Thursday, August 09, 2018

महाशयजी का चूतड़



हालात आपसे जो-जो न करायें | जैसा कि आप सभी जानते हैं, मैं आदतन बहुत सभ्य-सुशील हूँ | गंदी बातें करना मेरी फ़ितरत नहीं | लेकिन समय ही अगर बहुत गन्दा हो, और सच की तरफ़, ख़ास तौर पर परदे के पीछे की सच्चाइयों की तरफ़, लोगों का ध्यान खींचना आप अपना बहुत ज़रूरी फ़र्ज़ मानते हों तो आपको न चाहते हुए भी कुछ गन्दी बातें करनी ही पड़ती हैं | वरना मुझे क्या पड़ी थी कि सम्मानित महाशयजी के चूतड़ के हैरतअंगेज़ कारनामों के बारे में यूँ  सरेआम बातें करूँ ? वैसे समय भी इतना नीचे तो गिर ही गया है कि गोगोल के ज़माने में नाक जो करिश्मे किया करती थी, हमलोगों के ज़माने में चूतड़ वह सब करने लगा है | तो अब चारा ही क्या बचा है सिवाय इसके कि मैं महाशयजी के चूतड़ की रोमांच-कथा आपको सुना ही डालूँ |

भारत में एक जाने-माने बुद्धिजीवी हुआ करते थे -- महाशयजी | इतिहास में उनकी बौद्धिक सरगर्मियों के उत्कर्ष का काल यही कोई 1970 के दशक से 2010 के दशक के आसपास का बताया जाता है | छात्र-जीवन में उन्हें बात-बात में “देखिये महाशय" बोलने की आदत थी | इसलिय कालांतर में लोग उन्हें महाशयजी नाम से ही जानने लगे | फिर उन्होंने बौद्धिकता की दुनिया में जब प्रवेश किया, तो ‘महाशयजी' नामसे ही लिखने भी लगे | जल्दी ही साहित्य,इतिहास और मानविकी के विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने कई-कई पुस्तकें लिख डालीं | देश के दर्ज़नों विश्वविद्यालयों में वह प्रोफ़ेसर रहे और कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं था जहाँ के शिक्षकों और छात्रों ने उनके व्याख्यानों का ज्ञानामृत-पान न किया हो | केन्द्र और राज्यों का कला-साहित्य-संस्कृति का एक भी ऐसा प्रतिष्ठान नहीं बचा था, जिससे महाशयजी कभी न कभी जुड़े न रहे हों | संस्कृति के सभी पुरस्कार उन्हें मिल चुके थे, दो पद्म पुरस्कार भी मिल चुके थे और तीसरा वाला अब कभी भी मिल सकता था | शायद ही कोई ऐसा राजनेता हो, जिसके साथ महाशयजी कभी न कभी मंचासीन न हुए हों | हिन्दी की प्रगति के लिए दुनिया के पाँचो महाद्वीपों के अधिकांश देशों की वह यात्रा कर चुके थे और यहाँ तक कि थोड़े-थोड़े दिन उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर भी बिता आये थे | विवादों और दलबंदियों से वह इतना ऊपर उठ चुके थे कि ’फिक्की'  के आयोजनों, सभी सरकारी आयोजनों, सभी राजनीतिक पार्टियों के आयोजनों और वैश्य सभा-क्षत्रिय सभा टाइप संस्थाओं के आयोजनों से लेकर सभी जनवादी-प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों के आयोजनों में समान भाव से जाया करते थे | कहीं उन्हें ‘मि.महाशय', तो कहीं ‘परम आदरणीय महाशयजी' कहकर संबोधित किया जाता था और कहीं ‘कामरेड महाशय को लाल सलाम' की तुमुल ध्वनि भी दिग-दिगंत में गुंजायमान होती थी | मित्रों का मान इतना रखते थे कि उनके आग्रह पर एक कुख्यात अपराधी राजनेता की आत्मकथा का विमोचन भूरी-भूरी प्रशंसाओं के साथ कर आये थे और एक मज़दूर नेता के हत्यारे पूँजीपति घराने से पुरस्कार भी ले लिया था | कृपालु और उदार इतने थे कि हर वर्ष दो-तीन युवा कवियों-लेखकों को ‘क्षितिज का तारा', ‘भविष्य की उम्मीद', ‘अदभुत', ‘अद्वितीय’ आदि-आदि घोषित कर दिया करते थे | सरल-हृदयऔर ज़मीनी इतने थे कि कालोनी के लोग उन्हें माता की चौकी और जगराता में भी खींच ले जाते थे | किसी मोहल्ले के ‘हिन्दू हृदय सम्राट' के जन्मदिन पर आयोजित कवि-सम्मलेन में भी वह मुख्य अतिथि थे और शाल-श्रीफल-ताम्बूल आदि पाकर सम्मानित हुए थे |

