Tuesday, February 27, 2018

मौजूदा हालात और आने वाले दिनों के बारे में कुछ फुटकल, लेकिन बुनियादी बातें








धनपतियों की दासी और श्रमिकों के लिए डाकू तो पूँजीवादी गणतंत्र में हर सरकार होती है, पर सबसे अधिक लोक-लुभावन नारा देकर सत्ता में आने वाले हिन्दुत्ववादी फासिस्टों का इस मामले में किसी से मुकाबला नहीं है I चन्द उदाहरण ही काफी हैं I
तीन वर्षों के भीतर (यानी 2016 तक) सरकार ने पूँजीपतियों के 17 लाख करोड़ से अधिक टैक्स माफ़ किये I
2017 में बैंकों का एन.पी.ए. साढ़े सात लाख करोड़ था, यानी बैंकों से ली गयी क़र्ज़ की वह रकम जिसे पूँजीपतियों की कम्पनियाँ लेकर डकार गयीं I
पी.एन.बी. घोटाला, जतिन मेहता, विजय माल्या, ललित मोदी आदि-आदि द्वारा किये गए घोटालों, रफायल घोटाला, व्यापम घोटाला, मेडिकल घोटाला, सृजन घोटाला, चावल घोटाला आदि केंद्र और राज्य स्तर पर हुए घोटालों की कुल रकम जोड़ दी जाये तो यह भी कम से कम कई लाख करोड़ होगी I हर सौदे और हर ठेके में ऊपर से लेकर नीचे तक, नेताशाही और नौकरशाही जो कमीशन खाती है, उसकी गणना इसमें नहीं है I वह भी जोड़ने पर कुछ लाख करोड़ से कम नहीं निकलेगी I
तमाम सार्वजनिक प्रतिष्ठान (जो जनता की हड्डियाँ निचोड़कर संचित सरकारी खजाने से खडी की गयी हैं) और जल, जंगल, ज़मीन, खनिजों के भण्डार आदि प्राकृतिक संपदा कौड़ियों के मोल पूँजीपतियों को बेंचना भी अपने आप में एक प्रचंड घोटाला है, जिसकी राशि सभी घोटालों से अधिक होगी I
और यह गैर कानूनी लूट तब है, जब श्रम कानूनों में भारी बदलावों के बाद, मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने के लिए पूँजीपतियों को छुट्टा छोड़ दिया गया है I उत्पादन-स्थल पर अपना हड्डी-निचोड़ शोषण करवाने के बाद, आम आदमी अपनी छोटी-छोटी बचतों से बैंक में जो पैसा रखता है या बीमा में जो पैसा लगाता है, उसे पूँजीपति लेकर उत्पादक और अनुत्पादक गतिविधियों में निवेश करके एक से आठ कमाता है, और आम आदमी को बैंक से ब्याज के रूप में नगण्य राशि मिलती है I
और फिर देश में बढ़ती धनी-ग़रीब की खाई, नेताशाही-नौकरशाही की बढ़ती तनख्वाहों और सुविधाओं के बारे में सोचिये I हमारे देश के नेता और अफसर किसी भी अमीर देश के नेताओं और अफसरों से अधिक सुविधा और अमीरी का जीवन जीते हैं I ऐयाशी और विलासिता में उन्हें टक्कर सिर्फ वे धर्मगुरु दे सकते हैं, जो अकूत धन-संपदा धर्म के नाम पर दबाये बैठे हैं I सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के मामले में भारत दुनिया के सबसे ऊपर के कुछ देशों में आता है I
कहाँतक गिनायें ! क्या इसके बाद भी किसी को संदेह है कि पूँजीवादी व्यवस्था पतित होकर अब खुली लूटमार की व्यवस्था नहीं बन चुकी है ? क्या इसके बाद भी किसी को संदेह है कि पूँजीवादी जनवाद पूँजीपति वर्ग की तानाशाही होता है जिसमें सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी मात्र होती हैं ?
