Tuesday, December 19, 2017

वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद नेपाल किस ओर ?



--- आलोक रंजन

नेपाल में भारी बहुमत पाकर वाम गठबंधन सत्तारूढ़ होने जा रहा है । के.पी. ओली का प्रधान मंत्री बनाना लगभग तय है । कयास इस बात के लगाये जा रहे हैं कि माधव नेपाल और प्रचंड में से एक देश का राष्ट्रपति बनेगा और दूसरा ने.क.पा.(ए.मा.ले.) और ने.क.पा. (माओवादी केंद्र) के प्रस्तावित विलय के बाद अस्तित्व में आने वाली पार्टी का अध्यक्ष ।

इस घटना-क्रम पर दो कोणों से विचार किया जाना चाहिए । पहला, राजनीतिक कोण और दूसरा विचारधारात्मक कोण ।

राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो पूरे एशिया के परिदृश्य में इस घटना से, वस्तुगत तौर पर, कुछ सकारात्मक बदलाव आयेंगे । नेपाल में लम्बे समय बाद एक स्थिर सरकार बनाने के बाद नेपाल ज्यादा संतुलित कूटनीति के द्वारा भारत और चीन में संतुलन स्थापित करेगा,अपने आर्थिक विकल्पों का विस्तार (मुख्यतः चीन की ओर) करके भारत पर अपनी निर्भरता को कम करेगा, भारतीय क्षेत्रीय विस्तारवाद का ज्यादा प्रभावी ढंग से मुक़ाबला करेगा और पिछले दिनों मधेस प्रश्न पर विवाद के दिनों में भारतीय नाकेबंदी से पैदा हुई दुश्वारियों जैसी किसी स्थिति से निपटना उसके लिए आसान हो जायेगा I वैसे, उस घटना का ही नतीज़ा था कि चीन के साथ नेपाल ने सम्बन्ध मजबूत करने शुरू किये और आज नेपाल का चीन के साथ व्यापार भारत के साथ व्यापार की तुलना में आगे निकल चुका है । नेपाल चीन की महत्वाकांक्षी 'वन रोड वन बेल्ट' परियोजना में भी शामिल हो चुका है । चीन के सहयोग से नेपाल में सड़क और रेल की अति महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए बातचीत और सर्वेक्षण पहले ही शुरू हो चुका है । वाम गठबंधन ने नेपाल में बिजली उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी और भारी उद्योगों की अवस्थापना के लक्ष्य की पहले से ही घोषणा कर दी है I चीन के आर्थिक-तकनीकी सहयोग से इन लक्ष्यों को प्राप्त करना ज्यादा कठिन नहीं है । चीन से प्रतिस्पर्द्धा के कारण, आसान शर्तों पर सहयोग करना भारत की भी मज़बूरी होगी और पहले की तरह धौंसपट्टी का व्यवहार अब उसके लिए संभव नहीं हो सकेगा ।

हालांकि एशिया के पैमाने पर इस राजनीतिक घटना-क्रम का एक दूसरा पहलू भी है । "बाज़ार समाजवाद" के मुखौटे वाला, उभरता हुआ चीनी साम्राज्यवाद पूरे एशिया के पैमाने पर तेज़ी से अपना प्रभुत्व-विस्तार कर रहा है और इस मामले में भारतीय पूंजीवाद उसके मुकाबले कहीं नहीं ठहरता । 'वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट', दक्षिण चीन सागर पर एकछत्र प्रभुत्व का दावा, श्रीलंका में हम्बनटोटा और पाकिस्तान में ग्वादर जैसे बंदरगाहों का निर्माण (म्यांमार के साथ भी ऐसी ही परियोजना पर बात जारी है), ईरान और मध्य-एशियाई देशों के साथ घनिष्ठ व्यापार-सम्बन्ध आदि चीनी महत्वाकांक्षा के संकेत मात्र हैं I नेपाल में भी चीन कोई 'सांता क्लाज' बनाकर नहीं आ रहा है I उसकी निगाह नेपाल की सस्ती श्रम-शक्ति और सस्ते कच्चे माल के अकूत भण्डार पर है I यही नहीं, पूंजीवादी विकास के गति पकड़ने और मुद्रा-अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने के बाद नेपाल चीनी उत्पादों का भी एक बड़ा बाज़ार होगा । इसतरह, नेपाल दूरगामी तौर पर ज्यादा गहरे साम्राज्यवादी शोषण और देशी पूंजीवादी शोषण की गिरफ्त में फँस जाएगा । लेकिन वस्तुगत रूप से, नेपाल इतिहास की यात्रा में आगे कदम बढ़ा देगा, क्योंकि वहाँ पूँजीवादी विकास और नए सिरे से पूंजीवादी वर्ग-ध्रुवीकरण की गति तेज हो जायेगी और आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का तेजी से विस्तार होगा । नेपाल का पूँजीवादी रूपांतरण साम्राज्यवादी शक्तियां भी चाहती हैं (क्योंकि नेपाल में प्राक-पूँजीवादी अवशेषों की समाप्ति और राष्ट्रीय बाज़ार के सुदृढीकरण के बाद ही नव-उदारवाद की नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है) और नेपाल का पूंजीपति वर्ग भी यही चाहता है । इस काम को मौजूदा वाम गठबंधन की सरकार नेपाली कांग्रेस से अधिक प्रभावी ढंग से कर सकती है, इसलिए वाम गठबंधन के सत्तारूढ़ होने से, (भारत को छोड़कर) चीन ही नहीं, बल्कि दुनिया की अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों को भी कोई आपत्ति नहीं, बल्कि खुशी ही है ।

