Sunday, December 03, 2017

विगत प्रेम के नाम पर देह-स्मृति का कामुक-ईर्ष्यालु मर्दवाद और कविता का नव-रीतिवाद





पूर्व प्रेमिकाएं / घनश्याम कुमार देवांश


मेरे बाद
वे उन छातियों से भी
लगकर रोयी होंगी
जो मेरी नहीं थीं
दूसरे चुम्बन भी जगे होंगे
उनके होठों पर
दूसरे हाथों ने भी जगाया होगा
उनकी हथेलियों को
उनकी लोहे-सी गरम नाक की
नोक ने
और गरदनों को भी दागा होगा
उन्होंने फिर धरी होगी
मछली की देह
किसी और के पानी में
वे किसी और के तपते
जीवन में भी पडी़ होंगी
पहली बारिश की बूँद-सी
उनके सुंदर कुचों ने फिर दी होगी
उठते हिमालय को चुनौती
मुझे नहीं पता
लेकिन चांँद सुलगता रहा होगा
और
समुद्र ने अपने ही
अथाह जल में डूबकर
जरूर की होगी
आत्महत्या की कोशिश
जब उन्हें पता चला होगा
(संग्रह - आकाश में देह)

अभी कुछ दिनों पहले देवांश की यह कविता युवा आलोचक आशीष मिश्र ने अपने फेसबुक पेज पर दी थी । आशीष हिन्दी के उभरते हुए प्रतिभावान और कुशाग्र-दृष्टि आलोचक हैं , पर इस कविता के बारे में मैं उनकी पसंद से किसी भी तरह से स्वयं को सहमत नहीं पाती ।
आखिर कविता का पुरुष अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं को क्यों और किस रूप में याद कर रहा है ? --- कि अब वे प्रेमिकाएँ किसी और की छाती से लगकर रो रही होंगी , दूसरे होठों को चुंबन दे रही होंगी , उनकी लोहे सी गरम नाक किसी और गर्दन को दाग रही होगी , मछली की देह धरकर वे किसी और के पानी में तैर रही होंगी , पहली बारिश की बूंद सी वे किसी और के तपते जीवन में पड़ रही होंगी और उनके सुंदर कुच कहीं और उठते हिमालय को चुनौती दे रहे होंगे । और यह पहेली सुलझाने के लिए तो मैं सिर ही पटकती रह गई कि इसका पता चलने पर चाँद क्यों सुलगता रहा होगा और अपने ही अथाह जल में डूबकर समुद्र ने आत्महत्या की कोशिश भला क्यों और कैसे की होगी ! अंतिम पंक्तियाँ तो मात्र अबूझ-अमूर्त शब्द-क्रीडा हैं , निखालिस तराशा हुआ रूपवाद -- केदार नाथ सिंह मार्का चमकते बिंबों वाला ।
कविता का पुरुष अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं को बस देह के रूप में , कामोत्तेजक देह के रूप में ही याद कर पा रहा है , उनके व्यक्तित्व का कोई भी अन्य आत्मिक-सौंदर्यात्मक पहलू , प्रेमसिक्त सानिध्य का कोई पल ... और कुछ भी उसे याद नहीं । और उसकी केंद्रीय टीस या ईर्ष्या का सबब यह है कि उसकी पूर्व-प्रेमिकाओं के वैसे ही प्रेम के क्षण अब किसी और के साथ बीत रहे होंगे , हालाँकि कविता में सुलगने का काम वह अपने बजाय चाँद को दे देता है और समुद्र से तो आत्महत्या ही करवा देता है ।
हिन्दी के प्रगतिशील कवियों की नब्बे प्रतिशत स्त्री और प्रेम विषयक कविताओं में स्त्रियाँ प्रगतिशील मर्दों की दया-करुणा-कृपा-सहायता की पात्र बनकर आती हैं , या फिर उनके प्रेम-प्राकट्य-अनुष्ठान का निमित्त , साधन या 'पैस्सिव रिसीवर' बनकर आती हैं । प्रेमिका बनकर आती हैं तो दिग-दिगंत में देह ही देह , मांस ही मांस भर जाता है , और माँ बनकर आती हैं तो आसमान में वात्सल्य का आँचल परचम की तरह लहराने लगता है और छलकता हुआ दूध धरती पर गिरकर बहने लगता है ।
मैं "सात्विक-शाकाहारी" प्रेम-कविता की वकालत नहीं कर रही हूँ । वाम कविता जीवन के स्वस्थ-स्वाभाविक यथार्थ को प्रस्तुत करती है और उसमें ऐंद्रिकता (सेन्सुअसनेस) होनी ही चाहिए जैसा कि फ़्रेडरिक एंगेल्स ने भी कहा था और इस गुण के लिए वेयेर्त की कविता की प्रशंसा की थी ।
