सिचुएशन एक: दृष्टियाँ अलग: सन्दर्भ चौखटे अलग
कात्यायनी ने बहुत पहले, 1990 में, अपनी एक टिप्पणी में लिखा था: ''हिन्दी कविता में आज स्त्री के प्रति करुणा की एक नदी प्रवाहित हो रही है। स्त्री करुणा की नदी में बह रही है, ऊभ-चूभ रही है।''
जाहिर है, जो करुणा और दया की पात्र होती है, वह कातर और कमज़ोर होती है।
ये जो भारत के ज्यादातर प्रगतिशील, वामपंथी कवि गण हैं, इनकी आत्मा वामपंथ और स्त्री-मुक्ति के विचारों के लकदक कुर्ते के नीचे बद्धमूल-जड़ीभूत पुरुष संस्कारों की वही सड़ी-बुसी-फटी बनियान पहने रहती है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कविता का पानी जब विचारों के कुर्ते को भिगोता है तो वह बनियान ऊपर से दीखने लगती है। कई बार अनजाने ही कवि लक्ष्यच्युत हो जाता है और कविता असलियत बयान कर जाती है।
आप हिन्दी की प्रेम कविताएँ देखिए, प्रगतिशील कवियों की प्रेम कविताएँ। ज्यादातर कविताओं में स्त्री प्रेम में बराबर की सहभागी नहीं है, वह प्रेम की पात्र है, वह पैस्सिव ढंग से 'रिसीविंग एण्ड' पर है। कवि प्रेम रस में लिथड़ा हुआ अपनी मन:स्थिति बताता रहता है, स्त्री से नहीं पूछता। वह एकालाप करता रहता है, संवाद नहीं होता। कभी-कभी वह कृतज्ञता प्रकट करता है कि स्त्री ने उसे क्या से क्या बना दिया! वह बताता है कि स्त्री उसके लिए कितनी ज़रूरी चीज़ है! यह पुरानी मध्यवर्गीय रुमानियत की बासी जलेबी को बस कल वाले लिजलिजेपन की गाढ़ी चाशनी से निकालकर प्रगतिशीलता की नयी चाशनी में डुबोकर परोस देने के समान है। हिन्दी का कवि झोले में छायावाद की एक पुरानी गोटेदार चादर रखे रहता है, मौका मिलते ही स्त्री को ओढ़ा देता है और प्यार से कहता है: 'इसमें तुम कितनी अच्छी लग रही हो!' संघर्षरत स्वतंत्र अस्मिता वाली स्त्री की दूरस्थ छवि का वह मुरीद है, लेकिन प्यार के क्षणों में उसे भोली-भाली, छुई-मुई, समर्पिता छवि ही भाती है। कई बार वाममार्गी कवि कविता में अपनी गृहिणी पत्नी के प्रति कृतज्ञता भी दर्शाता है कि वह उसकी तमाम ज़रूरतों का ख़याल करती हुई, उसकी ग़ैरज़िम्मेदारियों को झेलती हुई, उसे यदा-कदा के विपथगमन के लिए माफ़ करती हुई, उसे कविता में ''प्रगतिशीलता'' करने का मौक़ा देती रहती है।
स्त्री कई बार कवि के लिए उपयोगिता की एक वस्तु बन जाती है। वह बड़े प्यार से स्त्री का वस्तुकरण करता है और कविता में परोस देता है।
इब्बार रब्बी की एक कविता है:
''तुम मिलीं मुझे
जैसे मैकेनिक को औजार
तुम मिलीं जैसे
बच्चे को खिलौना
तुम मिलीं
जैसे मज़दूर को
बीड़ी का बण्डल
जैसे रोगी को नींद
कवि को कविता
बछड़े को थन
मिलीं मुझे तुम।''
अब पुरुष - वर्चस्व के आच्छादनकारी वितान को भेदकर इस कविता के मर्म को यदि पहचानना हो तो इसी कथ्य को एक बार स्त्री के मुँह से कहलवाया जाये ओर दूसरी बार इस कथ्य या 'सिचुएशन' पर स्वतंत्रचेता स्त्री का 'स्टेटमेण्ट' प्रस्तुत किया जाये। पहला पाठ कुछ ऐसा होगा:
''मैं तुम्हें मिलीं
जैसे मैकेनिक को मिला
उसका औजार,
जैसे बच्चे को मिल गया हो
उसका खिलौना
तुम हो मज़दूर
मैं हूँ तुम्हारा बीड़ी का बण्डल
मैं तुम्हारे पास आयी
जैसे रोगी के पास नींद
कवि के पास कविता
यूँ मैं मिली तुम्हें
जैसे बछड़े को मिल गया हो
दूध भरा थन।''
अब इसी कविता का एक स्वतंत्रचेता स्त्रीवादी पाठ --
''मैं आयी तुम्हारे पास
आग्रह, प्यार और ललक से
