यूँ तो संस्कृत का अध्ययन प्राचीन और प्रारम्भिक मध्य कालीन भारत के इतिहास के अध्येताओं के लिए ही प्रासंगिक हो सकता है। लेकिन घोंघाबसंत भक्तजन और संघी आँगन की तुलसी यह नहीं समझती कि संस्कृत पढ़ने के बाद यदि आम पाठक सांख्य के प्रणेता कपिल, वैशेषिक के प्रस्थापक कणाद, न्याय दर्शन के जनक गौतम अक्षपाद, 'प्रमाणवार्तिकम्' ग्रंथ के रचयिता बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति और मूल आयुर्वेद के जनक चरक और सुश्रुत आदि के भौतिकवादी विचारों को जान लेगा तो हिन्दू धर्म के प्राचीन गौरव की तो क़ब्र ही खुद जायेगी। यही नहीं, उपनिषदों, ब्राह्मण संहिताओं और पुराणों में वर्णित ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं के व्यभिचार, दलितों पर हुए बर्बर अत्याचारों और गोमांस भक्षण के हवालों से आम लोग यदि परिचित हो गये तो हिन्दुत्व के प्राचीन गौरव और पूजनीया गो माता का मिथक तो चूर-चूर होकर मिट्टी में ही मिल जायेगा।
भारतीय दर्शन और इतिहास की एक समृद्ध नास्तिक और भौतिकवादी परम्परा भी है। संघी बागड़बिल्ले तो उसे जानते भी नहीं, लेकिन आम शिक्षित लोग उन्हें जान जायें तो इन बकलोलों का क्या होगा! वह तो भला हो इस शिक्षा व्यवस्था का कि इतिहास की ये सच्चाइयाँ कभी आम लोगों के सामने आ ही नहीं पातीं। प्रेम से बोलो, भारत माता की जय, गो माता की जय।
सारा ज्ञान-विज्ञान यदि वेदों में है, तो उसके लिए तो वैदिक संस्कृत पढ़ना पड़ेगा। संस्कृत से काम नहीं चलेगा। वैदिक संस्कृत उससे एकदम अलग है। आई.आई.टी. में वैदिक संस्कृत पढ़ाना पडे़गा।
आई.आई.टी. की पाठ्यपुस्तकें अब गीताप्रेस, गोरखपुर से छपेंगी। आई.आई.टी. में प्रोफेसरी के लिए काशी के पण्डितों में से चयन किया जायेगा।
आई.आई.टी. में प्रवेश के पहले सभी छात्रों को पवित्र पंचगव्य ग्रहण करना होगा। पंचगव्य यानी गाय का गोबर, गाय का मूत्र, गाय का दूध, गाय के दूध की दही और घी का मिक्श्चर। इसे खाने से प्रज्ञा चक्षु खुल जायेंगे और भारत विज्ञान का विश्वगुरु बन जायेगा।
वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृवाद: स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेप:।
संतापारम्भ: पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पंचलिंगानि जाड्ये।।
अर्थात् , वेद को प्रमाण मानना, किसी (ईश्वर) को सृष्टिकर्ता मानना, स्नान (करने) में धर्म (होने) की इच्छा रखना, जातिवाद (छोटी-बड़ी जात-पात) का घमण्ड, और पाप दूर करने के लिए शरीर को संताप देना... ये पाँच है अकलमारे लोगों की मूर्खता की निशानियाँ।
-- सौतांत्रिक योगाचारी बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति(प्रमाणवार्तिकम्)
निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तवंतु ।
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अधैव वा मरणमस्तु युगांतरे वा ।
न्याय्यात् पथा प्रविचलंति पदं न धीश: ।
अपने अल्प संस्कृत ज्ञान से इसका जो अर्थ मैंने लगाया : नीतिनिपुण (चालाक) लोग निन्दा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) रहे या जाये, मौत चाहे अभी आये या लम्बे समय बाद आये, अच्छे लोगों के कदम न्याय के रास्ते से कभी विचलित नहीं होते।
परोक्षे कार्यहंतारं, प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
प्राचीन आचार्यों ने भी ऐसे लोगों से सावधान रहने को कहा है जो सामने मीठा बोलते हैं और पीठ पीछे आपके कामों का बेड़ा गर्क करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं।
न स्वर्गी नापवर्गी या मेवात्मा पारलौकिक:
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिका
अग्निहोत्र त्रयोवेदा स्त्रिदंड भस्म गुंडम
बुद्धि पौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता:
-- चार्वाक दर्शन
अर्थात, न स्वर्ग है न मोक्ष और न आत्मा परलोक में जाती है। वर्ण और आश्रम की क्रियाएँ भी फल देने वाली नहीं हैं। यज्ञ और वेद, तीन प्रकार के दंड, भस्म लगाना -- ये सब बुद्धि-पौरुष से रिक्त लोगों की जीविका के साधन हैं, जिन्हें उनके पूर्वजों ने बनाया है।
(चार्वाक या लोकायत दर्शन भारत के आदिभौतिकवादी दर्शन - स्कूलों में आजीवक के बाद दूसरा था। यह सांख्य, न्याय, वैशेषिक -- षड्दर्शन के इन तीन भौतिकवादी स्कूलों से काफी पुराना था। ब्राह्मणों ने चार्वाकों का बर्बरतापूर्वक दमन किया, उनकी अधिकांश कृतियों को नष्ट कर दिया और उन्हें तरह-तरह से बदनाम किया। फिर भी यहाँ-वहाँ उनके कुछ श्लोक या कथन मिल जाते हैं। उपरोक्त श्लोक ऐसा ही एक श्लोक है। लोकायत दर्शन पर सर्वाधिक गहन-गम्भीर शोध ग्रंथ देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय का है।)
कोई बहुत शरीफ़ और बहुत मासूम दीखता है तो मुझे शक होता है। अगर कोई वाक़ई बहुत शरीफ या बहुत मासूम है तो भेड़िये ने अबतक उसे खाया क्यों नहीं! अबतक वह बचा हुआ कैसे है?
No comments:
Post a Comment