Monday, October 01, 2018

जगमग ऐश्वर्य-द्वीपों पर असुरक्षा, आतंक और अकेलापन


('रविवार डाइजेस्ट' के सितम्बर '18 अंक में प्रकाशित)

बहुत पहले एक मित्र ने लुगदी साहित्य की श्रेणी में आने वाले किसी लोकप्रिय अमेरिकी उपन्‍यास में वर्णित एक अर्थगर्भित प्रसंग सुनाया था। उसमें एक अकेला पूँजीपति सैकड़ों कमरों वाले अपने आलीशान विला में अपनी कई पत्नियों, रखैलों, जायज़-नाजायज़ सन्‍तानों और सैकड़ों सहायकों-नौकरों के साथ रहता है। उसे बस एक ही वहम दिन-रात सताता रहता था कि उसे किसी दिन महल के भीतर का ही कोई आदमी तकिये में उसका मुँह धँसाकर पीठ में छुरा घोंपकर मार देगा। अपनी सुरक्षा के लिए वह पूरा निगरानी-तंत्र बनाता है, निगरानी करने वालों की भी निगरानी की जाती है, पूरे विला के कोने-कोने में सी.सी.टी.वी. कैमरे और आवाज़ टेप करने वाले यंत्र लगाये जाते हैं। इन सबके बावज़ूद वह पूँजीपति एक सुबह वैसे ही मरा पाया जाता है, जैसा उसे वहम होता था। किसी ने उसका मुँह तकिये में धँसाकर पीठ में चाकू उतार दिया था। पर इस रहस्‍यमय मौत से भी यंत्रणादायी तो उसके लिए यह बात थी कि वह रोज़ अपने अकेलेपन, सन्‍देह और मृत्‍युभय में जीता हुआ कई-कई मौतें मरता रहा था।
कहानी से अलग अब ज़रा एक दिलचस्‍प वास्‍तविक घटना का चर्चा किया जाये। डगलस रुश्कॉफ़ अमेरिका के एक जाने-माने मीडिया सिद्धान्‍तकार और लेखक हैं। उन्होंने एक वेबसाइट (मीडियम.कॉम) पर एक टिप्पणी लिखी है:
'सर्वाइवल ऑफ़ द रिचेस्ट: द वेल्दी आर प्लॉटिंग टु लीव अस बिहाइंड'। इस टिप्‍पणी में उन्होंने अपने एक बड़े ही दिलचस्प अनुभव का विवरण दिया है। रुश्कॉफ़ को एक सुपर डीलक्‍स प्राइवेट रिज़ॉर्ट में 'की-नोट स्‍पीच' देने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्‍होंने अनुमान लगाया कि शायद उन्‍हें सौ के आसपास इनवेस्‍टमेण्‍ट बैंकरों को संबोधित करना होगा क्‍योंकि उन्‍हें इसके लिए जो फ़ीस मिल रही थी वह उनकी साल भर की प्रोफ़ेसर की तनख्‍वाह की आधी थी। व्याख्यान का विषय था: 'तकनोलॉजी का भविष्य'।
रिज़ॉर्ट में पहुँचने पर रुश्‍कॉफ़ को किसी सभागार के मंच पर ले जाने की जगह एक छोटे कक्ष में ले जाया गया जहाँ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द अमेरिका के समृद्धतम लोगों की कतार में शामिल पाँच लोग बैठे हुए थे। ये सभी 'हेज फ़ण्‍ड' की दुनिया के सर्वोच्‍च खिला‍ड़ि‍यों में गिने जाते थे। बातचीत की शुरुआत कुछ सामान्‍य प्रश्‍नों से हुई, जैसेकि, ''इथीरियम या बिटक्‍वायन?'' या, ''क्‍या क्‍वाण्‍टम कम्‍प्‍यूटिंग एक वास्‍तविक चीज़ है?'' लेकिन जल्‍दी ही सभी भागीदार अपनी वास्‍तविक चिन्‍ता‍ और सरोकार के केन्‍द्र बिन्‍दु पर आ गये। उन सभी की चिन्‍ताएँ किसी प्राकृतिक या सामाजिक महाआपदा