तो ऐसे थे महाशयजी और ऐसा था उनका प्रताप ! पर जगत और जीवन की भी अपनी गति होती है | सिरों पर अग्नि-वर्षा करता प्रचंड मार्तण्ड भी धीरे-धीरे मंद पड़ता हुआ अस्ताचल-गामी होने लगता है | उम्र ढलान पर थी | महाशयजी को अवकाश प्राप्त किये भी अच्छा-खासा समय हो गया था | संस्कृति और विचारों की दुनिया में ढेरों ऐसे लोग उभर रहे थे, या उभर चुके थे जो महाशयजी के जूते और ओवरकोट पहनकर उनका स्थान ले लेना चाहते थे | विभिन्न संस्थाओं के मानद पदों से महाशयजी का नाम हटता जा रहा था | आयोजनों के मुख्य आतिथ्य और अध्यक्षता के निमंत्रणों की संख्या कम होती जा रही थी | जो शख्स जीवन भर दुनिया की भाँति-भाँति की कुर्सियों पर बैठा था, उसका चूतड़ अब दिन-दिन भर घर की अलग-अलग कुर्सियों पर अनमना-सा पड़ा रहता था |

महाशयजी को कभी-कभी लगता था कि उनका चूतड़ हालात से तंग आकर बग़ावत करने पर आमादा है | एक बार एक मित्र के साथ वह फर्नीचर की एक बड़ी दूकान में गए | वहाँ एक भव्य कुर्सी नज़र आते ही उनके चूतड़ ने आव देखा न ताव, फ़ौरन उससे जाकर चिपक गया | फिर तो बहुत देर तक वह इस से उस कुर्सी पर उछलता-कूदता रहा और महाशयजी उसके पीछे भागते रहे | दोस्त को तो समझ ही न आया कि माजरा क्या है ! कई बार ऐसा हुआ कि किसी आयोजन में महाशयजी जब मंचासीन हो गए तो चूतड़ कुर्सी से ऐसा चिपका कि छोड़ने का नाम ही न ले | चूतड़ की ऐसी हिमाक़त और ऐसे बगावती तेवरों से महाशयजी काफी परेशान रहने लगे |
ऐसा नहीं था कि महाशयजी का चूतड़ हमेशा से इतना उद्दंड और प्रचंड कुर्सी-प्रेमी रहा हो | किसी ज़माने में वह शर्मीला, झेंपू-दब्बू सा चूतड़ हुआ करता था | कुर्सियों से उसका यह उत्कट प्रेम धीरे-धीरे, निरंतर सघन साहचर्य से पैदा हुआ था | जिस कुर्सी पर भी वह बैठता, अमर-बेल की तरह उससे ख्याति और रुतबे का रस सोखता रहता था और मोटाता जाता था | किसी ज़माने का वह दुबला-पतला, शरीफ चूतड़ पहले ओखल जैसा, और फिर विशाल हवन-कुण्ड जैसा बन गया | बच्चे भले ही उसे देखकर आपस में फुसफुसाते थे कि यह ज़रूर हंडा भर हगता होगा, लेकिन भद्र-सुसंस्कृत नागरिक उसे देखते ही श्रद्धा से विह्वल हो जाते थे, मन में भी वे उसे चूतड़ कहने की जगह ‘पृथुल पृष्ठभाग’ या ‘शरीफ़ तशरीफ़' ही कहा करते थे |

