Sunday, August 05, 2018

हिन्दी कवि और कविता पर कुछ “अगंभीर विचार” ( बुरा न मानने के लिए )



हांस आइस्लर ने एक जगह लिखा है कि ब्रेष्ट पारंपरिक संगीत के रूपवाद से बहुत चिढ़ते थे। उनका मानना था कि सिम्फ़नी कंसर्ट और ऑपेरा सिर्फ़ ‘इमोशनल कन्फ्यूजन’ पैदा करते हैं। वह संगीत से ‘रीज़न’ की -- तर्कणा की माँग करते थे।
ब्रेष्ट तो संगीत से ‘रीजन' की माँग करते थे, लेकिन अगर आप हिन्दी कविता से ‘रीजन' की माँग कर दें तो अभिजन कवि समाज नाक पर रुमाल रखकर उछल पड़ेगा। हिन्दी कविता की दुनिया में ‘इमोशनल कन्फ्यूजन' का घटाटोप है। अपने समय और समाज को समझने वाली ऐतिहासिक तर्कणा के दर्शन यहाँ विरल ही होते हैं।
कुछ कवियों की कलम में तो ऐसा जादू है कि वे भारत के पहाड़ों के बारे में जब लिखते हैं तो वे हमें ग्रीस या इटली के पहाड़ लगने लगते हैं, या माच्चू-पिच्चू, या किलिमंजारो। हमारी नदियाँ उनकी कविताओं में आकर लातिन अमेरिका की नदियाँ बन जाती हैं और जंगल अमेजन के वर्षा-वन लगने लगते हैं। ऐसा उनके जादू का ज़ोर है ! वे जब हमारे समाज के आम लोगों के बारे में कभी लिखते हैं, तो चिर-परिचित लोग हमें बेगाने लगने लगते हैं, किसी अन्य महादेश के निवासी, या कभी-कभी तो परग्रहीय प्राणी। वे हमारी एकदम अपनी चीज़ों को जादू के ज़ोर से बेगाना बना देते हैं। और उनकी कविता में इतनी शक्ति होती है कि वह हमें कभी ग्रीक, कभी पोलिश, कभी फ्रेंच, कभी स्पेनिश, कभी हंगारी, तो कभी किसी अन्य स्लाव भाषा की कविता लगती है।
कुछ कवि शब्दों को इतना तराशते हैं कि ताज के शिल्पी भी शर्मा जाते।इतना बारीक़ कातते-बुनते हैं कि ढाका का मलमल बुनने वाले कारीगर भी अपना करघा तोड़ देते। उनके शब्दों, बिम्बों और रूपकों के जादुई  चमक और चमत्कार से आप इसतरह मोहाविष्ट हो जाते हैं कि अंतर्वस्तु के बारे में सोचना ही भूल जाते हैं।
कुछ कवि सामाजिक विद्रोह की दुनिया से व्यक्तिगत विद्रोह की दुनिया में विस्थापित हो गए हैं, या फिर उन्होंने व्यक्तिगत विद्रोह और अराजक ध्वंस-वृत्ति को ही सामाजिक विद्रोह की रणनीति घोषित कर दिया है। ये आज के नए अवांगार्द हैं। ये लोग मंटो से ऊबकर इनदिनों भुवनेश्वर और राजकमल चौधरी की आत्माओं का आवाहन कर रहे हैं, या फिर अज्ञेय के शेखर को नए अवतार में प्रस्तुत कर रहे हैं।
कुछ कवि जीवन में परम संतुष्ट भले हों, पर कविता में अपने को जीवन-जगत से परम असंतुष्ट दिखलाते हैं और लगातार भिनभिन-भुनभुन टाइप कविताएँ लिखते रहते हैं। इनमें से कुछ हमेशा नाराज रहते हैं और कविता में जनता को उसकी मूढ़ता के लिए कोसते हैं, क्रांतिकारी वामपंथियों को कठमुल्लापन और फूटपरस्ती के लिए और क्रांति में देरी करने के लिए कोसते हैं, संसदीय वामपंथियों को यथास्थितिवादी हो जाने के लिए कोसते हैं, आलोचकों को गुटपरस्ती के लिए कोसते हैं और यह कोसना वे उसीतरह करते हैं जैसे दैनंदिन जीवन में वे पत्नी को दाल में नमक कम होने के लिए कोसते हैं, पढ़ाई पर ध्यान न देने के लिए बच्चों को कोसते हैं, उमस और गर्मी के लिए मौसम को कोसते हैं, गन्दगी और जाम के लिए प्रशासन को कोसते हैं और रोज सुबह साफ़ न होने के लिए अपने पेट को कोसते हैं।