की स्थिति में बचाव के उपायों से जुड़ी हुई थीं। वे जानना चाहते थे कि तकनोलॉजी इसमें उनकी क्‍या मदद कर सकती है! जैसे: किसी पर्यावरणीय महाविनाश की स्थिति में न्‍यूज़ीलैण्‍ड अधिक सुरक्षित होगा या अलास्‍का? क्‍या रे कुर्जवेल वाकई अपनी चेतना को सुपर-कम्‍प्‍यूटरों पर अपलोड करने में सफल होंगे और क्‍या सचमुच गूगल उनके दिमाग़ के लिए कोई आवास बना रहा है? क्‍या उनकी चेतना संक्रमण करती हुई जीवित बनी रहेगी या फिर वह मर जायेगी और फिर एक सम्‍पूर्ण नयी चेतना के रूप में उसका पुनर्जन्‍म होगा? और आखिर में एक 'ब्रोकरेज हाउस' के सी.ई.ओ. ने विस्‍तार से बताया कि ''आपदा'' के आने के बाद के हालात में सुरक्षा के लिए उसने एक भूमिगत बंकर सिस्‍टम बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया है। लेकिन उसकी केन्‍द्रीय चिन्‍ता का विषय यह था कि वह अपने सुरक्षा गार्डों की फौज पर अपना सम्‍पूर्ण नियन्‍त्रण कैसे रख पायेगा? बैठक में शामिल लोग जिस ''आपदा'' के आने से आशंकित थे, उसमें पर्यावरणीय ध्‍वंस, नाभिकीय विस्‍फोट और किसी दुर्निवार वायरस के हमले से लेकर सामाजिक अशान्ति और विस्‍फोट तक शामिल थे। ये लोग जानते थे कि क्रुद्ध भीड़ से उनके आवासों की हिफ़ाज़त के लिए सशस्‍त्र गार्डों की ज़रूरत होगी। लेकिन वे अपने गार्डों को भुगतान कैसे करेंगे, अगर मुद्रा की कोई कीमत ही नहीं रह जायेगी! उन महाधनपतियों का विचार था कि गार्डों के जीवन की गारण्‍टी के बदले उन्‍हें विशेष अनुशासनिक पट्टा पहनाया जा सकेगा, या फिर उनकी खाद्य-आपूर्ति पर नियंत्रण के लिए विशेष 'कॉम्बिनेशन लॉक्‍स' का इस्‍तेमाल भी किया जा सकता है, या फिर गार्डों और कामगारों का सारा काम रोबोटों से लिया जा सकता है — बशर्ते यह तकनोलॉजी समय रहते विकसित कर ली जाये।
जाहिर है कि समृद्धि के शिखर बैठी हुई परजीवियों की जमात सम्‍भावित सामाजिक-प्राकृतिक संकटों का पूर्वानुमान लगाते हुए इनसे समूची मानवता को निजात दिलाने के बारे में नहीं सोचती, बल्कि एक जंगली जानवर की तरह सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचती है। 'सर्वाइवल ऑफ़ द फ़ि‍टेस्‍ट' की तर्ज़ पर 'सर्वाइवल ऑफ़ द रिचेस्‍ट' -- क्‍योंकि पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में 'रिचेस्‍ट' ही 'फ़ि‍टेस्‍ट' होता है। सिर्फ इस बूते पर वह 'फ़ि‍टेस्‍ट' होता है क्‍योंकि उत्‍पादन के साधनों पर उसका निजी स्‍वामित्‍व होता है। वह कुछ भी पैदा नहीं करता, पर निजी स्‍वामित्‍व के बूते आम लोगों की (मानसिक और शारीरिक) श्रम शक्ति ख़रीदकर उन्‍हें उजरती गुलाम (वेज स्‍लेव) बनाने की ताक़त उसके हाथों में होती है। इसी बुनियादी ताक़त के चलते विनिमय का तंत्र भी उसी के नियंत्रण में होता है, राज्‍यसत्‍ता के 