यदि तकनोलॉजी का कोई आलोचनात्मक इतिहास लिखा जाये तो उससे यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि 18वीं सदी के किसी भी आविष्कार को किसी एक व्यक्ति का काम समझना कितना ग़लत है। अभी तक कोई ऐसी पुस्तक नहीं लिखी गयी है। डार्विन ने प्रकृति की तकनोलॉजी के इतिहास में, यानी पौधों और पशुओं की उन इन्द्रियों के निर्माण के इतिहास में, जो उनके भरण-पोषण के लिए उत्पादन के साधनों का काम करती हैं, हमारी रुचि पैदा कर दी है। तब क्या मनुष्य की उत्पादक इन्द्रियों का इतिहास - उन इन्द्रियों का विकास, जो समस्त सामाजिक संगठन का आधार है - इस योग्य नहीं है कि उसकी ओर भी हम उतना ही ध्यान दें? और क्या इसतरह का इतिहास तैयार करना ज़्यादा आसान नहीं होगा, क्योंकि जैसा कि विको ने कहा है, मानव इतिहास प्राकृतिक इतिहास से केवल इसी बात में भिन्न है कि उसका निर्माण हमने किया है जबकि प्राकृतिक इतिहास का निर्माण हमने नहीं किया है? तकनोलॉजी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार पर और उत्पादन की उस प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है, जिससे वह अपना जीवन-निर्वाह करता है, और इसतरह वह उसके सामाजिक सम्बन्धों तथा उनसे पैदा होने वाली मानसिक अवधारणाओं के निर्माण के प्रणाली को भी खोलकर रख देती है। यहाँ तक कि धर्म का इतिहास लिखने में भी यदि इस भौतिक आधार को ध्यान में नहीं रखा जाता, तो ऐसा प्रत्येक इतिहास आलोचनात्मक दृष्टि से वंचित हो जाता है। असल में जीवन के वास्तविक सम्बन्धों से इन सम्बन्धों के अनुरूप दैविक सम्बन्धों का विकास करने की अपेक्षा धर्म की धूमिल सृष्टि का विश्लेषण करके उसके लौकिक सार का पता लगाना कहीं अधिक आसान है। यही एकमात्र भौतिकवादी पद्धति है, और इसलिए यही एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति है। प्राकृतिक विज्ञान में अमूर्त भौतिकवाद ऐसा भौतिकवाद है जो इतिहास तथा उसकी प्रक्रिया को अपने क्षेत्र से बाहर रखता है। जब कभी उसके प्रवक्ता अपने विशेष विषय की सीमाओं के बाहर कदम रखते हैं, तब उनकी अमूर्त और वैचारिक अवधारणाओं से इस भौतिकवाद की त्रुटियाँ तुरंत स्पष्ट हो जाती हैं।
मार्क्स (
पूँजी, खण्ड-एक, हिन्दी संस्करण, अध्याय 15 की पाद टिप्पणी सं.89, पृष्ठ 398-399, मास्को से प्रकाशित 1987 संस्करण)
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