मध्ययुग का विश्वदृष्टिकोण सारत: धर्मशास्त्रीय था। ईसाई धर्म ने
यूरोपीय विश्व की एकता - जो वास्तव में अन्दरूनी तौर पर अस्तित्वमान थी ही
नहीं - को बाह्य तौर पर, साझे सरासेन* शत्रु के ख़िलाफ़ - को क़ायम किया। पश्चिम
यूरोपीय विश्व - जो सतत् संसर्ग के दौरान विकासमान कुछेक राष्ट्रों के समूह से
निर्मित हुआ था - की एकता कैथोलिक मत से जोड़ दिये जाने के परिणामस्वरूप सम्भव
हुई। यह धर्मशास्त्रीय जुड़ाव विचारों के स्तर पर ही नहीं था बल्कि वह यथार्थता
में अस्तित्वमान था - न केवल पोप में, जो कि उसका राजतन्त्रवादी केन्द्र था - बल्कि
उस चर्च में भी अस्तित्वमान था जो कि सामन्ती ढंग से तथा पद-सोपान के आधार पर
संघटित किया गया था तथा जो प्रत्येक देश में लगभग एक तिहाई भूमि का स्वामी होने
के कारण सामन्ती संघटन में ज़बरदस्त शक्ति का उपभोग कर पाने की स्थिति में था। सामन्ती
भूस्वामी होने के कारण चर्च अलग-अलग देशों के बीच की वास्तविक कड़ी बना हुआ था।
चर्च के सामन्ती संघटन ने लौकिक सामन्ती राज्य प्रणाली को धार्मिक प्रतिष्ठा
प्रदान की। इसके अलावा, एकमात्र शिक्षित वर्ग पादरियों का ही था। इसलिए यह स्वाभाविक ही था
कि चर्च मतवाद समस्त चिन्तन का आरम्भ-बिन्दु तथा बुनियाद बन गया। न्यायशास्त्र, प्रकृतिविज्ञान, दर्शनशास्त्र का
ही नहीं, बल्कि
सबकुछ का विवेचन इस बात को आधार बनाकर किया जाता था कि उसकी अन्तर्वस्तु चर्च के
सिद्धान्तों का समर्थन करती थी अथवा विरोध।
पर सामन्तवाद के गर्भ में बुर्ज़ुआ वर्ग की शक्ति विकसित हो रही थी।
बड़े भूस्वामियों के विरोध में एक नया वर्ग प्रकट हुआ। शहरी बर्गर मुख्यत: माल
के उत्पादक व व्यापारी मात्र थे, जबकि सामन्ती उत्पादन पद्धति काफ़ी हद तक इस
विशिष्टता पर आधारित थी कि एक सीमित क्षेत्र के भीतर पैदा किये गये उत्पाद का -
आंशिक रूप से उत्पादकों द्वारा तथा आंशिक रूप से सामन्ती सरदार द्वारा - स्व-उपभोग
कर लिया जाता था। सामन्तवादी ढाँचे के आधार पर गठित व निर्मित कैथोलिक विश्व
दृष्टिकोण इस नये वर्ग के लिए तथा उसका उत्पादन एवं विनिमय की शर्तों के लिए अब
उपयुक्त नहीं रह गया था। फिर भी यह वर्ग लम्बे समय तक धर्मशास्त्र का बन्दी
बना रहा। 13वीं से लेकर 17वीं शताब्दी तक उनसे जुड़े हुए तथा धार्मिक नारों के
तहत जितने भी धर्म-सुधार आन्दोलन तथा संघर्ष चलाये गये, वे सैद्धान्तिक पक्ष की दृष्टि से, शहरी बर्गरों व
जनसाधारण, तथा इन
दोनों के सम्पर्क में आकर विद्रोही बने किसानों द्वारा बार-बार उठाई गयी इस माँग
के अलावा कुछ नहीं थे कि पुराने धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण को बदली हुई आर्थिक
परिस्थितियों तथा नये वर्ग की जीवन स्थितियों के अनुरूप रूपान्तरित व अनुकूलित
किया जाये। लेकिन वैसा किया नहीं जा सका। इंग्लैण्ड में धर्म-पताका आख़िरी बार
17वीं शताब्दी में फहरायी। पचास वर्ष भी नहीं गुज़रे थे कि फ़्रांस में नया विश्वदृष्टिकोण
- जिसे बुर्ज़ुआ वर्ग का क्लासिकीय विश्व दृष्टिकोण बनना था - यानी न्यायिक
विश्व दृष्टिकोण खुले तौर प्रकट हुआ।
इस विश्वदृष्टिकोण का अर्थ था धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण का
लौकिकीकरण। मानव-अधिकार ने जड़ मतवाद का, दैवीय अधिकार का स्थान ले लिया, और राज्य ने चर्च
का स्थान ले लिया। आर्थिेक एवं सामाजिक परिस्थितियों - जिनके बारे में पहले कल्पना
