Sunday, February 03, 2019


छि: -त्थू - धिक् ... लानत है! इन चेहरों को पहचानिये! ये फ़ासिस्ट बर्बरों और हत्यारों के दरबार में राग दरबारी सुनाने वालों के चेहरे हैं। जुगुप्सा और घृणा पैदा करने वाली इनकी हँसी हत्यारों की हँसी से कम नहीं है। इनमें जो पुराने क्रांतिकारी जनकवि हैं, वे तो लम्बे समय से बिहार में फ़ासिस्टों और उनके सहयोगी पतित समाजवादियों की सरकार की गोद में बैठकर सोने की कटोरिया में दूध-भात खा रहे हैं। और उधर उन नारी-विमर्शकार, नारीवादी कवि महोदया को तो देखिये! उनसे पूछिये कि बिहार में फ़ासिस्टों की सरकार और आर.एस.एस. के अघोषित मुखपत्र 'दैनिक जागरण' द्वारा आयोजित लिट् फे़स्ट में भाग लेते हुए क्या मुजफ्फरपुर की बच्चियों की या गुजरात 2002 में सामूहिक बलात्कार और हत्या की शिकार हुई सैकड़ों औरतों की याद आयी, स्त्रियों की आज़ादी के बारे में संघियों के विचार याद आये, 'लव जे़हाद' की याद आयी ? इन सत्ताश्रयी-सेठाश्रयी छद्मवेषी वामपंथियों को 'पटना लिट् फे़स्ट' में हिस्सा लेते हुए क्या रथयात्रा से लेकर अबतक के खून ख़राबे की, मॉब लिंचिंग की, गाय के नाम पर हुई हत्याओं की, दाभोलकर-पानसारे-कलबुर्गी-गौरी लंकेश की हत्याओं की, तमाम बुद्धिजीवियों पर हुए हमलों की, उन्हें दी जाने वाली धमकियों की याद आयी? जब 'पटना लिट् फे़स्ट' के मंच पर यह क्रीड़ा-कल्लोल हो रहा था, तब पुणे पुलिस सु‍प्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए प्रो. आनंद तेलतुम्बड़े को गिरफ़्तार कर रही थी। बेशर्मो ! मंच और मोटे लिफाफे और रसरंजन की ऐय्याशियों के लिए कितना नीचे गिरोगे ? सोने की कटोरी में परोसा गया फ़ासिस्ट सत्ताधारियों का गू खाकर गिलौरियाँ दबाकर महफिलें सजाने में तुम्हें शर्म नहीं आती ? कबतक चुप्पी साधे रहोगे जसम, जलेस, प्रलेस वालो, तुम्हारी अप्रासंगिकता भी संसदीय वामपंथी जड़वामनों की तरह स्वत:सिद्ध होती जा रही है। जलेस के जो लोग PLF की गंद का विरोध कर रहे थे, उन्हें जलेस के पदाधिकारियों को 'पटना लिट् फे़स्ट' के मंच पर देखकर कैसा लग रहा होगा? अब भी बोलो भाई, चुप मत रहो। और दिल्ली के सम्भ्रान्त-शालीन-कुलीन-वरिष्ठ-गरिष्ठ वाम जनवादी कवि-लेखक गण ! कबतक मुँह में दही जमाये रहेंगे? साम्प्रदायिक फासीवादी बर्बरता के अगर सच्चे विरोधी हैं तो हिटलर के वंशज फ़ासिस्ट बर्बरों के दस्ताने चढ़े खूनी हाथों को थाम्हकर सिर से लगाने वालों के खिलाफ़ खुलकर बोलते क्यों नहीं ? पहले भी एक आलोचक महोदय दी.द.उ. के एकात्म मानववाद की प्रशंसा पर लेख लिखकर जसम में बने रहे।
मैंने PLF जयपुर के आयोजक प्रलेस द्वारा धुर-प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक सं‍स्‍ था काव्या और उसके अनिवासी भारतीय मालिक परीक्षित के साथ पर्दे के पीछे साझेदारी करके बीज वक्तव्य और सत्र बेचने तथा फासिस्टों के चम्मच मकरंद परांजपे को आमंत्रित करने पर सवाल उठाया तो पुरातन पापी परम पतित पाण्डे को इतना चुभ गया कि वह कई दिन से मेरे ऊपर और मेरे राजनीतिक-सामाजिक समूह के ऊपर गालियों और कुत्सा प्रचार की बारिश करता रहा। दिल्ली के साहित्यिक शरीफ़ज़ादे चुप्पी साधे रहते हैं ऐसे मसलों पर। लेकिन पंड़वा तो ऐसा कई बार कर चुका है। सुन पंड़वा ! मैं 'पटना लिट् फेस्ट' और PLF - प्रसंग जैसी गन्दगियों पर, सत्ताश्रित-सेठाश्रित छद्म वामपंथी महानुभावों की कारनामों पर और वाम-जनवादी साहि‍त्य के तमाम कायर-कुटिल-लम्पट-कैरियरवादी-दारूकुट्टे घुसपैठियों की सरगर्मियों के खिलाफ़ लगातार लिखती रहूँगी। कोई प्रतिबद्ध व्यक्ति कुत्सा-प्रचारी कुत्तों के भौंकने और रंगे सियारों के 'हुँआ-हुँआ' करने से डरकर अगर चुप्पी साध ले, तो उसकी प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में आ जायेगी।
अंत में, ईमानदार और शिष्ट प्रतिबद्ध साथी मुझे क्षमा करें! फ़ासि‍स्ट बर्बरों और भ्रष्ट जालिम सत्ताधारियों के महलों के दरवाज़े पर नौबत-शहनाई-नक्कारा बजाने वाले और पर्दे के पीछे फर्शी सलाम ठोंककर इनाम-इक़राम बटोरने वालों के लिए इस कायरता और दुनियादारी भरे माहौल मे ऐसी ही भाषा की ज़रूरत है।

(2फरवरी, 2019)

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