Friday, April 06, 2018

आज के बुर्जुआ समाज के नायक



मुझे याद नहीं आ रहा है, करीब एक माह पहले किसी मित्र ने पोस्ट डाली थी -- "अक्सर देखने में आता है कि नायक की तुलना में खलनायक अधिक दमदार अभिनय करता है I" बाद में मैंने इस बात पर सोचा I यह बात किसी हद तक सच है, पर इसपर थोड़ी और गहराई से सोचने की ज़रूरत है I

दरअसल आज का सड़ा-गला,मानवद्रोही, सृजन-विरोधी, स्वप्नहीन और हर प्रकार की आत्मिक संपदा से रिक्त बुर्जुआ समाज अब अपना ऊर्जस्वी और प्रभावी, स्वस्थमानस नायक पैदा ही नहीं कर सकता I बुर्जुआ नायकत्व खंडित-विघटित हो चुका है, उसकी आभा बुझ चुकी है, उसका आत्मविश्वास और आत्मगौरव गन्दगी, खून और मवाद से भरे नाले में मरे चूहे की तरह उतरा रहा है I

यूँ तो पूँजी अपने जन्म से ही खून और गन्दगी में लिथड़ी होती है, लेकिन जब बुर्जुआ समाज सामंती समाज को धूल में मिलाकर उत्पादक शक्तियों का विकास कर रहा था, तो उससमय समाज में शोषकों, उत्पीड़कों और परजीवियों के साथ ही ऐसे भी चरित्र मौजूद थे जो बुर्जुआ जनवाद के आदर्शों के प्रति अभी भी आस्था रखते थे, उनके अपने कुछ उसूल थे, उनकी उम्मीदें मरी नहीं थीं, और, वे बुर्जुआ विचारधारा से ही सही, लेकिन बुर्जुआ समाज में व्याप्त अनाचार, अत्याचार, ठगी और लूट की आलोचना करते थे I ऐसे चरित्र वीरतापूर्ण आचरण के साथ अपनी लड़ाई हारते थे और उनका जीवन उदात्त त्रासदी का कच्चा माल बन जाता था I आज के पूँजीवाद की ज़मीन ऐसे चरित्र नहीं पैदा कर सकती I पूँजीवाद जब साम्राज्यवाद की चरम अवस्था में प्रविष्ट ही हुआ था , तभी मक्सिम गोर्की ने उसके आत्मिक-सांस्कृतिक अधःपतन की गति और परिणति को देख लिया था और 1909 में लिखे अपने दीर्घ निबंध 'व्यक्तित्व का विघटन' में इसका प्रभावशाली विवरण पेश किया था I

पूंजीवाद का वास्तविक नायक तो आज एक ठग, लुटेरा, सट्टेबाज, दलाल-भ्रष्ट नेता, भ्रष्ट नौकरशाह, नशेड़ी अवसादग्रस्त या बर्बर व्यक्तिवादी स्वेच्छाचारी युवा, फर्ज़ी मुठभेड़ करने वाला पुलिस अधिकारी अथवा बलात्कारी ही हो सकता है I बुर्जुआ कला इन्हें खुले तौर पर नायक के रूप में नहीं प्रस्तुत कर सकती, लेकिन यथार्थ का कलात्मक पुनर्सृजन करते समय बुर्जुआ कलाकार की यथार्थ के प्रति पक्षधरता और दृष्टि उससे खलनायकों के चरित्र को अधिक शक्तिशाली और बहुरंगी बनवा ही लेती है I उसके मुकाबले प्रायः जो नायक होता है, वह सामाजिक आदर्शों से रिक्त, सपाट चेहरे वाला एक ऐसा आदमी होता है जो प्रेमिका को पा लेने, अपने ऊपर हुए अतीत के किसी ज़ुल्म का बदला लेने या धनी बन जाने की किसी निजी ख्वाहिश को समर्पित होता है I इसीलिये, उसमें चमत्कारी बहादुरी के चाहे जितने रंग भरे जाएँ, वह फीके खरबूजे जैसे व्यक्तित्व वाला ही होता है I कभी-कभी फिल्मों में दम लाने के लिए, नायक के रूप में प्रतिनायक गढ़ा जाता है, या परिस्थितियों का तर्क देते हुए, खलनायक को ही केंद्र में स्थापित कर दिया जाता है I

यूरोप का बुर्जुआ नायक तो अपनी आभा, चरित्र की गहराई और फैलाव बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों तक ही काफी हद तक खो चुका था I भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के संघर्षों से जन्मा आदर्शवादी, रोमानी स्वप्नद्रष्टा और भावप्रवण बुर्जुआ नायक अपने रंगीन, बहुआयामी, गहरे व्यक्तित्व के साथ 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों तक साहित्य और सिनेमा में मौजूद दिखाई देता था, हालाँकि वह कभी भी उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय नायकों जैसा दमदार नहीं था I

आप गौर करें कि1950 के दशक की हिन्दी फिल्मों का नायक आज के नायकों जितना नक़ली, बोदा, आत्मकेंद्रित, खोखला अहमन्य, फीका और सपाट नहीं था I कारण यह है कि तब ऐसे नायक गढ़े जा सकते थे और वे आम नागरिक के प्रिय हो सकते थे I अब ऐसे नायक बुर्जुआ सृजनशीलता गढ़ ही नहीं सकती I गढ़ेगी, तो भी वे अस्वीकार्य होंगे I आखिरकार, पतनशील और प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ कलाकार की रचना भी यथार्थ को ही परावर्तित करती है, भले ही उसके उलट-बिम्ब के रूप में, या विकृत-विरूपित छवि के रूप में I

भारतीय बुर्जुआ नायक की अधोमुखी यात्रा शरतचन्द्र के देवदास के पी.सी.बरुआ के देवदास, बिमल रॉय के देवदास और फिर संजय लीला भंसाली के देवदास से होते हुए अनुराग कश्यप के देव डी में बदल जाने की यात्रा के रूप में देखा जा सकता है।
(14मार्च,2018)

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