पर प्रेम दोतरफा चीज़ होता है और उसका यौन पक्ष भी । इसलिए कविता में ऐंद्रिकता यदि इस रूप में आती है मानो नख-शिख-वर्णन हो , या स्त्री-शरीर पुरुष के रमण का साधन हो तो यह कविता की तश्तरी में प्रेम और स्मृति के रेशमी रुमाल से ढंका हुआ वही घिनौना मर्दवाद है । यानी जिस खिलौने से कभी वह खेलता था उससे अब कोई और खेलता है ! हाय रे हाय ! कैसी बदकिस्मती ! चाँद तुम सुलगो ! समुद्र तुम आत्महत्या कर लो !
पवन करण की एक कविता है -- 'स्तन' ('स्त्री मेरे भीतर') जिसमें एक स्त्री को कैन्सर से अपना एक स्तन गंवाना पड़ता है । कविता के पुरुष को सर्जरी से उसका जीवन बचाने की खुशी नहीं है , बल्कि वह मायूस है कि जिन्हें वह शहद का छत्ता , दशहरी आमों का जोड़ा आदि-आदि कहता था , जिनके बीच वह सिर धंसा देता था , उनमें से एक नहीं रहा । जैसा कि सूसन ग्रिफिथ लिखती हैं , पोर्नोग्राफ़र शरीर को हृदय-विहीन , मस्तिष्कविहीन वस्तु में बदल देता है , एक उपभोग्य वस्तु । इन अर्थों में पवन करण की कविता पोर्नोग्राफ़ी की ही श्रेणी में आती थी और इसपर तथा अनामिका की एक ऐसी ही कविता पर शालिनी माथुर ने 'कथादेश' (जून,2012) में विस्तार से लिखा था । उन्हीं तर्कों और मानकों से , देवांश की यह कविता भी इसी श्रेणी में आती है ।
पिछले दिनों मैंने इब्बार रब्बी की एक कविता पर एक पोस्ट लिखी थी ('क्या आपने किसी पुरुषवाची कविता का स्त्रीवाची पुनर्लेखन करके देखा है ?') । उस कविता में पुरुष स्त्री से कहता है : "तुम मिली मुझे / जैसे मेकेनिक को औज़ार / तुम मिली जैसे / बच्चे को खिलौना / तुम मिली जैसे / मजदूर को / बीड़ी का बंडल / जैसे रोगी को नींद / कवि को कविता / बछड़े को थन / मिली मुझे तुम ।" इस मासूम प्रेम की विह्वलता में भी स्त्री पुरुष के लिए उपयोग या क्रीडा की वस्तु ही है । देवांश की कविता इससे भी काफी नीचे स्तर की कविता है ।
कविता का पुरुष जिस रूप में अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं को याद कर रहा है , उससे पता चलता है कि उसने उन्हें किस रूप में प्यार किया था (यानी स्त्री और प्रेम के बारे में देवांश की कवि-दृष्टि क्या है !)
मार्क्स ने काफी पहले कहा था कि वास्तविक प्रेम वही है जो आपके वास्तविक वैयक्तिक जीवन की विशिष्ट अभिव्यक्ति होता है और जो बदले में भी प्रेम पैदा करता है । ऐंद्रिकता बेशक प्यार में अनिवार्य है , पर मात्र ऐंद्रिकता ही प्यार नहीं होती । फ्रांसीसी मार्क्सवादी दार्शनिक एलेन बेज्यू कहते हैं कि प्यार कभी दो 'नार्सीसिस्तों' के बीच का अनुबंध नहीं हो सकता । देवांश की कविता के पुरुष ने एक नार्सिसिस्ट की तरह (देह को) प्यार किया और अब उसीतरह से याद भी कर रहा है । वह बुर्जुआ समाज का वही औसत नागरिक है जो एरिक फ़्रोम के शब्दों में , अलगाव का शिकार होने के कारण अपने अकेलेपन से निजात पाने के लिए रोमानी प्यार को शरण्य बनाता है।
देवांश की कविता का पुरुष एक नार्सिसिस्ट है जो प्यार के नाम पर सिर्फ देह भोग करता रहा और अब उसे याद कर रहा है । वह प्यार था ही नहीं , प्यार का मिथ्याभास था । प्यार के बारे में वह 'मिथ्या चेतना' का शिकार है । स्लावोज जिज़ेक ठीक ही लिखते हैं : " प्यार वह है जो सेक्स को हस्तमैथुन से अधिक बनाता है । यदि प्यार नहीं है तो तुम यदि वास्तव में एक पार्टनर के साथ भी होते हो , तो उस पार्टनर के साथ हस्तमैथुन कर रहे होते हो ।"