आप खुद ही कल्पना कर सकते हैं कि इस तमाम शोषण, लूट और भ्रष्टाचार के न होने की स्थिति में देश का हर नागरिक कितना खुशहाल होगा और जनोन्मुख विकास की रफ़्तार कितनी तेज़ होगी ! लेकिन पूँजीवाद के रहते यह संभव ही नहीं है I हम किसी "शुद्ध-बुद्ध" या "संत पूँजीवाद" की कल्पना नहीं कर सकते I इतिहास के चक्के को पीछे ले जाकर उसके भ्रष्ट और खूनी लुटेरे चरित्र को थोड़ा नरम और "सुशील" बना पाना भी मुमकिन नहीं है I 1970 के दशक से भारत भ्रष्टाचार-विरोध और सुधार के कई आन्दोलन देख चुका है I फिर हर बार बेताल जाकर उसी डाल पर लटक जाता है I दरअसल, पूँजीवादी दायरे के भीतर सुधार का हर आन्दोलन एक 'सेफ्टी वाल्व', एक 'शॉक एब्जार्वर', एक 'स्पीड-ब्रेकर' का काम करता है I जो पूँजीवाद का विरोध किये बिना भ्रष्टाचार का विरोध करते हैं, वे तरह-तरह के डिटर्जेंट लेकर पूँजीवादी तंत्र के दामन पर लगे गन्दगी और खून के धब्बों को साफ़ करते रहते हैं Iपूँजीवाद में हर वैध लूट अवैध लूट को जन्म देती है और उसके साथ-साथ ही चलती है I सच पूछें तो पूँजीकी दुनिया में वैध-अवैध, या काले-सफ़ेद के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा होती ही नहीं I पूँजीपति 'प्रोफ़िटेबिलिटी' को बनाये रखने के लिए पूँजी-निवेश करेगा, कानूनी रास्ते से नहीं तो गैरकानूनी रास्ते से I पूँजी संचय वह करेगा, सफेद नहीं तो काले धन के रूप में ही सही I
लुब्बे-लुब्बाब यह कि भ्रष्टाचार को ख़तम करना होगा तो पूँजीवादी शोषण की व्यवस्था को ख़तम करना होगा I रास्ता एक ही है --- साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी क्रांति का रास्ता I जो लोग अपने को कम्युनिस्ट कहते हैं, और क्रांति की जगह पूँजीवादी संसदीय चुनावों से सत्ता में आकर समाजवाद ला देने की बात करते हैं, वे ठग हैं I उन्हें सुधार और पैबंदसाज़ी और दुअन्नी-चवन्नी की रुटीनी "लड़ाई" लड़ने में लगे रहने दीजिये I उन्हें संसद की कुर्सियों से लाल झंडे टिकाकर आराम और गलचौर करते रहने दीजिये I इनसे कोई उम्मीद पालना व्यर्थ है I यह इन्हीं का वर्षों का कुकर्म है कि आज फासिस्टी कहर के सामने मज़दूर वर्ग तैयार और संगठित नहीं, बल्कि अरक्षित खड़ा है, और यही नहीं, मज़दूर आबादी में भी फ़ासिस्ट अपनी पैठ बनाकर विघटित वर्ग-चेतना के मज़दूरों को अपनी कतारों में भरती कर रहे हैं I यह इन्हींका वर्षों का कुकर्म है कि जिन भूमिहीन दलितों के अधिकार और आत्म-सम्मान की लड़ाई दशकों तक लड़कर कम्युनिस्ट आन्दोलन ने उनके बीच अपना सबसे मज़बूत सामाजिक आधार बनाया था, आज वे सर्वहारा दलित भी इनका दामन छोड़कर 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' के विविध रूपों की गिरफ्त में जा फँसे हैं और चूँकि जाति-उन्मूलन का रेडिकल कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट प्रस्तुत करने का इन नकली कम्युनिस्टों के जिगरे में दम ही नहीं है, इसलिए विचारधारा को छींके पर रखकर ये सभी इनदिनों लाल और नीले में समागम करा रहे हैं I
