'जो सक्षम है वही बचेगा' - यह नियम सामाजिक जीवन पर हूबहू यदि लागू कर दिया जाए तो समाज का जीवन जंगल के जीवन जैसा बर्बर हो जाएगा।
और देखा जाए तो आज का पूंजीवाद ''सभ्य बर्बरता'' के अतिरिक्त कुछ और है भी नहीं। जिसके पास ताकत है, सत्ता है, पहुंच है, औकात है, हैसियत है, वह दूसरों को धकेल-रौंद-कुचलकर आगे बढ़ जाता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। जो भोला है, वह रोज ठगा जाएगा। वह मार दिया जाएगा। ताकत-हैसियत-औकात- यही इंसान की पहचान है और इसका फैसला पूंजी से, संपत्ति से होता है। और जैसा फ्रांसीसी लेखक बाल्ज़ाक ने कहा था, ''हर संपत्ति साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है।''
कुछ लोग तर्क देते हैं कि अपनी मेहनत और लगन से इंसान कुछ भी हासिल कर सकता है। लेकिन इसका मतलब तो यह हुआ कि स्वर्ग के तलघर में अंधकारमय नर्क का जीवन बिताने वाले मेहनतकश काहिल होते हैं! लेकिन वे ही तो दस-दस, बारह-बारह घंटे हाड़तोड़ मेहनत करके सारी चीजों का उत्पादन करते हैं। सच्चाई यह है कि पूंजीवादी समाज में एक ऐसी दौड़ जारी रहती है जिसमें कुछ धावक आधुनिक जूते पहने रहते हैं जबकि कुछ धावकों के पैरों में बीस-बीस किलो वजन के पत्थर बंधे रहते हैं। पार्ट-टाइम काम और ट्यूशन पढ़ा कर प्रतियोगिता की तैयारी करने वाला ग़रीब का बेटा मंहगी कोचिंग करने वाले के साथ मुकाबला कैसे कर सकता है? बीस रुपये रोज़ से नीचे पर जीने वाली देश की 77 % आबादी अपने बच्चों को इंजीरियरिंग, मेडिकल, बिजनेस मैंनेजमेंट, कम्प्यूटर और मास मीडिया की पढ़ाई कैसे करवा सकती है?
रंक के राजा बनने की कहानी बस कहानी है। धीरू भाई अंबानी मामूली आदमी से शीर्षस्थ पूंजीपति इसलिए बन गए क्योंकि भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र से उन्हें भरपूर मदद मिली और पूंजी के खेल के नियमों को उन्होंने ठगी के स्तर तक नीचे उतारने में कोई हिचक नहीं दिखाई। लाखों में कुछ दर्जन लोग ऐसे होते हैं जो लुटेरों के कमीशन एजेंट के रूप में काम करते-करते खुद लुटेरे बन जाते हैं। हर वर्ष लाखों में से कुछ दर्जन ग़रीब युवा भी ऐसे होते हैं जो आई.ए.एस, पी.सी.एस या बैंक अधिकारी बन जाते हैं पर ये अपवाद होते हैं जिन्हें नियम या नज़ीर बना कर पेश किया जाता है।
मान लीजिए, आप एक मिक्सर-ग्राइंडर में मसालों को पीस रहे हैं। कुछ मसालों के टुकडे़ साबुत बच सकते हैं, पर आम बात यह है कि सारे मसाले पिस कर पेस्ट बन जाते हैं। कुछ साबुत टुकड़ों के बच निकलने से मिक्सर-ग्राइंडर का आम गुण-धर्म निर्धारित नहीं होता। पूंजीवादी व्यवस्था एक मीट-ग्राइंडर है जो बहुसंख्यक आम आबादी का कीमा बनाती रहती है, बेशक इसमें से कुछ साबुत बच निकलते हैं।
आम जनता के युवा बेटों के सामने बुनियादी सवाल यह है कि ये तमाम अपने जैसों को पीछे छोड़ कर, अपने जैसों पर हुकूमत करने वालों, लूटमार, दमन और दलाली करने वालों के गिरोह में क्यों शामिल होना चाहते हैं?