कर ली गयी कि उन्हें चर्च तथा जड़ मतवाद ने उत्पन्न किया था, क्योंकि चर्च तथा
जड़ मतवाद उन्हें स्वीकृति प्रदान करते थे - के बारे में अब यह माना जाने लगा कि
उन्हें राज्य द्वारा उत्पन्न किया गया है तथा वे क़ानून की नींव पर निर्मित
हैं। क्योंकि सामाजिक पैमाने पर तथा अपने पूरे विकसित रूप में किया जाने वाला
माल-विनिमय (ख़ासकर पेशगी तथा उधार के
माध्यम से) पेचीदा पारस्परिक अनुबन्ध सम्बन्धों को जन्म देता है इसलिए ऐसे
आम तौर पर लागू किये जा सकने नियमों व सिद्धान्तों की माँग करता है जो केवल
समुदाय द्वारा ही दिये जा सकते हैं; यानी राज्य द्वारा निर्धारित क़ानून के प्रतिमान,
जिनके बारे में ये कल्पना की गयी थी कि वे (क़ानून के प्रतिमान) आर्थिक तथ्यों
से उत्पन्न नहीं होते थे बल्कि राज्य द्वारा विधिवत संस्थापन से पैदा होते थे।
चूँकि स्पर्द्धा - जो स्वतन्त्र माल उत्पादकों द्वारा किये जाने वाले व्यापार
का बुनियादी रूप थी - बराबरी क़ायम करने की सबसे बड़ी शक्ति होती है - समानता
(क़ानून के समक्ष समानता) बुर्ज़ुआ वर्ग की लड़ाई का सबसे प्रमुख नारा बन गयी। इस तथ्य ने कि सामन्ती सरदारों
तथा उनके रक्षक निरंकुश राजतंत्र के ख़िलाफ़ इस नये उदीयमान,
आकांक्षी वर्ग का संघर्ष, प्रत्येक वर्ग-संघर्ष के समान,
राजनीतिक संघर्ष - यानी राज्य पर आधिपत्य के लिए संघर्ष - ही होना था इसलिए उसे न्यायिक
माँगों को आधार बनाकर लड़ा जाना आवश्यक हो गया था,
न्यायिक विश्व दृष्टिकोण के सुदृढ़ीकरण से विशेष योगदान किया।
लेकिन बुर्ज़ुआ वर्ग ने
अपने नकारात्मक प्रतिरूप, यानी सर्वहारा को जन्म दिया,
और उसके साथ एक नये वर्ग-संघर्ष को जन्म दिया जो कि बुर्ज़ुआ वर्ग द्वारा राजसत्ता हथियाने की
प्रक्रिया पूरी करने के पहले ही छिड़ गया। जिस प्रकार अपने समय में बुर्ज़ुआ वर्ग
ने परम्परा की शक्ति के असर में, अभिजात वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के दौरान
कुछ समय तक धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण को स्वयं से चिपकाये रखा था, उसी प्रकार
सर्वहारा ने एकदम अपने प्रतिद्वंदी से न्यायिक दृष्टिकोण हथिया लिया और उसमें
बुर्ज़ुआ वर्ग के ख़िलाफ़ हथियारों की तलाश करता रहा। सर्वहारा पार्टी के आरम्भिक
तत्व तथा उसके सैद्धान्तिक प्रतिनिधि पूरी तरह क़ानून के 'न्यायिक आधारभूमि' पर जमे रहे, सिर्फ़ एक फ़र्क था और वह यह कि उन्होंने
अपने लिए जो क़ानून की आधारभूमि तैयार की वह बुर्ज़ुआ वर्ग की आधारभूमि से भिन्न
थी। एक ओर समानता की माँग को विस्तार दिया गया ताकि सामाजिक समानता क़ानूनी
समानता की अनुपूरक बन सके, तो दूसरी ओर एडम स्मिथ की इस प्रस्थापना से (कि
श्रम समस्त सम्पदा - धन-दौलत - का स्रोत है किन्तु श्रम के फल में भूस्वामी
तथा पूँजीपति की हिस्सेदारी होनी चाहिए) यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह बँटवारा
(हिस्सेदारी) न्यायोचित नहीं है इसलिए इसे या तो समाप्त किया जाये, या मज़दूर के पक्ष
में संशोधित किया जाये। किन्तु इस अहसास ने कि इस प्रश्न को क़ानून के न्यायिक
आधार के भरोसे छोड़ देने मात्र से पूँजीवादी उत्पादन पद्धति द्वारा उत्पन्न
दमनकारी परिस्थितियों - यानी बड़े पैमाने पर उद्योग पर आधारित उत्पादन पद्धति
द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों - का खात्मा किसी तरह सम्भव नहीं होता था, पहले ही सन्त
साइमन, फूरिये
तथा ओवेन (जो कि प्रारम्भिक समाजवादियों के बीच प्रमुख चिन्तकों के रूप में जाने