भारत में एक नए प्रकार की समाजवादी क्रांति की ज़मीन तैयार है, पर वह क्रांति तबतक आगे कदम नहीं बढ़ा सकती, जबतक कि उसका हरावल दस्ता न संगठित हो, उसे नेतृत्व देने वाली एक क्रांतिकारी पार्टी न तैयार हो I संसदीय जड़वामनों और वाम दुस्साहसवादियों से अलग कुछ जो कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठन और ग्रुप हैं, उनमें से जो कठमुल्लापन से पीछा छुडाकर मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में अपने देश की ठोस परिस्थितियों का अध्ययन करके क्रांति की रणनीति और आम रणकौशल सही-सटीक निर्धारित कर सकेंगे और वर्ग-संघर्षों में उतरकर उसे सत्यापित, परिष्कृत और विकसित करने में सफल होंगे, वही भावी भारतीय क्रांति को नेतृत्व देने वाली एक सर्वभारतीय पार्टी के निर्माण और गठन में सफल होंगे I साथ ही, भारत का क्रांतिकारी नेतृत्व वही होगा जो जाति- विरोधी रेडिकल सामाजिक आन्दोलन को वर्गीय परिप्रेक्ष्य देकर आगे बढ़ाएगा तथा जाति-विनाश का कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट बिना किसी समझौते के, दलित मेहनतक़श और निम्न-मध्यवर्गीय आबादी के बीच प्रस्तुत करके उन्हें अपने पक्ष में जीतने में सफल होगा I स्त्री-प्रश्न पर भी समाजवादी दृष्टिकोण को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा और मज़दूर और मध्यवर्गीय स्त्रियों के आन्दोलन संगठित करने होंगे I गाँवों और शहरों के सर्वहारा और अर्ध-सर्वहारा और शोषित-उत्पीडित ग्रामीण-शहरी मध्यवर्गीय आबादी ही इस क्रांति को अंजाम देगी I इसी नज़रिए से इन वर्गों के जन-संगठन बनाने होंगे और संयुक्त मोर्चे बनाने होंगे I इनके तफसील में यहाँ जाना संभव नहीं, इसलिए, मैं सिर्फ एक आम दिशा और आम रूपरेखा की चर्चा कर रही हूँ I एक फौरी अहम काम आज फासिज्म-विरोधी मोर्चा संगठित करने का है I इसपर मैं पहले कई बार अलग से लिख चुकी हूँ, इसलिए यहाँ चर्चा नहीं कर रही हूँ I
भारत में जो सर्वहारा क्रांति होगी, वह देशी-विदेशी कंपनियों की सारी चल-अचल संपत्ति को ज़ब्त करके सर्वहारा राज्य के स्वामित्व में ले लेगी I सारे विदेशी कर्जे मंसूख कर दिए जायेंगे I शेयर बाज़ारों पर ताले लग जायेंगे I श्रम-शक्ति की खरीद-फरोख्त पर रोक लग जायेगी I चूंकि सभी को रोज़गार, निःशुल्क स्वास्थ्य,शिक्षा और आवास, बच्चों-बूढ़ों की देख-रेख, दुर्घटना की स्थिति में पूरी ज़िम्मेदारी उठाना --- यह सबकुछ राज्य की बुनियादी ज़िम्मेदारी होगी, इसलिय बीमा कंपनियों की कोई ज़रूरत ही नहीं होगी, समाजवादी राज्य स्वयं में एक बीमा होगा I सभी मठों-मंदिरों और धार्मिक प्रतिष्ठानों की अकूत संपदा ज़ब्त करके देश के विकास के कार्यों में लगा दी जायेगी I सार्वजनिक जीवन में धर्म की कोई दखल नहीं होगी, पर निजी जीवन में अपने धार्मिक विश्वासों के पालन की सबको पूरी आज़ादी होगी I खेती बड़े-बड़े राजकीय और सामूहिक फार्मों में संगठित होगी, जिसे उत्पादक जनता की चुनी हुई कमेटियाँ सर्वहारा