Friday, February 16, 2018

गैरसैंण के सवाल पर उत्तराखंड के युवाओं और बुद्धिजीवियों के विचारार्थ कुछ बातें





-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

उत्तराखण्ड जबसे अलग राज्य बना, गैरसैंण को राजधानी बनाने की माँग तबसे लगातार उठती रही है और सभी सरकारें इस मामले में जन भावनाओं की अनदेखी करती रही हैं , चाहे वे किसी भी पार्टी की रही हों I
उत्तराखंड का गठन एक पहाडी राज्य के रूप में हुआ था, पर आज स्थिति यह है कि पहाड़ों की अर्थ-व्यवस्था तबाह हो चुकी है I आबादी का लगातार पलायन जारी है I गाँव के गाँव सूने होते जा रहे हैं Iराज्य का कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है I इसमें से 46,035 वर्ग किलोमीटर पहाड़ी क्षेत्र है जबकि सिर्फ 7,448 वर्ग किलोमीटर मैदानी क्षेत्र हैI यानी प्रदेश का 86 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है और मात्र 14 प्रतिशत मैदानी I लेकिन इस 14 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में आज पहाड़ों से ज़्यादा जनसंख्या हो चुकी है I
गैरसैण को राजधानी बनाने के मुद्दे को लेकर इनदिनों फिर आन्दोलन ज़ोरों पर है, पर सरकार कान में तेल डाले पड़ी है और विपक्षी दल भी या तो चुप्पी साधे हैं या महज कुछ ज़ुबानी जमाखर्च कर रहे हैं, हमेशा की तरह I
सोचने की बात यह है कि पहाड़ों की पूरी आबादी, प्रवासी उत्तराखंडियों की बड़ी आबादी और रोजी-रोटी के लिए पहाड़ों से बाहर आकर राज्य के मैदानी एवं तराई के इलाकों में रहने वाली आम आबादी के एक अच्छे-खासे हिस्से की इच्छा के बावजूद सरकारें गैरसैण को राजधानी बनाने से कतरा क्यों रही हैं ? इसके लिए उत्तराखंड की वर्गीय संरचना को समझकर यह जानना होगा कि वे लोग कौन हैं जो चाहते हैं कि किसी भी कीमत पर राजधानी देहरादून से गैरसैण न जाए !
सबसे पहले, नैनीताल के तराई क्षेत्र, ऊधमसिंह नगर , हरिद्वार और सेलाकुई में कारखानों के मालिक पूँजीपति नहीं चाहते कि राजधानी किसी भी कीमत पर देहरादून से हटे I इन पूँजीपतियों की थैली पर निर्भर कोई भी पार्टी इनकी मर्जी के खिलाफ कोई कदम उठाने से पहले सौ बार सोचेगी I
दूसरे नम्बर पर तराई और मैदानी इलाकों के वे समृद्ध फार्मर और कुलक हैं, जिनके लिए देहरादून में राजधानी का होना अधिक सुविधाजनक है I इस आबादी के वोट बैंक के साथ ही इनसे मिलने वाली थैली भी सभी पार्टियों के लिए विशेष महत्व रखती है I
तीसरे नंबर पर गैरसैण राजधानी बनाने की विरोधी बिल्डरों और भू-माफिआओं की वह तगड़ी लॉबी है, जिसने देहरादून की घाटी के चप्पे-चप्पे को कंक्रीट का जंगल बना डालने में अरबों-खरबों की पूँजी लगा रखी है I इनका साम्राज्य हरिद्वार-ऋषिकेश के इलाके और नैनीताल की तराई तथा ऊधमसिंह नगर में भी फैला हुआ है जहाँ जंगलों की जगह अपार्टमेंट्स के जंगल उग आये हैं क्योंकि दिल्ली और उत्तर प्रदेश का उच्च मध्य वर्ग भी इन क्षेत्रों में ज़मीन, फार्म हाउस, फ्लैट, बंगले आदि बना और खरीद रहा है I
गैरसैण-विरोधी लोगों में चौथे नंबर पर नेताशाही और नौकरशाही तथा उच्च-मध्य वर्ग के वे भ्रष्ट-विलासी लोग हैं जो दून घाटी में ऐश फरमा रहे हैं और उसकी शानदार पारिस्थितिकी को तबाह कर रहे हैं I
यही वे अमीर तबके हैं जो संसदीय राजनीति के खम्भे हैं और सभी बुर्जुआ पार्टियाँ इन्हीं वर्गों की सेवा करती हैं I
