मार्क्स-एंगेल्स ने 'कम्युनिष्ट घोषणापत्र' में यूं ही नहीं लिखा है कि अब तक का ज्ञात मानव-इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है। जब से उत्पादन की प्रक्रिया की ज़रुरतों के कारण मानव समाज वर्गों में विभाजित हुआ है तभी से उत्पादन के साधनों और सामाजिक सम्पदा के स्वामी मेहनतकश उत्पादक वर्गों को लूटते रहे हैं। इस अन्याय का इतिहास जितना पुराना है, इसके विरुद्ध विद्रोह का इतिहास भी उतना ही पुराना है।
फिर यह मानना सिरे से ग़लत होगा कि अपार दुखों के सागर में ऐ श्वर्य और विलासिता के नये-नये द्वीप बनते रहेंगे, स्वर्गों के अंधकारमय तलघरों में लोग नर्क़ का जीवन बिताते रहेंगे, रईसों की सनक और फिजूलख़र्ची बीच बच्चे भूख और कुपोषण से मरते रहेंगे, करोड़ों मज़दूरों की हडिड्यां निचोड़ी जाती रहेंगी, बेरोज़गार युवाओं के सपने राख होते रहेंगे - और अब फिर कभी भी विद्रोह नहीं होंगे, क्रांतियां नहीं होंगी और पूंजीवाद की चक्की निर्बाध चलती रहेगी।
वास्तव में छिटपूट विद्रोह तो अभी भी हो रहे हैं। इन्हें जंगल की आग का रूप लेना ही है। इतिहास में कई बार ऐसा होता रहा है कि क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर हावी हो जाती है। कभी-कभी प्रचण्ड ज्वार के पहले समंदर का पानी काफी शांत हो जाता है और काफी पीछे हट जाता है। आज विश्वस्तर पर पूंजी की ताकतें श्रम की ताकतों पर हावी हैं। पूंजी का शिविर संगठित है। श्रम का शिविर बिखरा हुआ है। इसका एक कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी की मज़दूर क्रांतियों की हारों से उबरक, उनका सार-संकलन नहीं किया जा सका है (धंधेबाज वामपंथी बुद्धिजीवी विश्लेषण और सार-संकलन के नाम पर विभ्रम और निराशा का कचरा फैलाकर पूंजीवाद की सेवा ही कर रहे हैं)। दूसरा कारण यह है कि नयी तकनोलॉजी और संचार क्रांति के कारण पूंजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों का अध्ययन करके आम जनता को संगठित करने की नयी राह और इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रांतियों की नई रणनीति अभी विकसित नहीं की जा सकी है। कुछ कठमुल्लावादी बीसवीं सदी की क्रांतियों को दुहराना चाहते हैं तो कुछ ''मुक्त चिन्तक'' उनसे कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वैचारिक सागर-मंथन जा़री है। विष भी निकल रहा है और अमृत भी।
इस प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाना ही है। विश्व पूंजीवाद के असाध्य, ढांचागत संकट सिद्ध कर रहे हैं कि यह अंदर से क्षयमान है। इसका पुनर्जीवन सम्भव नहीं। पर मानवता की छाती पर यह बोझ तबतक सवार रहेगा, जबतक इसे उखाड़कर फेक नहीं दिया जाता।
दुनिया के जिन हिस्सों में पूंजीवादी लूट का दबाव अधिक है, जहां की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम शक्ति की लूट देशी पूंजीपति और साम्राज्यवादी मिलकर कर रहे हैं, वहां भूगर्भ के नीचे ज्वालामुखी जाग रहा है। यही नहीं, विश्वव्यापी वित्तीय संकट के दौर में तो दैत्य के दुर्ग में भी तूफान के संकट मिलने लगे हैं। ये तूफान दिशाहीन होने के चलते दबा भले ही दिये जायें लेकिन यह तो साफ ही हो गया है कि जब पिछड़े पूंजीवादी देशों से तुफान उठेगा तो विश्व पूंजी के केन्द्रों तक उसके पहुंच जाने में बहुत देर नहीं लगेगी।
फिर यह मानना सिरे से ग़लत होगा कि अपार दुखों के सागर में ऐ श्वर्य और विलासिता के नये-नये द्वीप बनते रहेंगे, स्वर्गों के अंधकारमय तलघरों में लोग नर्क़ का जीवन बिताते रहेंगे, रईसों की सनक और फिजूलख़र्ची बीच बच्चे भूख और कुपोषण से मरते रहेंगे, करोड़ों मज़दूरों की हडिड्यां निचोड़ी जाती रहेंगी, बेरोज़गार युवाओं के सपने राख होते रहेंगे - और अब फिर कभी भी विद्रोह नहीं होंगे, क्रांतियां नहीं होंगी और पूंजीवाद की चक्की निर्बाध चलती रहेगी।
वास्तव में छिटपूट विद्रोह तो अभी भी हो रहे हैं। इन्हें जंगल की आग का रूप लेना ही है। इतिहास में कई बार ऐसा होता रहा है कि क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर हावी हो जाती है। कभी-कभी प्रचण्ड ज्वार के पहले समंदर का पानी काफी शांत हो जाता है और काफी पीछे हट जाता है। आज विश्वस्तर पर पूंजी की ताकतें श्रम की ताकतों पर हावी हैं। पूंजी का शिविर संगठित है। श्रम का शिविर बिखरा हुआ है। इसका एक कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी की मज़दूर क्रांतियों की हारों से उबरक, उनका सार-संकलन नहीं किया जा सका है (धंधेबाज वामपंथी बुद्धिजीवी विश्लेषण और सार-संकलन के नाम पर विभ्रम और निराशा का कचरा फैलाकर पूंजीवाद की सेवा ही कर रहे हैं)। दूसरा कारण यह है कि नयी तकनोलॉजी और संचार क्रांति के कारण पूंजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों का अध्ययन करके आम जनता को संगठित करने की नयी राह और इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रांतियों की नई रणनीति अभी विकसित नहीं की जा सकी है। कुछ कठमुल्लावादी बीसवीं सदी की क्रांतियों को दुहराना चाहते हैं तो कुछ ''मुक्त चिन्तक'' उनसे कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वैचारिक सागर-मंथन जा़री है। विष भी निकल रहा है और अमृत भी।
इस प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाना ही है। विश्व पूंजीवाद के असाध्य, ढांचागत संकट सिद्ध कर रहे हैं कि यह अंदर से क्षयमान है। इसका पुनर्जीवन सम्भव नहीं। पर मानवता की छाती पर यह बोझ तबतक सवार रहेगा, जबतक इसे उखाड़कर फेक नहीं दिया जाता।
दुनिया के जिन हिस्सों में पूंजीवादी लूट का दबाव अधिक है, जहां की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम शक्ति की लूट देशी पूंजीपति और साम्राज्यवादी मिलकर कर रहे हैं, वहां भूगर्भ के नीचे ज्वालामुखी जाग रहा है। यही नहीं, विश्वव्यापी वित्तीय संकट के दौर में तो दैत्य के दुर्ग में भी तूफान के संकट मिलने लगे हैं। ये तूफान दिशाहीन होने के चलते दबा भले ही दिये जायें लेकिन यह तो साफ ही हो गया है कि जब पिछड़े पूंजीवादी देशों से तुफान उठेगा तो विश्व पूंजी के केन्द्रों तक उसके पहुंच जाने में बहुत देर नहीं लगेगी।
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