वाम गठबंधन क्रमिक गति से, ऊपर से, पुराने भूस्वामियों को रियायतें देते हुए ही सही, लेकिन बुर्जुआ भूमि-सुधार के बचे हुए कामों को भी पूरा करने के लिए बाध्य होगा, क्योंकि श्रम के सामंती बंधनों से मुक्ति के बिना पूँजीवादी राष्ट्रीय बाज़ार का निर्माण संभव नहीं होगा I इसतरह नेपाल का पूंजीवाद के रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ना अपरिहार्य हो गया है । कहा जा सकता है कि बुर्जुआ जनवादी क्रांति के बचे-खुचे कार्यों का पूरा हो जाना सुनिश्चित हो जाने के साथ ही नेपाल का अब नयी समाजवादी क्रांति (साम्राज्यवाद-विरोधी पूंजीवाद-विरोधी क्रांति) की मंजिल में प्रविष्ट हो जाना सुनिश्चित हो चुका है । यह गति अप्रतिरोध्य और अनुत्क्रमणीय है ।

अब हम इस नए बदलाव के विचारधारात्मक पक्ष की ओर आते हैं । वाम गठबंधन की भावी सरकार संसदीय मार्ग से बुर्जुआ जनवादी क्रांति के बचे-खुचे कार्यभारों को तो पूरा कर ही लेगी (सरकार आगे ने.कांग्रेस या किसी और गठबंधन की भी बने, तो उसे यह काम करना ही होगा) लेकिन इसके साथ ही नेपाल भूमंडलीकृत विश्व-अर्थतंत्र के साथ ज्यादा आर्गेनिक ढंग से जुड़ जायेगा और उसकी वैसी ही दशा कालान्तर में होगी जो लातिन अमेरिका और अफ्रीका के कई पिछड़े पूँजीवादी देशों की आज है । इससे बचना तभी संभव होता, यदि बुर्जुआ जनवादी क्रांति के कार्यभार क्रांतिकारी तरीके से पूरे होते और फिर वहाँ समाजवादी संक्रमण की शुरुआत हो जाती । लेकिन क्रांतिकारी वाम के संशोधनवादी विपथ-गमन के चलते नेपाल ने वह अवसर खो दिया ।