2
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देवांश की कविता पर मेरी टिप्पणी पर आशीष का प्रतिवाद और मेरा प्रत्युत्तर

-- आशीष मिश्र

यह बिलकुल ज़रूरी नहीं है, कि एंद्रिकता अनिवार्य रूप से स्त्री-विरोधी हो और भावुकता उसके पक्ष में।

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घनश्याम कुमार देवांश के संग्रह में कई प्रेम कविताएँ हैं। इनमें से ब्रेकअप शीर्षक से एक-दो कविताएँ तो वाक़ई उल्लेखनीय हैं। इन तमाम कविताओं को छोड़ते हुए मैंने ‘पूर्व प्रेमिकाएँ’ शीर्षक कविता साझा किया तो इसके पीछे कारण था। मैं बिलकुल जानता हूँ कि यह एक औसत कविता है। बल्कि घनश्याम कुमार देवांश के संग्रह में औसत से आगे की कोई कविता नहीं है। इसी तरह उनके संग्रह में औसत से नीचे की भी कोई कविता नहीं है। लेकिन इस कविता की आन्तरिक संरचना में एक बात थी जिस पर और जिसके बहाने मैं एंद्रिकता, कामुकता और स्त्री-अस्मिता पर कुछ बात करना चाहता था।
इसे स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है, कि मैं इस विषय पर असपष्ट था, अब भी होऊंगा। अब भी तमाम संशय हैं, तमाम अनिश्चितताएँ हैं। और क्यों अपेक्षा हो कि हर व्यक्ति हर बात पर एकदम निश्चित ही हो, हर बात समझ चुका हो और उसके पास हर बात का जवाब हो। हर बात का जवाब और हर विषय में निश्चितता किसी मूर्ख के पास ही हो सकता है। शायद हम एक संवाद की प्रक्रिया में, साथ-साथ ही कहीं पहुँच सकते हैं।
यह एक सामान्य समझ है, कि जैसे ही हम कोई संरचना बनाते हैं तो तो एक बहुत बड़ी दुनिया उससे बाहर हो जाती है। किसी कागज पर कोई वृत्त खीचते ही बहुत बड़ा हिस्सा इससे बाहर रह जाता है। यह हमेशा होगा, इसका कोई तरीका नहीं है। अब मौजूद संरचना और छूटे हुए हिस्से पर दो तरह से बात हो सकती है। एक यह कि इस मौजूद भाषिक संरचना में कौन सा हिस्सा छूट गया है और क्यों छूट गया है? यह ज़रूरी प्रश्न है, और इसपर हमेशा ही ध्यान देना चाहिए। हाशिया और वृत्त की अपनी राजनीति है। दूसरे मौजूद भाषिक संरचना को हम इस तरह देख सकते हैं, कि जो दुनिया उसके भीतर आयी हुई है उसकी आन्तरिक संगति-असंगति क्या है। पृष्ठ पर मौजूद भाषिक संरचना के भीतर की दुनिया कितनी यथार्थ और उसका विरूपण है। इस तरह भी देख सकते हैं कि उस संरचना में आयी हुई दुनिया के भीतर की राजनीति क्या है।
कहने का अर्थ यह है कि हम एक संरचना से उसके आयतन के हिसाब से ही अपेक्षाएँ कर सकते हैं। दस पंक्तियों की एक कविता से हम महाकाव्य वाली अपेक्षा तो नहीं ही कर सकते हैं न ! एक कविता जो किसी प्रेम को बहुत भावुक ढ़ंग से रचती है, हम उससे एंद्रिकता की माँग करें तो थोड़ी ज़्यादती है। इससे न्यायपूर्ण तरीका यह है कि हम उस भावुकता की राजनीति को समझें। हम देखें