जाते थे) को न्यायिक-राजनीतिक क्षेत्र पूरी तरह छोड़ने को सब प्रकार के राजनीतिक
संघर्ष को व्यर्थ एवं निरर्थक घोषित करने को विवश कर दिया था।
ये दोनों ही धारणाएँ आर्थिक परिस्थितियों द्वारा पैदा की गयी मज़दूर
वर्ग की मुक्ति की आकांक्षा को समुचित रूप से व्यक्त करने तथा उसे पूरी तरह
समाविष्ट करने की दृष्टि से समान रूप से असन्तोषजनक थीं। श्रम के पूरे फल की
माँग तथा उसी तरह समानता की माँग (जैसे ही उन्हें न्यायिक रूप में ब्योरेवार
सूत्रबद्ध किया गया तथा समस्या के मर्म - यानी उत्पादन पद्धति के रूपान्तरण -
को कमोबेश अनछुआ छोड़ दिया गया) असमाधेय अन्तरविरोधों में लुप्त हो गयी। काल्पनिक
(यूटोपियाई) समाजवादियों द्वारा राजनीतिक संघर्ष का अस्वीकरण (परित्याग) साथ ही
वर्ग-संघर्ष - जो उस वर्ग के कार्यकलाप का एकमात्र रूप था जिसका वे प्रतिनिधित्व
करते थे - का अस्वीकरण भी था। दोनों दृष्टिकोणों ने उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का -
जिससे कि वे अस्तित्व में आये थे - अमूर्तीकरण कर दिया; दोनों ने भावना को आकृष्ट किया : कुछ ने
न्याय की भावना को तथा अन्य ने मानवता की भावना को। दोनों ने ही अपनी माँगों को
पवित्र इच्छाओं के रूप में परिधान पहनाकर प्रस्तुत किया, जिनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता था
कि उन्हें तब ही क्यों पूरा किया जाना चाहिए था और एक हज़ार वर्ष पहले या बाद
में क्यों नहीं।
मज़दूर वर्ग - जो कि सामन्तवादी उत्पादन पद्धति के पूँजीवादी उत्पादन
पद्धति में रूपान्तरण हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पादन के साधनों के समस्त स्वामित्व
से वंचित हो गया था तथा जो पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की क्रियाविधि द्वारा सम्पत्तिविहीनता
की, विरासत
में प्राप्त, अवस्था में नये सिरे से स्वयं को पा रहा है - बुर्ज़ुआ वर्ग के न्यायिक
भ्रम में अपनी जीवन-परिस्थितियों की व्यापक अभिव्यक्ति नहीं पा सकता है। वह जीवन
के हालात को सही और पूरी तरह से तभी समझ व जान सकता है जबकि वह न्यायिक-रंग के
चश्में के बगैर (यानी उसे उतारकर) जीवन की वास्तविकता को देखने की कोशिश करे।
मार्क्स ने इतिहास की भौतिकवादी धारणा के सहारे ऐसा करने में उसकी सहायता की है -
उसके सामने यह प्रमाण उपलब्ध कराकर कि मनुष्य के समस्त न्यायिक, राजनीतिक, दार्शनिक, धार्मिक तथा अन्य
विचार (धारणाएँ) अन्ततोगत्वा उसके जीवन की आर्थिक परिस्थितियों से ही, उसकी उत्पादन
पद्धति तथा उत्पाद के विनिमय की पद्धति से ही व्युत्पन्न होते हैं। इस प्रकार
उन्होंने वह विश्व दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जो सर्वहारा वर्ग के जीवन व संघर्ष
की परिस्थितियों के अनुरूप हैं; मज़दूरों के दिमाग़ में भ्रमों की कमी ही उनके
सम्पत्ति-अभाव के अनुरूप हो सकती है। और यह सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण अब
दुनियाभर में छाता जा रहा है…
-फ्रेडरिक एंगेल्स ('न्यायिक समाजवाद',1887)
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*रोमन साम्राज्य की सीरियाई सीमाओं पर रहने वाला घुमन्तू क़बीला -
जिसका उल्लेख धर्मयुद्धों से संलग्नता के कारण भी मिलता है। यहाँ उसे यूरोपीय
देशों के साझे शत्रु के रूप में चित्रित किया गया है।
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