'कण्‍ट्रोलिंग टॉवर' में उसके प्रबंधक बैठते हैं और सरकारें उसकी 'मैनेजिंग कमेटी' होती हैं। तकनोलॉजी यदि पूरे मानव-समाज के हित में इस्‍तेमाल हो, तो वह वरदान है। लेकिन पूँजीवाद की इस चरम पतनशील ऐतिहासिक अवस्‍था तक पहुँचकर यह वरदान अभिशाप बन चुका है। तकनोलॉजी का इस्‍तेमाल सिर्फ इसलिए होता है कि सस्‍ती से सस्‍ती दरों पर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ी जा सके। रोज़मर्रा के जीवन में तकनोलॉजी-प्रदत्‍त सुविधाएँ सिर्फ ऊपर की 15 प्रतिशत आबादी के लिए है। शेष 85 फ़ीसदी आबादी सिर्फ क़ीमत चुकाती है और सिर्फ छूटन-छाड़न पाती है — पहने जा चुके जीन्‍स, जूते और सस्‍ते मोबाइल वगैरह...। जो पर्यावरणीय विनाश की स्थिति पैदा हो रही है, उसके लिए भी मुनाफ़े की वह अंधी हवस ही ज़ि‍म्‍मेदार है जो प्रकृति को अंधाधुंध निचोड़ती है। यदि मुनाफे की जगह सामाजिक उपयोगिता को केन्‍द्र में रखकर उत्‍पादन हो तो प्रकृति से इंसान जो लेगा, उसी तकनोलॉजी के बूते उसकी भरपाई भी करेगा।
समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान की दुनिया में सत्‍ता से नाभिनालबद्ध बौद्धिकों की जमात एक उत्‍तर-मानवीय यूटोपिया रच रही है। इस यूटोपिया में मानव-समाज की परस्‍पर निर्भरता, सामाजिकता, मानवीय सारतत्‍व आदि चीज़ों का कोई स्‍थान नहीं है। तकनोलॉजी के नये दार्शनिकों के परामानवीय 'विजन' ने यथार्थ को आँकड़ों में तबदील कर दिया है और इंसान को ''इन्‍फॉर्मेशन प्रॉसेसिंग ऑब्‍जेक्‍ट्स'' में 'रिड्यूस' कर दिया है। इस नयी वैचारिकी ने मानव विकास की गतिकी को वीडियो गेम सरीखा बना दिया है जहाँ समूह अपना इतिहास स्‍वयं नहीं बनाता, बल्कि उसकी नियति का निर्धारण कुछ 'सुपर हीरो' करते हैं। मस्‍क, बेजोस, थियेल... या ज़ुकरबर्ग? — ऐसा लगता है कि जो खरबपति डिजिटल अर्थव्‍यवस्‍था के शीर्ष पर आसीन होने के प्रतिस्‍पर्द्धी हैं और जिनकी आर्थिक शक्ति पर हो रही भूमण्‍डलीय सट्टेबाज़ी अन्‍तरराष्‍ट्रीय 'बिजनेस लैण्‍डस्‍केप' का निर्माण कर रही है, वही समूची मनुष्‍यता के भविष्‍य-निर्माता और भाग्‍य-विधाता हैं! इस मिथ्‍याभास का निर्माण करने में पूँजी और सत्‍ता से नाभिनालबद्ध अकादमिक, बौद्धिक और मीडिया तंत्र की एक अहम भूमिका है। 'रेयर अर्थ मेटल्‍स' का उत्‍खनन और अत्‍यधिक ज़हरीले डिजिटल कचरे का निस्‍तारण हर वर्ष करोड़ों लोगों को उजाड़ रहा है और लाखों की जान ले रहा है। अ‍त्‍यधिक 'ऑटोमेशन' के बावजूद दुनिया की अधिकांश मज़दूर आबादी ज्‍यादा से ज्‍यादा असुरक्षित स्थितियों में हाड़तोड़ मेहनत के काम कर रही है। कम्‍प्‍यूटर और स्‍मार्टफ़ोन का निर्माण करने वाली अधिकांश कम्‍पनियाँ ग़ुलामी सदृश मज़दूरी के वैश्विक नेटवर्कों का इस्‍तेमाल करती हैं। इन सबके अतिरिक्‍त