कि इस भावुकता में कामुक इच्छाएँ इच्छित को कैसे देखती हैं। हम देखें कि क्या कहीं इच्छित का भी सक्रिय हस्तक्षेप है या नहीं। मसलन अगर आप रोमॅन्टिक प्रेम कविताओं को देखें तो यहाँ प्रेमिका किसी आईने की तरह मिलेगी। जिस आईने से प्रेमी कवि की कामुक इच्छाएँ आदर्शीकृत होकर परवर्तित हो रही हैं। यहाँ प्रेमिकता एक रूपहीन आईना है। यह प्रेमी की इच्छाओं के लिए निष्क्रिय लेकिन ग्लोरीफ़ाइड चीज़ है। यहाँ प्रेमिका की इच्छाएँ और उसकी पहचान महत्त्वहीन है। और अगर थोड़ा और धैर्य से, थोड़ा और ध्यान से देखें तो उस अमूर्त आईने से और उदात्त होकर लौट रही उसी कामुक इच्छाएँ एक संकेंद्री वृत्तों वाली संरचना बनाते हुए उसे प्रगीत में बदल देते हैं। और ठीक से खोलिए तो इसके केन्द्र में ऊपर से बहुत भावुक लेकिन अंदर से अहंग्रस्त मर्द मिलेगा।
इसी तरह जो कविता प्रेम के किसी एक पक्ष हो या प्रेम संबंध के किसी एक पक्ष के किसी उलझी हुई बात को कहना चाहती है तो उससे अन्य पक्षों की माँग बहुत न्यायपूर्ण नहीं है। अगर कोई कविता प्रेम संबंध के सिर्फ़ एंद्रिक पक्ष को रचने की कोशिश करती है, तो उससे मौजूद संरचना में ही अन्यान्य पक्षों की माँग करना तार्किक नहीं है। इससे अच्छा संभवतः यह होगा कि हम देखें कि इस एंद्रिकता के भीतर स्त्री की अवस्थिति क्या है। हम देखें कि हमारे सामने मौजूद संरचना स्त्री देह को कैसे रचती है। हम देखें कि यह एंद्रिक कविता स्त्री यौनिकता को कैसे रचती है।
लेकिन होता यह है कि जहाँ थोड़ी सी एंद्रिकता दिखी नहीं कि वहाँ से हम आँख बचा के, दैव! दैव! करते भागे। यह मुँहचोर आलोचना एंद्रिकता देखते ही उसे स्त्री-विरोधी भी समझ लेती है। टेक्स्ट में उतरे बिना उसे स्त्री-विरोधी और प्रगतिशीलता विरोधी सब समझ लेती है। मैं चाहता हूँ कि पाब्लो नेरुदा की पचासों कविताओं का उदाहरण दूँ। मैं चाहता हूँ कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तमाम कविताओं को कोट करूँ। मैं शमशेर बहादुर सिंह की कविता कोट करूँ, मन हो रहा है दुनिया भर की तमाम स्त्रीवादी और LGBT पहचानों से जुड़े कवियों की कविताएं कोट करूँ, लेकिन अपना मन मार रहा हूँ। इन कविताओं को दो बातों के संदर्भ में हवाला देने के लिए कोट करना चाहता था कि हम इसे जान लें कि प्रेम की नितांत एंद्रिक कविताएँ भी हो सकती हैं और एंद्रिक होने के नाते वे स्त्रीविरोधी नहीं हो जातीं।
थोड़ा रुकिए, मन नहीं मान रहा है, शमशेर की इन पंक्तियों को कोट ही कर दूँ।

“तुम मेरी पहली प्रेमिका हो
जो आईने की तरह साफ़
बदन के माध्यम से ही बात करती हो
और शायद (शायद)
मेरी बात साफ़-साफ़
समझती भी हो
प्यारी, तुम कितनी प्यारी हो ।
वह कांसे का चिकना बदन हवा में हिल रहा है
हवा हौले-हौले नाच रही है ...........”