अपनाया तुमने मुझे
एक ज़रूरी इस्तेमाल के औजार की तरह
एक आदत और एक ज़रूरत की तरह
एक खेलने की चीज़ की तरह
एक आतुर भूख की तृप्ति और
सुस्ताने की छायादार जगह की तरह।
महज यही हूँ मैं तुम्हारे लिए
जैसे मैकेनिक के लिए उसका औजार
बच्चे के लिए
उसका खिलौना,
मज़दूर के लिए बीड़ी का बण्डल
बछड़े के लिए थन।
तुमने ज़रूरत मुताबिक बरता,
खेले मुझसे
मुझे अपनी आदत बना लिया या
नशे की लत
क्षुधा मिटती रही तुम्हारी मुझसे
मैं बनी
विकलता और आतप में तुम्हारा शरण्य।
आजीवन कृतज्ञ रहे तुम भलेमानस
और यही था तुम्हारा प्यार।
तुम्हारी ज़रूरतों -आदतों - चाहतों के
साँचे में ढलना थी मेरी विवशता
जिसे मेरा प्यार समझते रहे तुम
आत्ममुग्ध, आत्मतुष्ट, आत्मग्रस्त।
मैंने कभी नहीं किया तुम्हें प्यार
क्योंकि एक वस्तु कभी प्यार नहीं करती।
उसे मैं प्यार नहीं कर सकती एक मनुष्य की तरह
जो मुझे प्यार करता है एक उपयोगी वस्तु की तरह।''
इब्बार रब्बी की कविता की जो सिचुएशन है, उसमें सिर्फ नैरेटर को बदल दिया जाये तो कविता का पुरुषवर्चस्ववाची स्वर शब्द-दर-शब्द, परत-दर-परत उधड़ता चला जाता है।
स्त्री यदि स्वतंत्रचेता है, उसका अपना व्यक्तित्व है, वह अपने बूते (सिर टिकाने के लिए कंधे की ज़रूरत बिना) जी सकती है और सम्पूर्ण बराबरी और आज़ादी के साथ बने अंतरंग रूमानी रिश्ते के रूप में प्यार को परिभाषित करती है, तो वह स्त्री ऊपर से खुले दिमाग़ वाले लेकिन अवचेतन - अर्द्धचेतन में बद्धमूल पुरुष - संस्कारों वाले लोगों को या तो रहस्यमय - अबूझ लगती है, या उद्धत - उच्छृंखल और अनियंत्रणीय, या डरावनी, या खब्ती, या फिर कोई परग्रहीय प्राणी।
ऐसे लोगों के लिए कात्यायनी की यह कविता --
यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में।
उससे पूछो।
पिंजरे के बारे में पूछो,
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में।
जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है।
यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में
एक गीत।
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबाँसियाँ।
इन्हें समझो
इस स्त्री से डरो!
और अंत में मार्क्स का यह उद्धरण --
''मनुष्य को मनुष्य और संसार के साथ उसके सम्बन्धों को आप मानवीय मान लीजिये : तब फिर आप प्रेम का केवल प्रेम के साथ, विश्वास का विश्वास के साथ, आदि-आदि... विनिमय कर सकते हैं। यदि आप कला का आस्वादन करना चाहते हैं तो आपको कलात्मक दृष्टि से परिष्कृत व्यक्ति होना चाहिए, यदि आप दूसरे लोगों पर प्रभाव डालना चाहते हैं तो आपको दूसरे लोगों पर स्फूर्तिप्रद और उत्साहवर्द्धक प्रभाव डालने वाला व्यक्ति होना चाहिए। मनुष्य और प्रकृति के साथ, आपके प्रत्येक सम्बन्ध को, आपकी कामना की वस्तु के अनुरूप, आपके वास्तविक वैयक्तिक जीवन की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति होनी चाहिए। यदि आप बदले में प्रेम जगाये बिना प्रेम करते हैं -- यानी अगर प्रेम के रूप में आपका प्रेम जवाबी प्रेम नहीं पैदा करता; यदि प्रेम करने वाले एक व्यक्ति के रूप में आप स्वयं की एक जीवन्त अभिव्यक्ति के रूप में अपने को प्रेम पाने वाला व्यक्ति नहीं बना पाते, तो आपका प्यार निश्शक्त है -- एक दुर्भाग्य है।''
(मार्क्स : दि इकोनॉमिक एण्ड फिलॉसोफि़क मैन्युस्क्रिप्ट्स ऑफ़ 1844)
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