संसदीय मार्ग से पूँजीवादी जनवादी क्रांति के कार्यभारों को तो पूरा किया जा सकता है, लेकिन समाजवाद की दिशा में संक्रमण कदापि नहीं किया जा सकता । न मार्क्सवाद की विचारधारा इसके पक्ष में गवाही देती है, न ही दुनिया का इतिहास I इसीलिये हमारा यह स्पष्ट और दृढ मत है कि नेपाल के क्रांतिकारी वाम आन्दोलन को विगत एक दशक के दौरान भारी धक्का लगा है । ने.क.पा.(ए-मा-ले) तो पहले से ही देंग के "बाज़ार समाजवाद" और ख्रुश्चेवी शांतिपूर्ण संक्रमण के मार्ग की राही रही है । मदन भंडारी के समय ही यह पार्टी बहुदलीय जनवाद की बात करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की लेनिनवादी अवधारना को छोड़ चुकी थी । प्रचंड की पार्टी ने भी एक दशक से भी अधिक पहले समाजवादी संक्रमण के दौरान बहुदलीय शासन-प्रणाली की अवधारणा प्रस्तुत करके वही राह पकड़ ली थी । लेकिन कम राजनीतिक चेतना के कारण कतारों में फिर भी लम्बे समय तक विभ्रम बना रहा । अब लेकिन विभ्रम का कुहासा काफी हद तक छंट चुका है I ने.क.पा.(माओवादी केंद्र) का विचारधारात्मक विचलन पूरी पार्टी के निचले स्तर के नेतृत्व और कतारों के एक हिस्से तक भ्रष्ट राजनीतिक-सामाजिक-व्यक्तिगत आचरण के रूप में प्रकट होने लगा है I पार्टी ढांचा का क्रांतिकारी चरित्र तबाह हो चुका है, सदस्यता एकदम चवन्निया हो गयी है, 4००० लोगों की (???) तो केन्द्रीय कमेटी है, नयी कतारों की राजनीतिक शिक्षा का स्तर शून्य है और उनमें असामाजिक तत्व भी घुस गए हैं I अब ने.क.पा.(ए-मा-ले) से एकता के फैसले की घोषणा के बाद ने.क.पा.(माओ.केंद्र) के "माओवाद" का पूरा पर्दाफ़ाश हो चुका है I संसदीय वाम बुर्जुआ जनवाद की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करता है, लेकिन नेपाल में तो इसने अपनी वफादारी इस कदर प्रमाणित की है कि पहली सुरक्षा-पंक्ति बन गया है ।

समस्या यह है कि प्रचंड को संशोधनवादी कहते हुए अलग राह लेने वाले किरण वैद्य या विप्लव जैसे लोगों से भी कोई उम्मीद नहीं है। अतीत में ऐसी तमाम पार्टियों के नेतृत्व ने अवसरवाद, उदारतावाद या बचकानेपन का परिचय दिया है । इनका व्यवहार अननुमेय है और भविष्य संदिग्ध I न तो इन संगठनों में नेपाल के क्रांतिकारी वाम का नया केंद्र बनाने की सामर्थ्य है, न ही उन तमाम अपरिपक्व छोटे-छोटे संगठनों में जो संशोधनवाद के विरोध और माओवाद/माओ विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अनुष्ठानिक दावा करते रहते हैं । इस मायने में नेपाल के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आन्दोलन को एक ऐतिहासिक धक्के का सामना करना पडा है । बहुत सारे भावुकतावादी कम्युनिस्टों में संशोधनवादी वाम गठबंधन की भारी जीत से यदि कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पैदा हो गयी हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि मिथ्या उम्मीद नाउम्मीदी से भी बुरी चीज़ होती है । एक अच्छी बात यह है कि नेपाल की संघर्षों में तपी-मंजी कम्युनिस्ट कतारों का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस बात को समझता जा रहा है और आने वाले दिनों में इसे वह और बेहतर तरीके से तथा और तेजी से समझेगा ।

नेपाल में कम्युनिस्ट आन्दोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं और अभी भी विभिन्न संगठनों में कर्मठ क्रांतिकारी कतारों की संख्या बहुत विशाल है I मौजूदा कोई भी सांगठनिक केंद्र इन्हें ऐक्यबद्ध करने और नेतृत्व देने की क्षमता नहीं रखता ।
लेकिन कतारों के बीच से किसी नयी क्रांतिकारी पहल और किसी नए क्रांतिकारी केंद्र के उदय की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता I बल्कि भविष्य तो इसी दिशा में इंगित कर रहा है ।