इन पंक्तियों में कम एंद्रिकता नहीं है, लेकिन मैं यह बताना चाहता हूँ कि किसी व्यक्ति के शुरुआती प्रेम में एंद्रिकता और कामुकता ही ज़्यादा हो सकती है। यह कोई असामान्य बात नहीं है। लेकिन जहाँ हमने एंद्रिकता देखी नहीं कि हमें पोर्नोग्राफ़ी ही नज़र आने लगती है। और फिर मन अपने आप भाग भाग डी के बॉस बोलने लगता है। आप ध्यान से देखिए तो कृष्णपल्लवी जी ने कविता के अंतरसूत्रों पर बिना बात किए हुए, बिना उसमें उतरने का कोई प्रयास किए हुए पॉर्न पॉर्न कहकर निकल लेती हैं। इस बिदकू आलोचना का मूल आंतरिक कारण भीतर बैठी आर्यसमाजी नैतिकता है। यह हर जगह हो सकती है। यह किसी प्रगतिशील व्यक्ति में हो सकती है, किसी स्त्री में हो सकती है, किसी विमर्श के लिए तैयार व्यक्ति में भी हो सकती है। पूरे नौजागरण के दौरान जो बिक्टोरियन नैतिकता छाई रही, उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं हमारे मन में। जब हम उस दौर के जातीय और सांप्रदायिक विमर्श से नहीं निकल पाये तो कामुकता और नैतिकता का प्रश्न तो अभी बहुत आगे का है। इसपर तो अभी ठीक-ठाक विमर्श के प्रति हम सचेत भी नहीं हुए हैं। यह समझना होगा कि अगर हम हर चीज़ को पोर्नोग्रैफिक कहकर बिना उसे समझे, खारिज करते जाएँगे तो, एक दिन वही बचेगा और हम सिमटकर अपनी पवित्र आत्म-बद्धता तक सीमित रह जाएँगे। लगातार नकार की भावना हमें पवित्र होंने की भावना तो पैदा करती है, लेकिन फिर हमारे अलावा बकिया सब अपवित्र ही बचते हैं। और एक दिन हमारी पवित्र आत्मबद्धता के खिलाफ़ कथित अपवित्रा ही खड़ी हो जाती है।
देवांश की कविता एक सामान्य कविता है, लेकिन इसकी आंतरिक यौनिक राजनीति में बहुत सजगता है। इसमें प्रेमी और प्रेमिका की उपस्थिती में एक सहकार है, जो सामान्यतः पुरुषों की कविताओं में नहीं पायी जाती। इस कविता में स्त्री यौनिकता कहीं भी दबी हुई नहीं है। यह बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि लगभग समाजों में स्त्री यौनिकता की कोई जगह ही नहीं है। शिश्न केन्द्री व्यवस्था में स्त्री का आनन्द खुद स्त्री के अन्दर पैदा नहीं होता। उसकी यौनिकता, उसकी कामुक इच्छाएँ लिंग केन्द्री व्यवस्था में ही व्याख्यायित होती हैं। उसकी निष्क्रियता को ही उसकी प्राकृतिक यौनिक पहचान बना दिया जाता है। इसलिए होता यह है कि जहाँ उसकी यौनिकता थोड़ी भी उभर के आने की कोशिश करती है, वहीं हमारा नैतिक मन या तो दैव ! दैव ! करने लगता है या फिर पॉर्न पॉर्न बोलने लगता है। एक चुप्पी के बीच सुई गिरने पर भी कई मेगा हर्ट्ज़ की अनुगूँज पैदा होती है।
देवांश की कविता में प्रेमी अपनी पूर्व प्रेमिका को याद कर रहा है। और इसमें सिर्फ़ ऐंद्रिक अनुभवों को याद करता है। लेकिन, देखना यह है कि इस एंद्रिक अनुभव में उस प्रेम की सक्रियता कितनी है। देखना यह है कि अधिसंख्य कविताओं की तरह स्त्री यौनिकता की चुप्पी यहाँ भी है या कुछ अनुगूँज है। ऐसा देखते हुए आपको मिलेगा कि इस याद में उसकी प्रेमिका की यौनिक सक्रियता उतनी ही है जितनी कि पुरुष कवि की। आप देखेंगे कि एक बन्द में पुरुष अपने को सक्रिय रच रहा है तो उसके ठीक अगले बन्द में प्रेमिक उतनी ही सक्रियता से सामने है। नीचे इन पंक्तियों में पहले बन्द के बाद दूसरे बन्द को देखिए-

“मेरे बाद
वे उन छातियों से भी
लगकर रोयी होंगी
जो मेरी नहीं थीं
दूसरे चुम्बन भी जगे होंगे
उनके होठों पर
दूसरे हाथों ने भी जगाया होगा
उनकी हथेलियों को
उनकी लोहे-सी गरम नाक की
नोक ने
और गरदनों को भी दागा होगा
उन्होंने फिर धरी होगी
मछली की देह
किसी और के पानी में”

