर, न केवल नौकरशाहीऔर खुफिया तंत्र को बल्कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को भी अपनी चेरी बना लेते हैं और हर तरह की साजिशें करते हैं। ऐसी स्थिति में ई वी एम टेम्परिंग और हैकिंग के,तथ्यों सहित जो आरोप हार्दिक पटेल ने लगाए हैं, उन्हें सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। चौथी बात, हमें उन सामाजिक शोध-अध्ययनों को भूलना नहीं चाहिए जिनमें यह बताया जाता रहा है कि किसप्रकार और किन स्थितियों में भाजपा ने गुजरात के व्यापारियों, शहरी मध्य वर्ग और धनी किसानों के बीच मौजूद अपने सामाजिक आधार का विस्तार करने के लिए दशकों के दौरान आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों के एक बड़े हिस्से का साम्प्रदायीकरण किया है और इन तबकों के युवाओं के बीच से फासिस्ट गुंडों की भरती की है। इस मायने में मोदी-शाह जोड़ी का यह दावा सही है कि भाजपा ने जातियों की दीवारों को भेदकर अपना सामाजिक आधार तैयार किया है।

(4) कांग्रेस पर अपनी उम्मीद भरी नज़रें टिकाये और राहुल गाँधी को लेकर भाव-विह्वल हो रहे हलुवा सेकुलर और मलाई प्रगतिशील जान-बूझकर इस नंगी सच्चाई को भूल जाना चाहते हैं कि जिन नव-उदारवादी नीतियों ने हिन्दुत्ववादी फासिज्म के लिए उर्वर ज़मीन तैयार की है, उन्हें लागू करने की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी।  कांग्रेस बुर्जुआ वर्ग की मुख्य पार्टी रही है और आज भी दूसरे न. का विकल्प है।  उसकी सरकार ने ही बुर्जुआ वर्ग की ऐतिहासिक ज़रूरत के तौर पर उस वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करते हुए नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया। अब इतिहास के चक्के को पीछे घुमाकर वह नेहरूवादी "समाजवाद" के राजकीय इजारेदार पूंजीवादी मॉडल और कीन्सवादी नुस्खों की ओर वापस नहीं जा सकती। वह भी यदि सत्ता में आयेगी तो इन्हीं आर्थिक नीतियों को दमनकारी ढंग से लागू करेगी और इससे पैदा हुए सामाजिक संकट के परिवेश में ज़मीनी तौर पर फासिस्ट शक्तियां अपना काम करती रहेंगी।  यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का सेकुलरिज्म हमेशा से विकृत-विकलांग और सड़ी खिंचड़ी जैसा रहा है और धर्म का चुनावी कार्ड खेलने तथा कड़ी केसरिया लाइन के बरक्स नरम केसरिया लाइन अपनाने का काम कांग्रेस काफी पहले से करती आ रही है। राम जन्मभूमि का ताला खोलवाने और बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कांग्रेस सरकार की भूमिका से लेकर इस गुजरात चुनाव में राहुल गांधी द्वारा खुद को शिव-भक्त और जनेऊधारी ब्राह्मण घोषित करते हुए मंदिर-मंदिर घूमने तक का सिलसिला कांग्रेस की नरम केसरिया लाइन की राजनीति को एकदम नंगा कर देता है I लेकिन कांग्रेसी इस बात को नहीं समझ पाते कि भाजपा केवल अपनी केसरिया लाइन के कारण ही सफल नहीं होती है। मुख्य बात है कि उसके पास फासिस्ट पार्टी का एक कैडर-आधारित ढांचा है और उसके पीछे एक घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन की शक्ति है जोकि कांग्रेस के पास न है, न हो सकती है।

(5) भारत की संसदीय वाम पार्टियां कांग्रेस और विभिन्न क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के साथ मोर्चा बनाकर चुनावी जंग में भाजपा को शिकस्त देने से आगे कुछ नहीं सोचतीं। कांग्रेस की स्थिति की ऊपर चर्चा की जा चुकी है । जहांतक क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों की बात है तो भाजपा का विरोध करते-करते उनमें से कब कौन उछलकर भाजपा की गोदी में जा चढ़ेगा, यह कोई नहीं बता सकता । इन वाम पार्टियों का आचरण वैसा ही है जैसा '20 और '30 के दशक में संसदमार्गी कौत्स्कीपन्थी सामाजिक जनवादी पार्टियों का जर्मनी और पूरे यूरोप में था I वहाँ फासिस्ट जब सत्ता में आये तो संसदमार्गी सामाजिक जनवादियों को भी उन्होंने नहीं बख्शा। भारत के संसदीय वाम को यह बात याद रखनी होगी कि फासिज्म के कहर से वे खुद भी तभी बच सकते हैं यदि चुनावी राजनीति और चवन्निया अर्थवादी कवायदों से अलग हटकर वे सडकों पर उतरें और मज़दूरों को फासीवाद के खिलाफ ज़मीनी जुझारू लड़ाई के लिए तैयार और संगठित करें । यदि वे ऐसा करें तो तमाम विचारधारात्मक मतभेदों के बावजूद क्रांतिकारी वाम को उनके साथ मोर्चा बनाकर खडा होना चाहिए I पर इन पार्टियों के नेता,और अधिकाँश कार्यकर्ता भी,अपना जुझारूपन, कर्मठता और श्रमसाध्य जीवन की आदत इस क़दर खो चुके हैं कि इसकी उम्मीद कम ही लगती है।

No comments:

Post a Comment