आधुनिकता : एक आवरण
हम अपने को क्रांतिकारी वामपंथी कहते हैं और ईमानदारी से मानते भी हैं, लेकिन हमारे संस्कारों में, अवचेतन की गहराइयों तक पुराने मूल्य रचे-बसे हैं।
एक कम्प्यूटर इंजीनियर मित्र बता रहा था कि उसकी कम्पनी की जो लड़कियॉ रोजमर्रे के जीवन में एकदम मॉडर्न हैं वे परम्परागत त्योहारों के समय ऑफिस में होने वाले आयोजनों में एकदम परम्परागत भारतीय नारी की तरह सज-धज कर आती हैं - भारी साड़ियॉ, भारी मेकअप, गहनें वगैरह। वामपंथी स्ित्रयॉं भी विशेष मौकों पर ''परम्परागत'' बन सजने-धजने से बाज नहीं आतीं। यानी सजने-सँवरने का अर्थ है ''परम्परागत'' हो जाना। आधुनिकता का आवरण सिर्फ कामकाज के लिए होता है। विशेष रूप से सुन्दर तभी लगेंगे जब परम्परागत ढंग से सजाव-श्रृंगार कर लेंगे। आधुनिक वेशभूषा विशेष उत्सवों के लिए नहीं होती। यह अतिरिक्त ''भारतीयता'' कहीं हमारे संस्कारों में बैठी भारतीय नारी के भीतर से तो नहीं आ रही है जो पुरूष निगाहों की प्रशंषा पाने के लिए अपने को रंगी-चुनी गुड़िया बनाने के लिए हर पल तैयार रहती है? सौन्दर्यबोध में बदलाव शायद तभी आ पाता है जब विश्वदृष्टिकोण वास्तव में बदल जाए। हमें स्वाभाविक रूप से जो अच्छा लगता है, वह हमारे अवचेतन की परतों को उदघाटित कर जाता है।
एक मॉल मे हम घूम रहे थे। वहॉ़ एक भूतबंगला बना था जिसमें प्रकाश और ध्वनि से डरावना प्रभाव पैदा किया जाता था। लोग टिकट लेकर देखने जा रहे थे। किंशुक ने कहा, ''कविता, भूतबंगले में तुम कभी मत जाना।''
जब वह बड़ा हो जायेगा तो समझ जायेगा कि स्त्रियॉ भूतबंगले में तो रहती ही हैं। सदियों से वे उससे बाहर निकलने की राह ढूँढ रही हैं।
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भूतबंगला
एक मॉल मे हम घूम रहे थे। वहॉ़ एक भूतबंगला बना था जिसमें प्रकाश और ध्वनि से डरावना प्रभाव पैदा किया जाता था। लोग टिकट लेकर देखने जा रहे थे। किंशुक ने कहा, ''कविता, भूतबंगले में तुम कभी मत जाना।''
जब वह बड़ा हो जायेगा तो समझ जायेगा कि स्त्रियॉ भूतबंगले में तो रहती ही हैं। सदियों से वे उससे बाहर निकलने की राह ढूँढ रही हैं।
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