इसके बजाए वे एक ऐसी मानवीय, न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाने की लड़ाई में क्यों नहीं शामिल होना चाहते जिसमें सभी को अपनी नैसर्गिक क्षमताओं-योग्यताओं को बढ़ाने के समान अवसर मिले और उनके अनुरूप काम के समान अवसर मिले। साथ ही, वह एक ऐसी व्यवस्था हो जिसमें अलग-अलग योग्यताओं क्षमताओं के हिसाब से ऊंच-नीच का भेद न किया जाता हो तथा जड़ किस्म का सामाजिक श्रम-विभाजन न हो।
समाज में विकास-कार्य की जरूरतें असीमित हैं। प्रकृति-प्रदत्त संसाधन मौजूद हैं (पर्यावरण-संतुलन और ऊर्जा-नवीनीकरण के योजनाबद्ध सामुहिक प्रयासों से प्राकृतिक संसाधनों को अक्षय बनाया जा सकता है) और मानवीय श्रम एवं कौशल मौजूद है। उत्पादन यदि मुनाफे के लिए न हो कर सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सामाजिक विकास के लिए हो तो सभी लोगों को काम और जीवन के समान अवसर मिल सकते हैं। यह तभी हो सकता है जब उत्पादन, राजकाज और समाज के ढ़ांचे पर उत्पादन करने वाली बहुसंख्यक आबादी वास्तव में काबिज़ हो और फैसले की ताकत वास्तव में उसके हाथों में हो।
एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण के लिए वर्तमान व्यवस्था का ध्वंस करना ही होगा। इसके लिए विद्रोह के बवंडर की ज़रूरत है। इसलिए विद्रोह करो ! विद्रोह इतिहास का तकाजा है। विद्रोह न्याय संगत है।
और देखा जाए तो आज का पूंजीवाद ''सभ्य बर्बरता'' के अतिरिक्त कुछ और है भी नहीं। जिसके पास ताकत है, सत्ता है, पहुंच है, औकात है, हैसियत है, वह दूसरों को धकेल-रौंद-कुचलकर आगे बढ़ जाता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। जो भोला है, वह रोज ठगा जाएगा। वह मार दिया जाएगा। ताकत-हैसियत-औकात- यही इंसान की पहचान है और इसका फैसला पूंजी से, संपत्ति से होता है। और जैसा फ्रांसीसी लेखक बाल्ज़ाक ने कहा था, ''हर संपत्ति साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है।''
कुछ लोग तर्क देते हैं कि अपनी मेहनत और लगन से इंसान कुछ भी हासिल कर सकता है। लेकिन इसका मतलब तो यह हुआ कि स्वर्ग के तलघर में अंधकारमय नर्क का जीवन बिताने वाले मेहनतकश काहिल होते हैं! लेकिन वे ही तो दस-दस, बारह-बारह घंटे हाड़तोड़ मेहनत करके सारी चीजों का उत्पादन करते हैं। सच्चाई यह है कि पूंजीवादी समाज में एक ऐसी दौड़ जारी रहती है जिसमें कुछ धावक आधुनिक जूते पहने रहते हैं जबकि कुछ धावकों के पैरों में बीस-बीस किलो वजन के पत्थर बंधे रहते हैं। पार्ट-टाइम काम और ट्यूशन पढ़ा कर प्रतियोगिता की तैयारी करने वाला ग़रीब का बेटा मंहगी कोचिंग करने वाले के साथ मुकाबला कैसे कर सकता है? बीस रुपये रोज़ से नीचे पर जीने वाली देश की 77 % आबादी अपने बच्चों को इंजीरियरिंग, मेडिकल, बिजनेस मैंनेजमेंट, कम्प्यूटर और मास मीडिया की पढ़ाई कैसे करवा सकती है?
रंक के राजा बनने की कहानी बस कहानी है। धीरू भाई अंबानी मामूली आदमी से शीर्षस्थ पूंजीपति इसलिए बन गए क्योंकि भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र से उन्हें भरपूर मदद मिली और पूंजी के खेल के नियमों को उन्होंने ठगी के स्तर तक नीचे उतारने में कोई हिचक नहीं दिखाई। लाखों में कुछ दर्जन लोग ऐसे होते हैं जो लुटेरों के कमीशन एजेंट के रूप में काम करते-करते खुद लुटेरे बन जाते हैं। हर वर्ष लाखों में से कुछ दर्जन ग़रीब युवा भी ऐसे होते हैं जो आई.ए.एस, पी.सी.एस या बैंक अधिकारी बन जाते हैं पर ये अपवाद होते हैं जिन्हें नियम या नज़ीर बना कर पेश किया जाता है।
मान लीजिए, आप एक मिक्सर-ग्राइंडर में मसालों को पीस रहे हैं। कुछ मसालों के टुकडे़ साबुत बच सकते हैं, पर आम बात यह है कि सारे मसाले पिस कर पेस्ट बन जाते हैं। कुछ साबुत टुकड़ों के बच निकलने से मिक्सर-ग्राइंडर का आम गुण-धर्म निर्धारित नहीं होता। पूंजीवादी व्यवस्था एक मीट-ग्राइंडर है जो बहुसंख्यक आम आबादी का कीमा बनाती रहती है, बेशक इसमें से कुछ साबुत बच निकलते हैं।
आम जनता के युवा बेटों के सामने बुनियादी सवाल यह है कि ये तमाम अपने जैसों को पीछे छोड़ कर, अपने जैसों पर हुकूमत करने वालों, लूटमार, दमन और दलाली करने वालों के गिरोह में क्यों शामिल होना चाहते हैं?
इसके बजाए वे एक ऐसी मानवीय, न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाने की लड़ाई में क्यों नहीं शामिल होना चाहते जिसमें सभी को अपनी नैसर्गिक क्षमताओं-योग्यताओं को बढ़ाने के समान अवसर मिले और उनके अनुरूप काम के समान अवसर मिले। साथ ही, वह एक ऐसी व्यवस्था हो जिसमें अलग-अलग योग्यताओं क्षमताओं के हिसाब से ऊंच-नीच का भेद न किया जाता हो तथा जड़ किस्म का सामाजिक श्रम-विभाजन न हो।
समाज में विकास-कार्य की जरूरतें असीमित हैं। प्रकृति-प्रदत्त संसाधन मौजूद हैं (पर्यावरण-संतुलन और ऊर्जा-नवीनीकरण के योजनाबद्ध सामुहिक प्रयासों से प्राकृतिक संसाधनों को अक्षय बनाया जा सकता है) और मानवीय श्रम एवं कौशल मौजूद है। उत्पादन यदि मुनाफे के लिए न हो कर सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सामाजिक विकास के लिए हो तो सभी लोगों को काम और जीवन के समान अवसर मिल सकते हैं। यह तभी हो सकता है जब उत्पादन, राजकाज और समाज के ढ़ांचे पर उत्पादन करने वाली बहुसंख्यक आबादी वास्तव में काबिज़ हो और फैसले की ताकत वास्तव में उसके हाथों में हो।
एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण के लिए वर्तमान व्यवस्था का ध्वंस करना ही होगा। इसके लिए विद्रोह के बवंडर की ज़रूरत है। इसलिए विद्रोह करो ! विद्रोह इतिहास का तकाजा है। विद्रोह न्याय संगत है।
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