महाशयजी जब युवा थे तो उनका युवा चूतड़ भी इतना अनुभवी नहीं था | कुर्सी का चस्का अभी लग ही रहा था | कुर्सी की तलाश में वह आन्दोलनों और जन-सभाओं में भी पहुँच जाता था | एक बार वह एक ऐसी जन-सभा में पहुँच गया जहाँ मंच पर कुर्सी ही नहीं थी | ऊपर से तुर्रा यह कि थोड़ी ही देर बाद वहाँ भगदड़ मची और पुलिसिया डंडे ने महाशयजी के चूतड़ को भी ऐसा लाल किया कि वह कई दिनों तक लाल रहा | आज जैसा अनुभव होता तो वह उसे भी भुना लेता और घोषित कर देता कि लाल ही उसका रंग है और यह कि वह एक इंक़लाबी चूतड़ है | बहरहाल उस दिन की घटना से महाशयजी के चूतड़ ने इतना तो सबक लिया ही कि अब वह उन्हीं कुर्सियों से चिपकने के लिए लपकता था जो अकादमिक संस्थानों, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों, सांस्कृतिक संगठनों के वैचारिक आयोजनों, गोष्ठियों-संगोष्ठियों और सरकारी आयोजनों को सुशोभित करते थे | ऐसे दिव्य-भव्य चूतड़ के प्रति महाशयजी की पत्नी भी काफ़ी श्रद्धा रखती थीं और अक्षत-फूल-धूप-दीप-नैवेद्य लिए पूजा को तत्पर रहती थीं | अब नौजवानी के उन दिनों को महाशय-पत्नी लगभग भूल चुकी थीं, जब इसी चूतड़ पर उन्होंने तीन-चार बार प्रचंड पाद-प्रहार किये थे | ये अवसर तब आये थे जब उन्होंने महाशयजी को अपनी किन्हीं शिष्याओं को कभी सोफे पर, तो कभी बेड पर कविता का शिल्प या आलोचना की पद्धति सिखलाते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था | बहरहाल, इसके बाद महाशयजी भी सतर्क हो गए थे, ज्यादातर अकादमिक कार्य विभाग में ही निपटाने लगे थे और पत्नी का विश्वास जीतने में सफल हो गए थे | इसतरह उनके चूतड़ की प्रतिष्ठा न सिर्फ बहाल हुई, बल्कि उसकी दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति का रास्ता भी खुल गया | अब तो पूरी दुनिया जानती थी कि कितने सुसंस्कृत बुद्धिजीवी का कितना सुसंस्कृत यह चूतड़ था जिसे अपने ऊपर विराजमान करवाकर कितनी सुसंस्कृत कुर्सियाँ स्वयं को धन्यभाग्य समझती थीं |

बहरहाल, असली कहानी पर आने से पहले पृष्ठभूमि बताने में ही मैंने इतना समय लगा दिया | किस्सागो अगर अनाड़ी हो तो ऐसा ही होता है |

