आज का पूंजीवाद हमें अतीत के लिए रोते-बिसूरते हुए वर्तमान में निरुपाय जीने के लिए प्रशिक्षित करता है । भविष्य-स्वप्नों की जगह यदि अतीत की पुकार छेंके रहती है , तो अभिशप्त वर्तमान से बाहर निकलने की , उससे लड़ने की कोई राह नहीं सूझती । अतीत की ज़मीन पर खड़े होकर वर्तमान की विभीषिकाओं से नहीं लड़ा जा सकता ।
जैसे , प्राक-पूंजीवादी लोक-जीवन की रागात्मकता पूंजीवादी समाज के दमघोंटू एलियनेशन से बचाने का शरण्य नहीं हो सकती । याद रखना होगा कि वह पुरानी रागात्मकता भी औरतों , दलितों और गरीबों के लिए कितनी दमघोंटू थी ! पूंजीवादी समाज के कहर से बचने के लिए हमें आगे भविष्य की ओर देखना होगा और भविष्य की उस परियोजना को साकार करने के सैद्धान्तिक-व्यावहारिक रास्तों के बारे में सोचना ही होगा जब समस्त भौतिक प्रगति का लक्ष्य मुनाफा न होकर सार्वजनीन हित होगा ।
इतिहास की स्वाभाविक गति से , कुछ चीज़ें हमारे जीवन से हटकर संग्रहालयों में पहुँच जाती हैं और कुछ मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएं स्मृतियों के कबाड़ख़ाने में । काठ के हल , तसला-बटुली-ओखल-दातुन , छोटे मलिकाने की खेती , पुराने लोकगीत --- इन सबके लिए शोकगीत गाना निरर्थक है । उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास होता रहता है । पूंजीवाद के नाम पर आप आधुनिकता या आधुनिक चीजों का ही विरोध नहीं कर सकते । दूसरी बात , समाज का पूंजीवादीकरण चाहे जितना विनाशकारी हो , आप घड़ी की सुई को रोके नहीं रख सकते । हमें नास्टेल्जिया में जीने की जगह आगे एक नए भविष्य के निर्माण के बारे में सोचना होगा।
आज हम जिस फासीवादी विभीषिका के रूबरू हैं , उसका सामना पूंजीवादी जनवाद की ज़मीन पर खड़ा होकर नहीं किया जा सकता । धार्मिक यूटोपिया वाले गांधीवादी मानवतावाद और नेहरूकालीन 'कल्याणकारी राज्य' और मिश्रित अर्थ-व्यवस्था वाले गुजरे दिनों को वापस नहीं लाया जा सकता । उसी विकलांग-विकृत बुर्जुआ जनवाद के क्षरण-विघटन-पतन के बाद समाज में फासीवादी वर्चस्व की ज़मीन तैयार हुई है । उस बुर्जुआ जनवाद की जगह सर्वहारा जनवाद की ज़मीन पर खड़े होकर ही फासीवाद का मुक़ाबला किया जा सकता है ।
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