कुछ कवि अहर्निश, अनंत-अछोर प्रेम में डूबे रहते हैं। उनके प्रेम की दुनिया में किसी भी किस्म की मानवीय आपदा या सामाजिक-राजनीतिक संकट का प्रवेश नहीं हो पाता। कभी वे रिल्के की तरह, कभी फर्नान्दो पेसोआ की तरह, कभी मंदेलश्ताम की तरह, कभी त्स्वेतायेवा की तरह, कभी अख्मातोवा की तरह, कभी शिम्बोर्स्का की तरह, कभी वास्को पोपा की तरह, कभी बोर्खेस की तरह, तो कभी गैब्रियेला मिस्राल की तरह प्यार करते हैं (नाजिम हिकमत या पाब्लो नेरूदा की तरह इनदिनों वे थोड़ा कम प्यार करते हैं )। प्यार के अतिरिक्त वे मनुष्यता के अमूर्त दुखों और उदासियों के बारे में बातें करते हैं। मूर्त चीज़ों को वे कविता का शत्रु मानते हैं।
कुछ स्त्री-कवि भी हैं जो रीतिकाल और छायावाद से आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता तक निरंतर आवाजाही करती रहती हैं। कभी वे अति-भावुक प्यार में आकुल-व्याकुल दीखती हैं, कभी विरहिणी नायिका बन जाती हैं, कभी ‘लस्ट स्टोरीज़' सुनाने पर आमादा होकर मांसलता और यौनिकता के साहसिक आख्यान रचने लगती हैं, तो कभी जूडिथ बटलर के उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर-मार्क्सवादी नारीवाद से प्रेरित होकर जीवन और कविता में, समाज के पोर-पोर में समाई पुरुष-सत्ता का प्रतिकार, स्थापित ‘सोशल नॉर्म्स’ को तोड़कर और विचलनशील यौन-व्यवहार (‘डेविएन्ट सेक्सुअल बिहेविअर') करके करने लगती हैं |
कुछ कवि रूमानी अतीतजीविता की गुफा में अभी भी ध्यानस्थ हैं। लेकिन ग्राम्य जीवन की लोकवादी रागात्मकता की अभ्यर्थना का चलन अब कम हो रहा है। यह समय आदिवासी जीवन और मूल्यों के अनालोचनात्मक महिमा-मंडन का है।
और इन सभी प्रवृत्तियों की नक़ल करके महाकवि बनाने की महत्वाकांक्षा पाले अधकचरे कवियों की संख्या तो कई सौ, या शायद हज़ार से भी ऊपर होगी। विश्वास न हो तो सोशल मीडिया पर देख लीजिये। जिसे नाक छिनकने की तमीज नहीं, वह कुछ कूपमंडूकों द्वारा संपादित चन्द-एक पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को कविता का महाशिल्पकार समझने लगता है। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें यकीन है  कि कविता की विद्योत्तमा यदि दुत्कार कर भगा भी दे तो देर-सबेर वे कालिदास की तरह निष्णात कवि और दुर्दांत विद्वान बनाकर वापस लौटेंगे ही।

(30जुुुुलाई, 2018)

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