आप देखिए कि पहले बन्द में कर्ता पुरुष है और दूसरे बन्द में कर्ता स्त्री है। प्रेम कविताओं में कर्ता और कर्म की इस अवस्थिति से यौनिक सक्रियता का सबसे प्रामाणिक अनुमान लगाया जा सकता है। अब इसके साथ अगला बन्द देखिए-

“वे किसी और के तपते
जीवन में भी पडी़ होंगी
पहली बारिश की बूँद-सी
उनके सुंदर कुचों ने फिर दी होगी
उठते हिमालय को चुनौती”

इस बन्द में कर्ता की अवस्थिति और वस्तु-सम्बन्धों में प्राथमिक और गौड़ की पहचान करने पर पता चलेगा कि स्त्री कर्ता भी है और प्राथमिक भी। कृष्णपल्लवी जी ने समुद्र के आत्महत्या करने वाली पंक्ति को ऐसा रहस्य बनाया है जो सुलझ ही नहीं रहा है ! दरअसल कविता से छूटकर भागने वाली प्रवृत्ति उसके आंतरिक भाव-सम्बन्धों पर सोचने ही नहीं देती।

मुझे नहीं पता
लेकिन चांँद सुलगता रहा होगा
और
समुद्र ने अपने ही
अथाह जल में डूबकर
जरूर की होगी
आत्महत्या की कोशिश
जब उन्हें पता चला होगा।

यह रहस्य लगने का कारण यह है कि कृष्णपल्लवी जी कविता में ईर्ष्य खोज रही हैं। और उसके ईर्ष्य खोजू दृष्टि में एक सहज-सी कविता भी उलझ गयी है। कविता में कहीं भी ईर्ष्य नहीं है। ज़रूरी नहीं है कि हर रकाबत में ईर्ष्य हो। यह बात समझने के लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘रक़ीब से’ फिर पढ़ लेना चाहिए। कविता में प्रेमिका अब भी इच्छित है। अब भी प्रेमी को उसके सौंदर्य पर गर्व है। वह कह रहा है कि मुझे ही क्या, जब समुद्र को पता चलेगा कि उसे उसका साथ नहीं मिल सकेगा तो वह आत्महत्या कर लेगा ! चाँद सुलगने लगेगा। अब अगर कोई आत्महत्या और सुलगने को मरना और जलना पढ़ रहा है तब तो पूरी फ़ारसी और उर्दू कविता का दिवाला निकल जाएगा। वहाँ तो प्रेमिकाएँ हमेशा खंजर ही लिए घूमती हैं और प्रेमी लोग कलेजे में खंजर लिए हुए सिसकते रहते हैं!
अगर आप इस इस प्रेमी की मनो-निर्मिति समझना चाहते हैं तो यह समझें कि प्रेमी की इच्छाएँ अपूर्ण हैं। अभी प्रेमिका उसके लिए इच्छित है, लेकिन अब वह सम्बन्धों में नहीं है। इसलिए वह अपनी अपूर्ण कामुक इच्छाओं को दूसरे पर आरोपित कर रहा है। वह अब भी उसे काम्य है। इस कविता में न तो अन्य पुरुष से कोई ईर्ष्य है न प्रेमिका से घृणा। अगर आप कविता को समझना चाहते हैं तो बहुत आसान है, लेकिन अगर नहीं समझना चाहते तो रहस्य लगेगी। इसलिए ज़रूरी है कि किसी तरह की लेबलिंग करने के बजाय इसकी सीमाओं के साथ इसे पढ़ा जाए। इसे पढ़ते हुए यह भी ध्यान रखा जाए कि यह एक पुरुष की कविता है। वह पुरुष जो इसी कुंठित और ठस्स सामाजिक-संरचना का हिस्सा है। अगर वह कहीं से जरा भी इस संरचना को दरकाने का प्रयास कर रहा है तो उसकी पहचान कीजिए। जल्दबाज़ी और लेबलिंग के चक्कर में घर का भी धन घूरे पर चला जाएगा।
तमाम और बातें भी हैं, तमाम और प्रश्न कृष्णपल्लवी जी की टिप्पणी में मौजूद हैं, लेकिन अब न लिखा रहा ! अब थक गये। अब नहीं। इस टिप्पणी के चक्कर में आज मेरा दैनंदिन काम अव्यवस्थित हो गया। जहाँ कुछ गलती हो उसे सुधार के पढ़ लीजिएगा, अब दुबारा पढ़ने की हिम्मत भी नहीं है।