हाँ तो मैं बता रही थी कि वृद्धावस्था की ढलान पर लुढ़कते महाशयजी के चूतड़ को भव्य सभागारों के दिव्य आयोजनों की अतिविशिष्ट और विशिष्ट कुर्सियों से जा चिपकने के अवसर लगातार कम होते जा रहे थे | चूतड़ की बेचैनी बढ़ती जा रही थी और अब महाशयजी को भी उसके धीरे-धीरे बगावती होते जा रहे तेवरों से किसी अनिष्ट की आशंका सताने लगी थी | और फिर, आखिरकार, वह अघट घट ही गया |
एक सुबह उठने के बाद से ही महाशयजी बेचैन-हैरान-परेशान इधर से उधर चक्कर काट रहे थे | पत्नी के पूछने पर भी बता नहीं पा रहे थे कि बात क्या है ! दस बजने को आ रहे थे, पर वह न नित्य-क्रिया से निवृत्त हो रहे थे, न ही नाश्ते की टेबल पर आ रहे थे | आखिरकार पत्नी के काफी पीछे पड़ने पर उन्हें इस ‘विचित्र किन्तु सत्य' का उद्घाटन करना ही पड़ा कि आज सुबह बाथरूम जाने पर उन्होंने पाया कि उनका चूतड़ गायब है | श्रीमतीजी तो बेहोश होते-होते बचीं | फिर महाशयजी ने पिछले कुछ दिनों के दौरान अपने चूतड़ के बगावती तेवरों और बढ़ते खुराफ़ातों के बारे में भी बताया | श्रीमतीजी ने दिमाग लगाया और पूरे घर में पड़ी हर कुर्सी, हर आराम-कुर्सी, हर सोफे को देख आयीं कि कमबख्त कुर्सी-प्रेमी चूतड़ कहीं उनमें से किसी पर चिपका तो नहीं बैठा है ! पर वह कहीं नहीं मिला |

मामला बेहद संगीन था | दिक्क़त यह थी कि ऐसे नाज़ुक मामले में किसी रिश्तेदार या दोस्त या शिष्य की मदद भी नहीं ली जा सकती थी |सैकड़ों पर महाशयजी के अहसान थे, लेकिन अगर भविष्य में भी फायदे की उम्मीद न हो, तो भला कौन किसी के काम आता है ! और फिर यह तो ऐसा मामला था कि किसी का क्या भरोसा ! कोई भी लिहाड़ी ले सकता था, गली-कूचे में शोर मचाकर तमाशा बना सकता था और कोई पुरानी खुन्नस निकाल सकता था | ऐसे भी लोग थे जो ऊपर से हवाई हमदर्दी दिखाते और अन्दर ही अन्दर उनके जलन भरे दिल को खूब शीतलता मिलती | अंततोगत्वा, इस पूरे मामले को एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी को सौंपने का पति-पत्नी ने निर्णय लिया | सारा काम एकदम गुप्त तरीके से हुआ | नौकरों तक को कानों-कान भनक नहीं लगने दी गयी |डिटेक्टिव एजेंसी वाले से महाशयजी की पत्नी ने कहा कि वह पैसे की कोई चिंता न करे और पूरे शहर में अपने जासूसों का जाल फैला दे और किसी भी कीमत पर महाशयजी के चूतड़ को जल्दी से जल्दी बरामद करे |
फिर ऐसा ही हुआ | जासूस पूरी राजधानी में फैल गए | चन्द घंटों बाद ही डिटेक्टिव एजेंसी के डायरेक्टर के पास ताबड़तोड़ एजेंटों के फोन आने लगे और व्हाट्सएप से तस्वीरें भी आने लगीं | महाशयजी के चूतड़ को एकदम महाशयजी की तरह सजा-बजा एक राजनीतिक पार्टी के बौद्धिक सेल की मीटिंग से निकलते हुए देखा गया जहाँ यह तय होने वाला था कि इसबार साहित्य-संस्कृति के कोटे से किसको राज्यसभा में भेजा जाये | कुछ घंटे बाद दूसरे खबरी ने उसे ‘इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर’ में किसी आयोजन की अध्यक्षता करने के बाद वहाँ से निकलकर ‘इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र' की ओर जाते देखा गया | पल-पल की सूचना महाशयजी तक पहुँच रही थी लेकिन समस्या यह थी कि चूतड़ इतना गतिमान था कि महाशयजी उसे पकड़ने के लिए कहीं जाने को निकलने को होते ही थे, या रास्ते में ही होते थे, तबतक उनके चूतड़ के कहीं और उपस्थित होने की खबर आ जाती थी |  कभी मंडी हाउस, कभी साहित्य अकादमी, कभी ललित कला केंद्र, कभी जे.एन.यू., कभी डी.यू., ... फिर आख़िरी बार वह राष्ट्रपति भवन में आयोजित किसी समारोह में देखा गया | फिर उसे इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे की ओर एक तेज़-रफ़्तार बड़ी-सी कार में जाते हुए देखा गया |