राज्य के निर्देशन में चलायेंगी I व्यापार के क्षेत्र में भी निजी स्वामित्व नहीं होगा और विनिमय और वितरण का सारा काम राजकीय और सामूहिक उपक्रमों के जरिये होगा I जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियों को पूर्ण समानता के अधिकार प्राप्त होंगे I सार्वजनिक भोजनालयों, क्रेच, नर्सरी आदि की देशव्यापी निःशुल्क व्यवस्था उन्हें घरेलू गुलामी से मुक्ति दिला देगी और जीवन के हर क्षेत्र में वे पुरुषों की बराबरी पर काम कर सकेंगी I
यह तो मैंने संक्षेप में महज कुछ बुनियादी मुद्दों की चर्चा की है, समाजवाद का कोई पूरा कार्यक्रम नहीं बताया है I पर आप स्वयं सोच सकते हैं कि सभी देशी-विदेशी पूँजीपतियों की पूँजी, सारा अवैध और काला धन तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों की अकूत संपदा जब ज़ब्त करके जनहित के कामों में लगा दी जायेगी, तो समाजवाद के इस पहले ही कदम से जनता के जीवन-स्तर में कितने गुने का सुधार आ जायेगा और तरक्की की रफ़्तार कितनी तेज़ हो जायेगी ! उत्पादन और सभी निर्माण-कार्य जब मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि जनता की ज़रूरतों के हिसाब से होंगे, तो हर हाथ को काम तो मिलेगा ही, विज्ञान-तकनोलोजी का विकास भी बहुत तेज़ हो जाएगा Iयहाँ से समाजवाद की यात्रा शुरू होती है, जो लंबा और कठिन सफ़र तय करके आगे वर्ग-विहीन, पूर्ण समानता वाले समाज के मुकाम तक जाती है I
आज चूँकि मानवता की ऐतिहासिक प्रगति-यात्रा कुछ समय के लिए काफी पीछे धकेल दी गयी है, इसलिए इतिहास से अपरिचित और बुर्जुआ प्रचार-तंत्र से प्रभावित बहुत सारे लोगों को ये बातें किसी गगनविहारी की हवाई उड़ान लगेगी I लोग भूल चुके हैं, या उन्हें जानने ही नहीं दिया गया कि बीसवीं शताब्दी में, सर्वहारा क्रांति के प्रारंभिक संस्करणों ने ही ये चमत्कार कर दिखाए थे I सर्वहारा क्रांतियों का वह दौर प्रथम प्रयोग का दौर था I उन क्रांतियों की पराजय से सबक लेकर सर्वहारा क्रांति का विज्ञान और अधिक समृद्ध हुआ है और अब उस उन्नत वैज्ञानिक समझ से लैस होकर सर्वहारा क्रांति के नए संस्करण का निर्माण करना होगा Iआने वाला समय पूँजी और श्रम के संघर्षरत पक्षों के बीच निर्णायक युद्ध का समय होगा I इसलिए स्वाभाविक है कि इसकी तैयारी कठिन और लम्बी होगी I लेकिन दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं है I या तो मुनाफे की अंधी हवास से पैदा हुए युद्ध, पर्यावरनीय विनाश और दिशाहीन जन-विद्रोहों और उनके अविराम दमन और अराजकता के सिलसिले के द्वारा इंसानियत की तबाही, या फिर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सुसंगठित क्रांति द्वारा इस सामाजिक ढाँचे को तोड़कर समाजवाद का निर्माण --- विकल्प बस दो ही हैं और चुनने का सवाल,सबसे पहले,समाज के उन्नत-चेतस, इन्साफपसंद और बहादुरी और कुर्बानी का जज़्बा रखने वाले लोगों के सामने है I
 (25 फरवरी,2018)

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