                                   ***  ***

मेरा प्रत्युत्तर 

-- कविता कृष्णपल्लवी
 आशीष ने देवांश की कविता का एक अलग पाठ प्रस्तुत किया है । मैं अभी भी उनके अभिमत से सहमत नहीं हूँ । पहली बात , मैंने अपनी टिप्पणी में ही (एंगेल्स और वेयेर्त के हवाले से ) यह स्पष्ट किया है कि ऐंद्रिकता मेरे लेखे कोई आपत्तिजनक चीज़ नहीं है , बल्कि जीवन के प्रति स्वस्थ भौतिकवादी दृष्टि वाली कविता में वह होगी ही , होनी ही चाहिए । सवाल यह है कि वह ऐंद्रिकता कहीं पौरुषेय कामुकता के प्रवाह में स्त्री का वस्तुकरण तो नहीं करती ! गौर करें कि यह कविता स्मृति की कविता है । और कवि जब पूर्व-प्रेमिकाओं को याद करता है तो उसे केवल अपनी और उनकी कामातुरता के क्षण ही याद आते हैं । प्रेमिकाओं के साथ सानिध्य और प्रेम के अन्य जो भी क्षण बिताए गए , स्मृतियों में वे कहीं नहीं हैं । हम यह कहकर कवि को छूट नहीं दे सकते कि एक छोटी सी कविता में कवि क्या-क्या कह दे !कवि के जीवन , स्त्री और प्रेम के प्रति अप्रोच को जानने के लिए कविता की काया छोटी-बड़ी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता ।
 कवि की दृष्टि को अनावृत्त करने के लिए इस बात को ध्यान दिया जाना चाहिए कि कविता में कोई एक प्रेमिका कवि की अपूर्ण कामुकताओं के लिए इच्छित नहीं है जो ऐसी है कि जिसका साथ न मिलने पर चाँद सुलगने लगेगा और समुद्र आत्महत्या कर लेगा , जैसा कि आशीष व्याख्या कर रहे हैं । आशीष इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि यह कविता किसी एक पूर्व-प्रेमिका के लिए नहीं बल्कि कई पूर्व-प्रेमिकाओं के लिए है । यानी कवि अपनी तमाम पूर्व-प्रेमिकाओं को लेकर ईर्ष्याग्रस्त है और उन सभी की कामना कर रहा है । तब तो इसे प्रेम-कविता नहीं एक कामातुर कविता या स्त्रीलोलुप कविता कहना ज़रा भी गलत नहीं होगा । कवि को एक नहीं अपनी सारी पूर्व-प्रेमिकाएँ एक साथ याद आ रही हैं उद्दाम ऐंद्रिकता के साथ । यह एक बीमार ऐंद्रिकता है , जो स्त्री के प्रति कवि के उसी नज़रिये को प्रमाणित करती है जिसकी चर्चा मैंने अपनी टिप्पणी में की है । आशीष का कहना है कि यह एक पुरुष की कविता है जो इसी कुंठित और ठस्स सामाजिक संरचना का हिस्सा है ,अतः वह यदि इसे ज़रा भी दरकाने की कोशिश करता है तो उसे समझा जाना चाहिए । पहली बात तो यह कि इस आधार पर किसी कवि या रचना को छूट देना वैज्ञानिक आलोचना की पद्धति नहीं है । कवि किसी जड़ीभूत संस्कार या संरचना पर चोट नहीं करता, वह एक साथ अपनी कई पूर्व-प्रेमिकाओं को नितांत 'सेन्सुअस' ही नहीं बल्कि 'इरोटिक' रूप में याद करता है और इसतरह 'वलगर' हो जाता है । कई पूर्व-प्रेमिकाओं को याद करते हुए कविता जिसतरह सामान्यीकरण करती है , वह स्त्री का भोंडा वस्तुकरण है । यह मानवीय सारतत्व से रिक्त विघटित और आत्म-निर्वासित व्यक्तित्व को ही दर्शाता है । आगे ज़रूरत पड़ी तो इस कविता की निर्मिति को और खोलकर इसके अंतर्निहित मूल्यों पर अपनी बात रखूंगी ।

