जिन पूर्वाधारों से हम शुरुआत कर रहे हैं वो यादृच्छिक (मनमाने ढंग से निर्धारित) नहीं हैं, जड़-सूत्र नहीं हैं, बल्कि वास्तविक पूर्वाधार हैं जिनसे अमूर्तन सिर्फ कल्पना में ही किया जा सकता है। वे वास्तविक व्यक्ति हैं, उनकी गतिविधियाँ हैं और वे भौतिक परिस्थितियाँ हैं जिनमें वे रहते हैं - वे भौतिक परिस्थितियाँ जिन्हें वे पहले से मौजूद पाते हैं और वे भी जो उनकी गतिविधियों द्वारा पैदा होती हैं। इसलिए, इन पूर्वाधारों को विशुद्ध आनुभाविक ढंग से सत्यापित किया जा सकता है।
समूचे मानव इतिहास का पहला पूर्वाधार, निश्चित तौर पर, सजीव मनुष्यों का अस्तित्व है। इसलिए पहला तथ्य जो स्थापित किया जाना है, वह है इन व्यक्तियों का शारीरिक संगठन और शेष प्रकृति के साथ उनका परिणामी सम्बन्ध। जाहिर है कि हम यहाँ मनुष्य की वास्तविक शारीरिक प्रकृति, या भूवैज्ञानिक, पार्वतिकजलराशिकीय, जलवायु आदि उन प्राकृतिक परिस्थितियों, जिनमें मनुष्य अपने आपको पाता है, के विवरण में नहीं जा सकते। इतिहास-लेखन को हमेशा इन प्राकृतिक आधारों से और इतिहास-विकास की प्रक्रिया में मनुष्य की कार्रवाइयों के द्वारा इनके रूपांतरणों से प्रस्थान करना चाहिए।
मनुष्यों को पशुओं से चेतना के द्वारा, धर्म के द्वारा या आप अपनी इच्छानुसार किसी और चीज़ के द्वारा भी अलग करके देख सकते हैं। वे स्वयं अपने को जानवरों से अलग करके देखना तभी शुरू कर देते हैं जब वे अपने जीवन-निर्वाह के साधनों का उत्पादन करना शुरू कर देते हैं, यह एक ऐसा कदम है जो उनके शारीरिक संगठन द्वारा अनुकूलित होता है। अपने जीवन निर्वाह के साधनों का उत्पादन के करने के द्वारा मनुष्य परोक्षत: अपने वास्तविक भौतिक जीवन का उत्पादन कर रहे होते हैं।
वह तरीक़ा जिससे मनुष्य अपने जीवन-निर्वाह के साधनों का उत्पादन करते हैं, सबसे पहले उन वास्तविक साधनों की प्रकृति पर निर्भर करता है, जिन्हें वे अस्तित्व में पाते हैं और जिनका उन्हें पुनरुत्पादन करना होता है। इस उत्पादन-प्रणाली को सीधे-सरल ढंग से व्यक्तियों के शारीरिक अस्तित्व का पुनरुत्पादन होने के रूप में कदापि नहीं समझा जाना चाहिए। बल्कि यह इन व्यक्तियों की गतिविधि का एक सुनिश्चित रूप है, एक सुनिश्चित हिस्सा है। जैसे व्यक्ति अपने जीवन को अभिव्यक्त करते हैं, वैसे ही वे होते हैं। इसलिए, जो वे होते हैं, वह उनके उत्पादन से मेल खाता है - जो वे पैदा करते हैं, और जैसे वे पैदा करते हैं, इन दोनों ही चीजों से। इसलिए व्यक्तियों की प्रकृति उन भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है जो उनके उत्पादन का निर्धारण करते हैं।
-मार्क्स और एंगेल्स ('जर्मन विचारधारा', 1846)
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