(यह पिछले साल के जनवरी महीने की बात है| मैं तब दिल्ली में थी| एक दिन करीब 10 बजे रात को कनाट प्लेस से बादली के लिए मेट्रो में सवार हुई| बहुत कम यात्री थे। मैं स्त्रियों के लिए आरक्षित डिब्बे में जा बैठी और झोले से निकालकर ‘अन्ना कारेनिना' पढ़ने लगी | बहुत बाद में मेरा ध्यान गया कि सामने की सीट पर बैठी लड़की मेरी ओर बीच-बीच में लगातार देख रही है | आज़ादपुर तक आते-आते डिब्बा लगभग खाली हो चुका था | लड़की मेरे बाजू में आकर बैठ गयी | उसने मुझसे परिचय किया, कुछ औपचारिक बातें हुईं और फिर उसने कहा कि उसने ‘अन्ना कारेनिना' उपन्यास दो बार पढ़ा है और इसपर बनी फिल्म पाँच बार देखी है | रोहिणी, सेक्टर-19 के स्टेशन पर जब वह लड़की उतर गयी तो कुछ समय बाद मैंने देखा कि बादामी रंग की उसकी डायरी उसकी सीट पर ही छूट गयी है। डायरी मैंने उठाकर उलटा-पलटा, लेकिन कहीं कोई नाम-पता या फोन न. दर्ज़ नहीं था। अलग-अलग पन्नों पर कहीं एक-दो तो कहीं चन्द वाक्यों में कुछ प्रविष्टियाँ थीं... कुछ स्फुट खयालात! मुझे यह भी लगता है कि लड़की वह डायरी जान-बूझकर छोड़ गयी थी, क्योंकि डायरी एकदम उसी सीट पर पड़ी थी, जहाँ वह बैठी थी। बातचीत के दौरान मैंने उसे बताया था कि मैं कविताएँ और विशेषकर स्त्री-विषयक कुछ गद्य लिखती हूँ और स्त्री मज़दूरों के बीच कुछ सामाजिक काम करती हूँ। बहरहाल, पिछले एक वर्ष से लगातार मैं इस डायरी के पन्नों को उलटती-पलटती रही हूँ। आखिरकार मैंने तय किया कि इस गुमनाम स्त्री की इस डायरी में दर्ज़ कुछ चीज़ों को सार्वजनिक करूँ।)
नसीहतें
भी गुलाम और आज्ञाकारी बनाने का उपकरण होती हैं।
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हमदर्दी
भी एक षड्यंत्र हो सकती है,
या बहेलिये का बिछाया जाल।
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संरक्षण
दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने का हथकंडा हो सकता है।
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अकेली
स्त्री अगर किसी पर भरोसा करे तो उसे सहज उपलब्ध मान लिया जाता है।
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स्त्री
निर्व्याज या निःस्वार्थ सहायता की अपेक्षा नहीं कर सकती।
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बंद
समाजों में स्त्री-पुरुष की सामान्य-स्वस्थ मैत्री ज्यादातर एक मिथक होता है, बहुत दूर की कौड़ी।
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जो
कुछ सिखाता है वह बदले में कुछ चाहता है। जो
कुछ सिखाने से इनकार करता है, वह
यह सोचकर कि बदले में मिलेगा क्या!
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जिन्होंने
उससे मित्रता की उन्होंने भी उसे फिर दो कौड़ी का समझा। जो उसका मित्र नहीं बन सके, वे उसे दो कौड़ी का बताते रहे।
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जिन्होंने
उसे प्यार किया, उन्होंने उसे कुचलकर विजय का आनंद लिया। जो उसका प्यार न पा सके, उन्होंने उसे कुचलकर प्रतिशोध का आनंद लिया।
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उनमें
भारी बहस चल रही थी। कुछ कह रहे थे कि जब वह हँसती है तो
फँसती है। दूसरों का विचार था कि वह फँसती है तो
हँसती है।
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स्त्रियाँ
सीधी एकदम नहीं होतीं | यदि वे सीधी हों तो उन्हें भेड़िया तुरत
खा जाएगा (जैसाकि सीधे लोगों के बारे में विमल कुमार की कविता कहती है)। यदि वे सीधी दीखती हैं तो मर्द समाज को गच्चा
देने के लिए, अपने बचाव के लिए, अपने किसी जटिल रहस्य को छुपाने के लिए, या किसी रहस्य का पता लगाने के लिए।
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पुरुषों
की आज़ादी से उसने ईर्ष्या की और खुद थोड़ी सी आज़ाद होकर बहुत अधिक आज़ाद के रूप में
देखी गयी और ढेरों स्त्री-पुरुषों की ईर्ष्या का आजीवन शिकार होती रही।
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कोई
आज़ादखयाल स्त्री यदि अकेली (सिंगल) है तो एक रहस्य है और उस रहस्य-भेदन के लिए
तमाम महारथी, साधारण रथी और विरथी आतुर रहते हैं। अपने लक्ष्य-वेध में विफल रथी उसके बारे में
इतने किस्म की बातें फैला देते हैं कि आजीवन उसे रहस्य बनाकर जीना पड़ता है।
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मध्य
वर्ग की आज़ादख़याल स्त्रियाँ प्रायः अकेलेपन का शिकार होती हैं और उनके ह्रदय बंद, ईर्ष्यादग्ध और अतिमहत्वाकांक्षी होते हैं। मेहनतक़श जमातों की आज़ादख़याल स्त्रियों में
सामूहिकता-बोध होता है, वे एकता की क़ीमत पहचानती हैं, क्योंकि एकता ही उन्हें मुक्त करती है। उनके दिल खुले होते हैं | वे ईर्ष्या और प्रतिस्पर्द्धा में नहीं जीतीं।
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मध्यवर्गीय
स्त्रियों के जीवन और मानस में समस्याएँ अधिक अरूप, अमूर्त, एकांगी और अतिरेकी बनकर आती हैं
क्योंकि वे परिप्रेक्ष्य से कटी होती हैं (स्त्रियाँ भी और समस्याएँ भी)। चीज़ें यदि लगातार ऐसी ही बनी रहती हैं तो एक
प्रचंड प्रतिबद्ध बुर्जुआ नारीवादी मानस तैयार होता है।
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अंत
में यह कि, ये सारी बातें पूरा सच नहीं हैं, आधा सच हैं। अगर ये पूरा सच होतीं तो यह दुनिया जीने लायक नहीं होती।
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लेकिन
फिर, यह भी सच है कि लगातार लड़ते हुए ही
जिया जा सकता है, सजग रहकर ही जिया जा सकता है और अनेकों
अप्रत्याशित मोहभंगों, वायदाखिलाफियों, विश्वासघातों, विफलताओं और पराजयों के लिए यथार्थवादी ढंग से तैयार होकर ही एक
आशावादी के रूप में जिया जा सकता है।
9 मार्च, 2018
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