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देवांश की कविता 'पूर्व-प्रेमिकाएँ' पर जारी बहस में आशीष मिश्र के साथ आगे का संवाद 
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(चार साल पहले की इस बहस का पूर्वांश कल पोस्ट किया था)
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आशीष मिश्र --

 मैम, किसी कविता का एक निश्चित आयतन होता है। उसकी सीमा होती है। इसमें हमेशा ही बहुत बड़ी दुनिया छूट जाती है। इस छूटी हुई दुनिया पर बात करना गलत नहीं है लेकिन मेरा उद्देश्य कविता में मौजूद दुनिया का विश्लेषण है। इस बारे में मैने शुरुआत में ही लिखा है
यह सिर्फ ऐंद्रिक स्मृतियों की कविता है। इसमें जीवन की और कोमल-कठोर स्मृतियाँ होतीं तो शायद और अच्छी कविता होती। लेकिन इसमें जो ऐंद्रिक स्मृतियाँ हैं, जो यौनिक स्मृतियाँ हैं उनमें स्त्री की सहभागिता कितनी है? क्या यह स्त्री यौनिकता को उसी तरह रचती है जो समाज में सामान्य है? क्या यह उसकी यौनिक चुप्पी को तोड़ती नहीं?
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कविता कृष्णपल्लवी --

आशीष , मैं फिर विनम्रता से अपना मतभेद रखना चाहती हूँ । पहली बात , यह कविता स्मृतियों की कविता है और एक स्वस्थमानस व्यक्ति के साथ ऐसा कत्तई नहीं हो सकता कि पूर्व-प्रेमिकाओं की कोमल-कठोर आत्मिक-सौंदर्यात्मक स्मृतियों को एकदम काटकर वह सिर्फ ऐंद्रिक-यौनिक रूप में उन्हें याद करे । दूसरी बात , कविता का पुरुष किसी एक नहीं , बल्कि सभी पूर्व-प्रेमिकाओं को एक साथ ऐंद्रिक-यौनिक रूप में याद करता है ( यह मेरी सर्वाधिक गंभीर आपत्ति है) । यह तो प्यार या स्वस्थ ऐंद्रिकता न होकर मानसिक लंपटपन और अतृप्त-कुंठित-बीमार देहभोगवाद ही हो सकता है । तीसरी बात , कविता के पुरुष की सभी पूर्व-प्रेमिकाएँ लोहे की गरम नाक से गर्दनों पर दागती हैं , छाती से लगकर रोती हैं , सुंदर कुचों से उठते हिमालय को चुनौती देती हैं और सभी की सभी ऐसी अद्वितीय हैं कि उनके दूसरे के साथ होने और अभिसार करने का पता चलाने पर चाँद भी सुलगने लगेगा और समुद्र भी आत्महत्या कर लेगा । ये एक ही साँचे में ढली पूर्व-प्रेमिकाएँ कहाँ से मिल गईं उस पुरुष को ? यह अतिसामान्यीकरण वस्तुतः स्त्री का वस्तुकरण ही है , और कुछ नहीं । और यही सामान्यीकरण कविता को निहायत बनावटी भी बनाता है । चौथी बात , कविता की यौनिक-ऐंद्रिक मुखरता स्त्री की अपनी मुखरता या सहभागिता कत्तई नहीं है । यह कविता के पुरुष का बयान है , पूर्व-प्रेमिकाओं का नहीं । छाती से लगकर रोना , लोहे-सी गरम नाक से गर्दनों को दागना , मछली की देह धरकर पुरुष के पानी में उतरना , सुंदर कुचों से हिमालय को चुनौती देना --- ये सब कविता के पुरुष की अनुभूतियाँ हैं और उसीका बयान हैं (और ये बातें प्रणय-प्रसंग में एक पुरुष एक व्यक्तित्वहीन स्त्री के बारे में भी कह सकता है , जो ऐंद्रिक तौर पर उसे सम्मोहित करती हो) । ये स्त्री-यौनिकता की पुरुष द्वारा प्रस्तुत अभिव्यक्तियाँ हैं । और ऐसी स्त्री-यौनिकता की रचना हिन्दी के पुरुष कवि पचास और साठ के दशक में बहुत अधिक कर रहे थे । इस कविता में स्त्री स्वयं अपनी यौनिक चुप्पी नहीं तोड़ रही है बल्कि कवि यहाँ स्त्री-यौनिकता का पुरुषवादी पाठ प्रस्तुत कर रहा है ।

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