Friday, June 05, 2020

धृष्टता-निकृष्टता की घृणित घड़ी आयी !घाघ-घाघ-घाघ दिशा समय आततायी !!

हमारी पुरातन भारतीय संस्कृति में  एक अक्षुण्ण परम्परा आज तक चली आ रही है और वह यह है कि सभी कुकर्मों-दुष्कर्मों में लिप्त रह चुके, या लिप्त रहते हुए, लोग उदात्त-सुन्दर शब्दों में  उन्हीं कुकर्मों-दुष्कर्मों के विरुद्ध सदुपदेशों की “अमृत-वर्षा” करने लगते हैं | परम्परा बड़ी गौरवशाली थी, इसलिए हिन्दी के वाम बौद्धिकों के एक बड़े हिस्से ने उसे यथावत् अपना लिया है |
जो सबसे अधिक छल-कपट-ईर्ष्या करता है वह दुनिया में, या साहित्य-समाज में व्याप्त छल-कपट-ईर्ष्या के विरुद्ध सबसे अधिक क्षोभ प्रकट करता है |
जो सबसे अधिक असत्य बोलता है वह असत्य के विरुद्ध जीवन-मरण का युद्ध चलाने का आह्वान करता है |
जो सबसे अधिक चापलूसी और गुटबाज़ी करता है, या चापलूसों-गुटबाज़ों से घिरा रहता है,वह चापलूसी और गुटबाज़ी से खुद को इतना दुखी दिखाता है कि लगता है कि मर ही जाएगा |
प्यार और सहानुभूति की नसीहत देने वाले भद्र-जनों को अक्सर भीतर से हत्यारों जैसा ठंडा और दुनिया के आम लोगों के दुखों-दर्दों से असम्पृक्त पाया गया है | ऐसे लोगों को उन कुटिल मौकापरस्तों पर काफी प्यार आता है, जो हितों की द्यूत-क्रीड़ा में  उनके सहयोगी हैं, या  बन सकते हैं |
“क्षमाशील” लोग कुटिल अवसरवादियों, लम्पटों-दुश्चरित्रों को तो हृदय की पूरी विशालता से क्षमा कर देते हैं और उनकी घृणित क्षुद्रताओं  को “बाल-सुलभ” मानकर  उनकी अनदेखी कर देते हैं |
सिद्धांत-निष्ठा की हर बात उन्हें बहुत चुभती है क्योंकि सिद्धांतों से उन्हें कोई लगाव नहीं होता और प्रतिबद्धता बस उनके लिए  ए टी एम या पे टी एम  के समान होती है जिससे वे प्रसिद्धि की मंडी से अपनी प्रिय चीज़ें खरीदते हैं |
सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्तियों द्वारा हर सैद्धान्तिक समालोचना (चाहे वह किसी और के विरुद्ध ही केन्द्रित क्यों न हो) उन्हें अपने और अपने जैसों के ऊपर हमले के समान लगती है और फ़ौरन वे परशुराम और दुर्वासा बन जाते हैं या ततैया के सामान डंक मारने लगते हैं |
शांत-शालीन, भोले “कवि” चेहरों के पीछे अक्सर चतुर, घाघ, हिसाबी-किताबी, गिरोहबाज़, दुर्दांत महत्वाकांक्षी आत्माएँ छुपी बैठी होती हैं |
अगर आपको किसी घटिया आदमी पर वैचारिक हमले करने से उसके प्रति सहानुभूति पैदा होती है, अगर किसी की विचारधारात्मक बदमाशियों से आपको उसपर क्रोध नहीं आता, अगर आप किसी कुत्सा-प्रचारक को तो पुचकारते हैं लेकिन उसके विरुद्ध सैद्धांतिक संघर्ष चलाने वालों से क्रुद्ध और क्षुब्ध हो जाते हैं; तो आपको अपने अवचेतन में कुण्डली मारकर बैठे उन स्वार्थों, रुग्णताओं, क्षुद्रताओं-तुच्छताओं और धूर्तताओं के साँपों को टॉर्च लेकर ढूँढ़ना चाहिए, लेकिन आप ऐसा करेंगे नहीं |
पुरानी कहानियों में एक बूढा बाघ हुआ करता था जो सोने के कंगन दिखाकर राहगीरों को लुभाता था और पास आने पर उन्हें मारकर खा जाता था | नयी कहानियों के बूढ़े बाघ जिन राहगीरों का गोश्त खाना चाहते हैं उनकी या तो सोने के कंगन में कोई दिलचस्पी नहीं होती, या फिर वे बाघ पर भरोसा नहीं करते | इसलिए नए ज़माने के बूढ़े बाघों ने कुछ राहगीरों को ही तरह-तरह के मँहगे उपहार और लालच देकर अपना एजेंट बना लिया है जो नए राहगीरों को फँसाकर किसी न किसी हिकमत से बूढ़े बाघों के पास लाया करते हैं |
हमलोगों के एक बहुत पुराने साथी हैं, Swadesh Sinha, जो दिल्ली के अपने बरसों के अनुभव के आधार पर बताते हैं :”हिन्दी के ढेरों वृद्ध चुके हुए लेखक इन्ही बौनों (उनका तात्पर्य पतित कैरियरवादियों की युवा पीढ़ी  से है) की पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार करना चाहते हैं, यह दुखदाई और घृणित दोनों है।” उनकी इस टिप्पणी पर मैंने यह प्रति-टिप्पणी की,”हिन्दी का तोप लेखक भी जब बूढा होता जाता है तो प्रायः रीढविहीन, आत्मसम्मानहीन, लिजलिजा-गिजगिजा और आत्मग्रस्त होता जाता है ! ये बुड्ढे तमाम गर्हित काम बेशर्मी से करके महत्वोन्मादी युवाओं को पतन का रास्ता दिखाते हैं ! नौजवानी में खुद मठाधीश होते हैं और बुढ़ापे में अपने ही अखाड़े के या किसी और अखाड़े के तैयार युवा पट्ठे को अखाड़े का उस्ताद बनाकर उसके शरणागत हो जाते हैं !”

(5जून, 2020)

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