इसमें संदेह नहीं कि जो कविता पथान्वेषी और मौलिक होती है, वह अपनी भाषा और शिल्प ईजाद करती है, कलात्मक रूढ़ियों के सभी मठों और गढ़ों को तोड़ने के जोखिम मोल लेती है और अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाती है।
यह काम निराला ने, त्रिलोचन और नागार्जुन ने, मुक्तिबोध ने अपने-अपने ढंग से किया। कुछ औरों ने भी किया और आज भी कुछ हैं जो ऐसी कोशिशें कर रहे हैं।
लेकिन वह कविता जिसमें अपने समय की सर्वोपरि समस्याओं-विभीषिकाओं की सघन चिन्ता नहीं है, दिशा-संधान का उद्वेग नहीं है, वह कविता रूप और शिल्प के स्तर पर चाहे जितना चौंक-चमत्कार पैदा कर ले, कृत्रिम नवाचार के चाहे जितने छल-छद्म रच ले, चाहे जितनी मुँहफट रूढ़िद्रोही होने का स्वांग रच ले, वह अन्ततोगत्वा विस्मृति के गर्त्त और इतिहास की कचरापेटी में ही स्थान पाती है, चाहे साहित्य के शिखरासीन महामहिम उसे जितना भी कालजयी क्यों ने घोषित कर दें।
एक संजटिल यथार्थ वाली दुनिया में जड़ तक न पहुँचकर मूल समस्या की निष्पत्तियों, लक्षणों और अभिव्यक्तियों को, सतह के भोंड़े-भद्दे यथार्थ को उतनी ही भोंड़ी-भद्दी भाषा में बयान करना यथार्थ के विद्रूप का उदघाटन नहीं है, बल्कि चीज़ों और लोगों से असम्पृक्त मानस का खिलंदड़ापन है, निपट शब्द-क्रीड़ा है, एक विकट त्रासदी की प्रहसनात्मक प्रस्तुति है। यह पुराने अतियथार्थवाद (surrealism)का प्रहसन है और कला एवं कविता का हर गम्भीर अध्येता जानता है कि अतियथार्थवाद अपनी मूल प्रकृति में प्रकृतवाद (naturalism) ही होता है जो दार्शनिक तात्विक दृष्टि से प्रत्यक्षवादी (Positivist) होता है। एक रहस्यमय और अज्ञेय जगत में एक चकराया हुआ आदमी जो कभी कूड़े के डिब्बे और गली के कुत्तों को ठोकर मारता है, कभी हवा में गालियाँ उछालता है, कभी हर शालीन-सुव्यवस्थित दीखने वाली चीज़ों या लोगों की खिल्ली उड़ाता है, आसपास की दुनिया से असंतुष्ट रहता है, कभी उत्पात तो कभी खिलंदड़ापन करता रहता है और हमेशा कुछ ऐसा विस्फोटक-विध्वंसक करने की फिराक में रहता है कि लोगों का उसकी तरफ़ ध्यान जाये और उसको थोड़ा चैन मिले। आजकल सुलझे हुए लोग भी कविता की दुनिया में हो रहे ऐसे प्रयोगों को अवांगार्द, ट्रेण्डसेटर और न जाने क्या-क्या बता रहे हैं।
एक और बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। भाषाई खिलंदड़ेपन के साथ अराजक ढंग से समकालीन जीवन के आभासी यथार्थ के विरूपित चित्र प्रस्तुत करने वाली तथाकथित नवाचारी, नवोन्मेषी, ''अवांगार्द'' कविता के नमूनों के बरक्स कुछ लोग सत्ता की बर्बरता, आदिवासी या किसानी जीवन की त्रासदियों-विभीषिकाओं के प्रामाणिक लेकिन सपाट चित्र प्रस्तुत करने वाली नौसिखिया कविताओं को जनपक्षधर कविता का प्रतिमान बनाने पर तुले हुए हैं। सपाट बयान की शैली में कविता की लय साधना तो और भी दुष्कर कार्य है। हिन्दी के बहुत कम कवि ही इस हुनर को साध सके हैं। जो जीवन में संघर्षरत हैं, उनके साहस और प्रतिबद्धता को हम दिल से सलाम करते हैं, पर उनके जीवन और संघर्ष की काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी सराहनीय हो, यह ज़रूरी नहीं। कविता को कविता की शर्तों पर ही आंका जाना चाहिए। कविता में आरक्षण कोटा देने की प्रवृत्ति भी मेंरे ख़याल से ग़लत है।
-- कविता कृष्णपल्लवी
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