अप्रत्याशित संकट के शुरुआती झटके से उबरने के बाद अब महाशयजी का दिमाग थोड़ा-थोड़ा काम करने लगा था | डिटेक्टिव एजेंसी को उन्होंने राय दी कि वह अपने एजेंटों को देश के सभी राज्यों की राजधानियों के सरकारी सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रतिष्ठानों, बड़े औद्योगिक घरानों के साहित्यिक प्रतिष्ठानों, संस्कृति मंत्रालय आदि-आदि के आस-पास फैला दे और पैसे की कोई चिंता न करे | एक बार जब लोकेशन पता चल जाए तो चूतड़ को टाँगकर, घसीटकर,खींचकर उठा लाने के लिए ठेके पर बाउंसरों की टीमें तैनात करने की इजाज़त भी महाशयजी ने  डिटेक्टिव एजेंसी को दे दी | खबर मिली कि किसी एजेंट ने महाशयजी के चूतड़ को शिमला में ‘इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज़' के सुरम्य-मनोरम प्रांगण रात को डिनर के बाद चहलकदमी करते देखा | पर बाउंसरों की टीम जब उसे उठाने के लिए गयी तो वहाँ कोई नहीं मिली | फिर उसकी एक झलक भोपाल में भारत भवन में देखी गयी | लेकिन वहाँ भी उसे पकड़ा नहीं जा सका | एक हफ़्ते बाद महाशयजी ने खुद अखबार में एक तस्वीर सहित खबर देखी जिसमें उनका चूतड़ उन्हीं की तरह सजा-बजा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मुक्तिबोध पर आयोजित एक संगोष्ठी में अति-प्रभावशाली भाषण देने के बाद मुख्यमंत्री और राज्यपाल से हाथ मिला रहा था | इसके बाद पता चला कि महाशयजी का चूतड़ ‘बिहार संगीत नाटक अकादमी' का अध्यक्ष मनोनीत हो गया है | उसे पकड़ने वाली टीम जब वहाँ पहुँची तबतक वह अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के लिए ट्रेन पकड़ चुका था | बेचैन महाशयजी अब जासूसों और बाउंसरों की टीम के साथ खुद भी भाग-दौड़ रहे थे और शहर-शहर की ख़ाक छान रहे थे | वर्धा पहुँचने पर पता चला कि महाशयजी का चूतड़ तो इनदिनों देहरादून में है और उसने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को अपना दत्तक पिता बना लिया है और हिमालय में बड़े बाँध बनाने की सरकारी नीति के पक्ष में जोर-शोर से बयान दे रहा है | पर्यावरण विज्ञान और पारिस्थितिकी के बारे में ‘क ख ग' भी न जानने वाले महाशयजी को आश्चर्य हुआ कि उनका चूतड़ पर्यावरण-विशेषज्ञ कबसे और कैसे हो गया ! बहरहाल, लगातार चुस्त सुरक्षा-व्यवस्था के कारण महाशयजी का चूतड़ देहरादून में तो महाशयजी के हाथ न आ सका | इसी बीच उसके दिल्ली आने की सूचना मिली | महाशयजी की टीम चाक-चौबंद हो गयी, लेकिन चूतड़ उनकी सारी चौकसी को धता बताकर विशेष सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों के अन्तर्गत पोलिश, हंगारी और जर्मन में अनूदित महाशयजी की कई पुस्तकों के लोकार्पण समारोहों में तथा विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने के लिए जर्मनी और पूर्वी यूरोप के देशों की लम्बी यात्रा पर निकल गया |