इतनी भौतिक प्रगति के बावजूद, दुनिया में बढ़ती भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्‍यु, वेश्‍यावृत्ति, चिकित्‍सा और शिक्षा जैसी बुनियादी चीज़ों के अभाव, बेघरों की समस्‍या, विस्‍थापन की समस्‍या आदि-आदि के आँकड़ों पर भी यदि एक सरसरी निगाह डाली जाये तो यह बात साफ़ हो जाती है कि यदि इतनी भौतिक प्रगति के बावजूद ये विभीषिकाएँ-आपदाएँ मौजूद हैं तो इस दुनिया की सामाजिक आर्थिक संरचनाओं में आमूलगामी बदलाव की ज़रूरत है। और यह भी तय है कि जब कोई ऐतिहासिक ज़रूरत ज्‍वलंत बन जाती है तो उसे अंजाम देने वाले अभिकर्ता भी जल्‍दी ही इतिहास के रंगमंच पर उपस्थित हो जाते हैं।
बहरहाल, हम अपने मूल विषय पर फिर वापस लौटते हैं। डगलस रुश्‍कॉफ़ ने तो अमेरिका के उन लोगों के साथ संवाद-सम्‍पर्क के अपने अनुभवों को बयान किया है जो समृद्धि के शिखर पर बैठे हुए हैं। अरबपतियों-खरबपतियों को छोड़ भी दें। आप अपने आस-पास के उन लोगों के जीवन को ग़ौर से देखिये, जो आर्थिक दृष्टि से सुरक्षित, सुखी, सम्‍पन्‍न जीवन बिताते हैं। दरअसल वे बुरी तरह से असुरक्षा, अलगाव, भय और अकेलेपन के शिकार लोग हैं। ग़रीबों से वे नफ़रत करते हैं, उन पर संदेह करते हैं और भयभीत रहते हैं। अपने बाल-बच्‍चों तक पर न वे भरोसा करते हैं, न वे उनपर भरोसा करते हैं। सारा रिश्‍ता आने-पाई का होता है। ऐसे में, आप प्राय: देखेंगे कि सामूहिक जीवन और सामाजिक सरोकारों से कटे हुए समृद्ध लोग प्राय: अदृश्‍य भय, असुरक्षा और अकेलेपन की मानसिकता में जीते हुए हैं। आज के आधुनिक समय में धर्म भी उन्‍हें बहुत अधिक राहत नहीं दे पाता और वे रोज़, तिल-तिल करके मरते रहते हैं। जवानी में तो पार्टियों, शराब और सेक्‍स से फ़ौरी तौर पर कुछ राहत मिल भी जाती है, लेकिन बुढ़ापा तो एकदम असहनीय हो जाता है।
बुर्जु़आ समाज में आर्थिक दृष्टि से सुरक्षित लोगों की दुनिया आत्मिक दृष्टि से अत्‍यंत कंगाल, असुरक्षित और भयावह होती है। वहाँ मानवीय सारतत्‍व का लेशमात्र नहीं होता। पूँजी की घोड़ी की प्रकृति ही ऐसी है कि जो लोग उसकी सवारी करते हैं, कुछ दिनों बाद पूँजी की घोड़ी ही उनकी सवारी करने लगती है। वे एक ऐसी दौड़ में शामिल होते हैं, जिससे बाहर निकलना उनके बस में नहीं होता और वे अपनी मनुष्‍यता खोते जाने को अभिशप्‍त होते हैं।
सामाजिक क्रांतियाँ केवल शोषितों-उत्‍पीड़ि‍तों को ही मुक्‍त नहीं करती, बल्कि शोषकों-उत्‍पीड़कों को भी अमानवीयता से मुक्‍त करती हैं और उन्‍हें मानवीय बनाती हैं। वे शोषकों को मनुष्‍य बनाकर मुक्‍त करती हैं, उन्‍हें उनके अदृश्‍य आतंकों और अकेलेपन से छुटकारा दिलाकर सच्‍चे अर्थों में जीना सिखाती हैं।

— कविता कृष्णपल्लवी

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