जो गैरसैण में राजधानी चाहते हैं वे आम लोग हैं जिनकी ज़िन्दगी पहाड़ों की अर्थ-व्यवस्था की तबाही से बर्बाद हो गयी है I इन आम लोगों के पास अपनी माँग मनवाने का एक ही रास्ता है और वह यह है कि वे एक बार फिर अपनी संगठित जनशक्ति का वैसा ही प्रदर्शन करें जैसा उन्होंने उत्तराखंड को राज्य बनाने के लिए हुए आन्दोलन के दौरान किया था I हालाँकि तब के मुकाबले ऐसा आन्दोलन खड़ा करने में आज दिक्कतें अधिक पेश आयेंगी क्योंकि पहाड़ों से आबादी का, विशेषकर युवा आबादी का पलायन विगत एक दशक के दौरान बहुत अधिक हुआ है I फिर भी यह कोई असंभव काम नहीं है I
किसी भी ऐसे आन्दोलन के लिए यह ज़रूरी है कि वे किसी भी चुनावी पार्टी के नेता को अपने आसपास फटकने तक न दें I
आन्दोलन के लिए पूरे पहाड़ी क्षेत्र में संघर्ष समितियों का गठन होना चाहिए, जिसका नेतृत्व युवाओं के हाथ में हो I
अभी से, गाँव-गाँव प्रचार के बाद यह घोषणा कर दी जानी चाहिए कि यदि विधान सभा ने सर्वसम्मति से गैरसैण को राजधानी घोषित नहीं किया तो नेताओं का पहाड़ों में पूर्ण बहिष्कार होगा, जहाँ भी वे जायेंगे वहाँ विरोध-प्रदर्शन होगा और अगले चुनावों का पहाड़ों में पूरा बहिष्कार होगा, चुनाव-प्रचार के लिए नेताओं को घुसने तक नहीं दिया जायेगा I
आन्दोलन का एक फॉर्म यह ज़रूर होना चाहिए कि पूरी तैयारी करके साल में कुछेक बार, विशेषकर टूरिस्ट सीजन के समय, उत्तराखंड के पहाड़ों के सभी प्रवेश-द्वारों को जाम कर दिया जाए I
गैरसैण की लड़ाई धन-शक्ति से जन-शक्ति की लड़ाई है I जुझारू संकल्प-शक्ति और संगठनबद्धता के द्वारा ही इसे लड़ा और जीता जा सकता है I
दरअसल गैरसैण का सवाल अपने-आप में कोई अलग-थलग सवाल नहीं है I सवाल उत्तराखंड की तबाह अर्थ-व्यवस्था में जान फूँकने का है, उजड़ते पहाड़ों से भागती आबादी को रोकने का है, हिमालय के पर्यावरण और पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए विकास के कार्यों को गति देने का है, उजड़ते जंगलों और सूखती नदियों-सोतों को बचाने का है I उत्तराखंड में टिहरी के बाद पंचेश्वर डैम बनाने जैसी भयंकर विनाशकारी परियोजनाओं पर काम जारी है I अन्य कई और पनबिजली परियोजनाओं पर काम जारी है I सभी पर्यावरणविद इनके विनाशकारी दुष्प्रभावों के बारे में बता चुके हैं पर ठेके लेने वाली बड़ी कंपनियों की चाकरी बजाने वाली सरकारों के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही है I बहरे तभी सुनेंगे जब संगठित संघर्षों का कोई बड़ा धमाका होगा I
उत्तराखंड जुझारू आन्दोलनों और आन्दोलनकारियों की धरती रही है I राष्ट्रीय आन्दोलन, चिपको आन्दोलन और उत्तराखंड आन्दोलन इसके गवाह रहे हैं I लेकिन आन्दोलनकारियों की पुरानी पीढ़ी के लोगों में से कइयों का निधन हो चुका है I बहुत सारे ईमानदार आन्दोलनकारी बूढ़े हो चुके हैं, और निराश हैं, या रुटीनी दिशाहीन राजनीति के कारण अपना प्रभाव और आधार खो चुके हैंI कुछ पुराने आंदोलनकारी भ्रष्ट बुर्जुआ चुनावी राजनीति की गटरगंगा में गोते लगा रहे हैं और कुछ सम्मानित आन्दोलनकारी नाना सरकारी पुरस्कारों, सम्मानों और पेंशन आदि से विभूषित होकर अब घर बैठकर आराम कर रहे हैं, सेमिनारों में लेक्चर देते घूम रहे हैं, एन.जी.ओ. के सलाहकार बन गए हैं और पुरानी कमाई को बस भुना रहे हैं I अब पहाड़ के गरीब मेहनतकश और निम्न-मध्यवर्गीय युवाओं से और स्त्रियों की नयी पीढ़ी से ही यह उम्मीद की जा सकती है कि वे धूल में फेंक दिया गया संघर्षों का परचम आगे बढ़कर फिर से उठा लें और संगठित होकर, सधे कदमों से जुझारू संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ें।

(16 फरवरी,2018)

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