उधर महाशयजी और उनके चूतड़ के बीच यह आँख-मिचौली का खेल जारी था, इधर देश में अस्थिरता-अशांति-अराजकता लगातार बढ़ती जा रही थी | लोगों ने लम्बे समय तक सब कुछ बर्दाश्त किया | अच्छे-खासे लोग तो लम्बे समय तक हुकूमत करने वालों के बहकावे में भी आते रहे | जोरो-ज़ुल्म से तंग आकर यहाँ-वहाँ जो लोग उठ खड़े हुए, उन्हें कुचल दिया गया | कुछ वर्षों तक यही सब चलता रहा | फिर पूरे देश में लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरने लगे --- मज़दूर, उजड़ते किसान, आम स्त्रियाँ, छात्र, बेरोज़गार युवा -- सभी के सभी | सेना-पुलिस इन सबको दबाने में जी-जान से लग गयी | पर इसबार मामला आसान नहीं था | उथल-पुथल के इसी आलम में महाशयजी का चूतड़ लम्बी विदेश-यात्रा से वापस लौटा | एअरपोर्ट पर ही पता चला कि राजधानी ठप्प है | बस वाले, टैक्सी वाले, ऑटो वाले, मेट्रो का स्टाफ -- सभी हड़ताल पर हैं | बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी वाला मिला जो आठगुनी रकम लेकर महाशयजी के चूतड़ को सरदार पटेल मार्ग स्थित आई.टी.सी. मौर्या पाँच सितारा होटल पहुँचाने को तैयार हुआ | दुर्भाग्य ऐसा कि होटल के एकदम नज़दीक पहुँचने पर कुछ हड़ताली टैक्सी वालों ने उस टैक्सी को देख लिया और दौड़ा लिया | कुछ दूर गाड़ी भगाने के बाद ड्राईवर गाड़ी छोड़कर भाग गया और चारदीवारी फलाँगकर रिज के जंगलों के अँधेरे में खो गया | हड़ताली ड्राइवरों ने टैक्सी का पीछे का दरवाज़ा खोलकर देखा| वहाँ थर-थर काँपता हुआ एक चूतड़ गाड़ी की सीट से चिपका हुआ था | उन्होंने पहले तो उसे देखकर नफ़रत से थूक दिया और फिर हँसते हुए चले गए |

अगले दिन सुबह माहौल थोड़ा शांत देखकर फुटपाथ पर चाय वाले ने अपना खोखा खोला | प्रेस वाला अपनी इस्तरी सुलगाने लगा | एक गुब्बारेवाला भी आकर खड़ा हो गया और गुब्बारों में हाइड्रोजन गैस भरने लगा | कुछ बच्चे आकर भी जामुन के पेड़ की छाँव में कंचे खेलने लगे | कुछ देर में बच्चों का ध्यान लावारिस खड़ी कार की ओर गया जिसका पीछे का दरवाज़ा खुला हुआ था | उत्सुक बच्चों ने पास जाकर जब झाँका तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही | कर की पीछे की सीट से थर-थर काँपता हुआ एक विशालकाय चूतड़ चिपका हुआ था | हिचकते हुए बच्चों ने पहले उसे छुआ, फिर हिचक छोड़ गुदगुदी करने लगे, फिर उन्होंने बहुत ज़ोर लगाकर खींचकर चूतड़ को सीट से अलग किया | वह उन्हें बैलून सरीखा लगा | बच्चों के आग्रह करने पर बैलून वाले ने उसमें गैस भर दी | बच्चे एक धागा बाँधकर महाशयजी के चूतड़ को हवा में उड़ाते हुए सड़क पर भाग चले | लेकिन आपस की छीना-झपटी में धागा हाथ से छूट गया और महाशयजी का चूतड़ ऊपर आसमान में उड़ गया |
वह साल  2032 के नवम्बर की कोई सुबह थी जब राजधानी के नागरिकों ने गैस से भरे महाशयजी के चूतड़ को लुटियन जोन के ऊपर उड़ते हुए देखा था |

(7अगस्‍त,2018)

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