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यह लेख नेपाल में वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद आलोक रंजन ने लिखा था I ने.क.पा.(माओवादी केंद्र) और ने.क.पा.(ए.मा.ले.) की एकता से अत्यधिक उम्मीद पाले भारत के बहुतेरे कम्युनिस्ट सिद्धांत की समझ के मामले में बोदे हैं और वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह एकता दो कम्युनिस्ट पार्टियों की नहीं बल्कि बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में व्यवस्थित हो चुकी दो संशोधनवादी पार्टियों की एकता है जो राज्य और क्रांति के लेनिनवादी सिद्धांतों को छोड़कर बहुदलीय संसदीय प्रणाली और शांतिपूर्ण संक्रमण के ख्रुश्चेवी सिद्धांत तथा "शांतिपूर्वक उत्पादक शक्तियों का विकास करते हुए समाजवादी निर्माण करने" के देंग सियाओ-पिंग के सिद्धांत को अपना चुकी हैं I ए मा ले तो यह काम करीब तीन दशक पहले ही कर चुका था, एक दशक से कुछ पहले माओवादी भी यह कर चुके थे I विचारधारात्मक तौर पर जो राह काफी पहले पकड़ी गयी थी, अब वह चीज़ व्यवहार में एकदम खुलकर सामने आ रही है I आलोक रंजन ने स्पष्ट लिखा है कि एकीकृत संशोधनवादी पार्टी बुर्जुआ जनवादी क्रांति के बचे-खुचे कार्यभारों को तो एक क्रमिक प्रक्रिया और मद्धम गति से पूरा कर लेगी (क्योंकि यह तो नवउदारवाद के दौर की ज़रूरत है, नेपाल में पूँजी-निर्यात को गति देने के लिए), लेकिन समाजवादी क्रांति की दिशा में वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती I ऐसे में कालांतर में नेपाल नवउदारवादी भूमंडलीकृत दुनिया का, मध्य अमेरिका के छोटे-छोटे पिछड़े पूंजीवादी देशों जैसा एक देश बनाकर रह जायेगा, जहांकी श्रमशक्ति और कच्चे माल का दोहन साम्राज्यवादी ताकतें जमकर करेंगी I
इस बीच नेपाल की माओवादी पार्टी की कतारों, दूसरी पंक्ति के नेताओं और बुद्धिजीवियों में भरी असंतोष की खबरें आ रही हैं I कार्यकर्ता, जो कम राजनीतिक समझ के कारण यह नहीं समझ पा रहे थे कि पार्टी अपना क्रांतिकारी चरित्र पहले ही खो चुकी थी, वे अब खुलेआम कह रहे हैं कि प्रचंड ने सत्ता-लिप्सा में यह एकता की है और कतारों को अधर में छोड़कर ए.मा.ले. नेताओं के सामने घुटने टेक दिए हैं I ये कार्यकर्ता इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि संशोधनवाद की समान राह पकड़ने के बाद दोनों दलों के दुनियादार नेताओं ने (भारतीय संशोधनवादियों से भिन्न आचरण करते हुए) सत्ता के लिए "समझदारी से" काम लिया है ! ताजा समाचार यह है कि पूर्व ने.क.पा.(माओवादी केंद्र) के गोपाल किराती,लोकेन्द्र बिष्ट मगर आदि कई नेताओं ने इस एकता का विरोध किया है और माओवादी पार्टी के पुनर्गठन के लिए प्रयास की घोषणा की है I स्मरणीय है कि एक वरिष्ठ नेता आहुति (विश्वभक्त दुलाल) लगभग तीन माह पहले ही प्रचंड और पार्टी नेतृत्व पर संशोधनवाद का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ चुके थे और अब वे एक नए क्रांतिकारी केंद्र के गठन के लिए प्रयासरत हैं I किरण और विप्लव कुछ वर्षों पहले ही प्रचंड पर संशोधनवादी होने का आरोप लगाते हुए अलग हो चुके थे, हालांकि अपने खुद के वैचारिक अधकचरेपन के चलते वे स्वयं कोई कारगर विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पाए I अभी की स्थिति यह है कि नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन में क्रांतिकारी भावना और चरित्र वाले कार्यकर्ताओं की भरमार है, लेकिन उन्हें नेतृत्व देने वाला कोई सक्षम क्रांतिकारी केंद्र नहीं है Iजिन नए क्रांतिकारी केन्द्रों के गठन की प्रक्रिया अभी जारी है, वे किस हद तक एकजुट और विचारधारात्मक रूप से मज़बूत प्रयास में ढलकर कतारों की क्रांतिकारी अपेक्षाओं को पूरा कर पाएंगे, यह तो आने वाले कुछ वर्षों में ही पता चलेगा I
--- कात्यायनी की टिप्पणी (22 फरवरी,2018)

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