Tuesday, February 27, 2018

क्या आपके पास उड़ने वाले पंख हैं ?





बर्बरता जब हवा में घुल जाती है, आतंक जब लगातार धीमी बारिश की तरह बरसता रहता है, ज़ुल्म जब लगातार अपने अतिरेकी रूपों में जारी रहता है, तो सबसे बड़ा खतरा यह होता है कि हम इन चीज़ों के आदी हो जाएँ और घोर अमानवीय परिस्थितियों में जीते चले जाने को अपनी नियति मान लें।

अखलाक़, जुनैद,अफराजुल ... बर्बर हत्याओं का सिलसिला इसतरह आगे भी जारी है I उ.प्र. में सरेआम एक लड़की को सड़क पर पेट्रोल डालकर जला दिया गया I म.प्र. में एक लड़की का सर धड़ से अलग कर दिया गया। देश के किसी-किसी कोने में निर्भया कांड जैसी घटनाएँ, छोटी-छोटी बच्चियों के बलात्कार और हत्या की घटनाएँ इतनी अधिक सुनने में आ रही हैं कि लोग अब उन्हें याद भी नहीं रखते।

क्या आपने गौर किया है कि हाल के कुछ वर्षों में दलितों पर होने वाले अत्याचारों की संख्या और बर्बरता किसकदर लगातार बढ़ी है ?

दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं के अतिरिक्त कितने बुद्धिजीवियों-लेखकों को धमकाया जा चुका है, उनपर हमले किये जा चुके हैं, क्या आपको याद है ? कितने सांस्कृतिक आयोजनों में फासिस्ट गुंडे घुसकर हंगामा मचा चुके हैं, क्या आपको याद है ? कितने आन्दोलनों को बर्बरता से कुचला गया है, कितनी मुठभेड़ें हाल के कुछ वर्षों में हुई हैं, कश्मीर के अवाम पर कितना कहर बरपा किया गया है, क्या आपके ज़ेहन में ये सारी बातें एक साथ उमड़ती-घुमड़ती हैं ?

इसबीच सभी राज्यों में और केंद्र स्तर पर लगातार मज़दूर-विरोधी श्रम कानूनों और एक से बढ़कर एक काले कानूनों का बनना जारी है I सार्वजनिक प्रतिष्ठान और प्राकृतिक संपदा कौड़ियों के मोल पूँजीपतियों को सौंपी जा रही हैं, नौकरियाँ अभूतपूर्व रफ़्तार से घट रही हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च इस हद तक घटाया जा चुका है कि दुनिया के देशों में भारत सबसे निचले पायदान पर आ गया है I भ्रष्टाचार और घपलों-घोटालों के सारे रिकार्ड टूट चुके हैं, न्यायपालिका रावण के घर पानी भर रही है, चुनाव आयोग उसकी चम्पी कर रहा है और मुख्या धारा की मीडिया दरवाजे पर बैठी हुई कुतिया है I लुब्बे-लुब्बाब यह कि बुर्जुआ जनवाद की रामनामी चादर सड़क कर धूल में गिर गयी है, नंगा राजा अकड़-अकड़ कर चल रहा है, मुसाहिब जैकारे बोल रहे हैं, भद्र जन अपनी खिड़कियों से झाँक रहे हैं और आम लोग निरुपाय महसूस कर रहे हैं I तमाम सांस्कृतिक मेले-ठेले उत्सवधर्मियों के ठंडे अनुष्ठानों के समान जारी हैं I फागुन, बसंत,प्रेम कविताएँ भी बदस्तूर बरस रही हैं, हालात से असम्पृक्त I तो क्या सचमुच हम इन हालात में जीने के आदी होते जा रहे हैं ? यूँ कहें कि इन हालात में, इन चरम अमानवीय परिस्थितियों में, इस फासिस्ती घटाटोप में जीते चले जाने के लिए हमारा मानसिक अनुकूलन किया जा रहा है और विकल्पहीनता की स्थिति में लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं।

माना कि हालात कठिन हैं, पर चुप बैठ जाना, या राह लम्बी और कठिन जानकर यात्रा की शुरुआत ही न करना--- यह तो पहले से ही जीवन पर मृत्यु की विजय को स्वीकार कर लेना होगा I अगर सन्नाटा बहुत गहरा है तो फेंफड़ों की पूरी ताकत से चीखना होगा I जैसाकि लू शुन ने कहा था कि यदि लोग लोहे की दीवारों के पीछे क़ैद गहरी नींद सो रहे हों, तब भी हमें पूरी ताक़त से आवाज़ लगानी होगी, मुमकिन है कि घुटन से उचटती नींद वाले कुछ लोगों तक हमारी आवाज़ पहुँच जाये और वे दूसरों को भी जगाना शुरू कर दें I आंधी में तो तिनके भी उड़ते हैं, जब हवा बंद हो, तब उड़ने की कोशिश करने पर ही पता चलेगा कि हमारे पास उड़ने वाले पंख हैं भी या नहीं ! मुझे याद नहीं, किस लेखक ने यह कहा था किअगर कोई भी भौतिक शक्ति तुम्हारे पक्ष में खडी न दीख रही हो तो भी गले की पूरी ताक़त से आवाज़ लगाओ, कभी-कभी पहाड़ों में एक आवाज़ से भी हिमस्खलन की शुरुआत हो जाती है I और ऐसा भी नहीं है कि हमारे साथ कोई भौतिक शक्ति नहीं है I शायद हम उस भौतिक शक्ति तक पहुँच नहीं सके हैं।

काफी कुछ नए सिरे से शुरू करना होगा, और काफी कुछ, बिखरी हुई कोशिशों और प्रक्रियाओं को संगठित करना होगा I बेशक, काम कठिन तो है, और लंबा भी, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से, या अनमनी कोशिशों से भी भला क्या हासिल होगा ?
(24 फरवरी,2018)

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