(1) सतृणाभ्यवहारी -- यह स्थूल दृष्टि वाला आलोचक होता है जो सिद्धान्त के
अध्ययन के अभाव में गुण और दोष की विवेचना नहीं कर पाता और जिसे सूक्ष्म
तथा स्थूल गुणों की परख नहीं होती ।
(2) मत्सरी -- यह कवि से डाह रखता है और कविता की जगह कवि के गुण- दोष को पैमाना बनाता है और आलोचना के साथ कभी न्याय नहीं कर पाता ।
(3) अरोचकी -- यह पैनी दृष्टि और सूक्ष्म आलोचना की भावना से मंडित व्यक्ति होता है जो , जबतक कोई कविता वास्तव में उत्कृष्ट न हो , तबतक यूं ही उसकी सराहना नहीं करता ।
(4) तत्वाभिनिवेशी -- यह सिद्धान्त और काव्यतत्व की गहरी पकड़ वाला आलोचक होता है जो कविता के मर्म को पकड़ता है और उसके प्रच्छन्न गुण-दोषों को भी उद्घाटित कर देता है ।
(2) मत्सरी -- यह कवि से डाह रखता है और कविता की जगह कवि के गुण- दोष को पैमाना बनाता है और आलोचना के साथ कभी न्याय नहीं कर पाता ।
(3) अरोचकी -- यह पैनी दृष्टि और सूक्ष्म आलोचना की भावना से मंडित व्यक्ति होता है जो , जबतक कोई कविता वास्तव में उत्कृष्ट न हो , तबतक यूं ही उसकी सराहना नहीं करता ।
(4) तत्वाभिनिवेशी -- यह सिद्धान्त और काव्यतत्व की गहरी पकड़ वाला आलोचक होता है जो कविता के मर्म को पकड़ता है और उसके प्रच्छन्न गुण-दोषों को भी उद्घाटित कर देता है ।
हिन्दी साहित्य में इनदिनों पहली दो कोटियों के एक से एक नए-पुराने तगड़े
गिरोह मौजूद हैं । आलोचकों के सभी संप्रदायों के अपने- अपने रचनाकार हैं ।
तीसरी और चौथी कोटियाँ विलुप्तप्राय जंतुओं की प्रजाति बन चुकी हैं ।
मार्क्सवादी कहलाने वाले ज़्यादातर आलोचक भी ऐसे चमत्कारी जीव हैं जो
मार्क्सवादी दर्शन और साहित्य-सैद्धांतिकी पढे-जाने बिना और द्वंद्ववाद के
विश्लेषणात्मक उपकरण से बिना किसी परिचय के ही आलोचना के मोटे-मोटे ग्रंथ
लिख देते हैं । इन्हे लिखने के लिए मात्र यह तय करना होता है कि किन
रचनाकारों के नाम गिनाने हैं और किस क्रम में गिनाने हैं और किसको कितनी
जगह देनी है और बदल-बदलकर किन घुमावदार जलेबीपार भाषाओं में उनकी प्रशंसा
करनी है । आलोचना का सौंदर्यीकरण कर दिया गया है और विश्लेषण की जगह भाषाई
अदाओं ने ले ली है ।
संस्कृत के प्राचीन आचार्यों ने आलोचक के तीन गुणों को महनीय माना है जो आज
भी प्रासंगिक प्रतीत होता है । पहला गुण है -- व्युत्पत्ति । यानी आलोचक
को काव्य के मूल तक , उसके स्रोत तक , उसके वस्तुगत आधार तक पहुँचने की
क्षमता से लैस होना चाहिए । जाहिर है कि जिस आलोचक में साहित्य के वस्तुगत
आधार , यानी सामाजिक जीवन की सुसंगत समझ नहीं होगी , उसमें यह गुण हो ही
नहीं सकता । दूसरा गुण है -- मर्मज्ञता । यानी आलोचक के भीतर सतह को भेदकर
काव्य के मर्म तक पहुँचने की क्षमता होनी चाहिए । ऐसा मात्र अनुभव-संगति से
नहीं हो सकता , इसके लिए आलोचक के पास वैज्ञानिक दृष्टि का होना ज़रूरी
होगा , विश्लेषण के वैज्ञानिक उपकरणों का होना ज़रूरी होगा । तीसरा गुण है
-- मत्सरहीनता । यानी आलोचक को कवि या उसकी कविता से किसी प्रकार की
ईर्ष्या या दुर्भावना नहीं होनी चाहिए , आलोचना-कर्म में उसे पूरीतरह
वस्तुपरक होना चाहिए ।
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