Friday, May 20, 2016

देवी प्रसाद मिश्र के कवि कर्म पर कुछ बातें






'अन्वेषा' की ओर से देवीप्रसाद मिश्र के रचनापाठ और बातचीत के कार्यक्रम में देवीप्रसाद मिश्र के सृजनकर्म पर कविता कृष्णपल्लवी का वक्तव्य:

हम इतिहास के एक वैसे ही अँधेरे दौर में जी रहे हैं, जैसे दौर के बारे में ब्रेष्ट ने कहा था :
''सच है कि मैं अँधेरे वक्तों में जीता हूँ
जब एक निष्कपट शब्द मूढ़ता है,
एक सपाट मस्तक संवेदनहीनता का संकेत।
जो आदमी हंस रहा है
उस तक अभी भयानक खबर पहुँची नहीं है।''
उन्मादी शक्तियाँ तर्क, विवेक और भविष्य-स्वप्नों के हर ठीहे पर धावा बोल रही हैं और ब्रेष्ट के ही शब्दों में हम बार-बार खुद से सवाल कर रहे हैं कि -
''यह किस तरह का समय है
जब पेड़ों के बारे में बात करना लगभग अपराध है
क्योंकि इसका मतलब
इतनी सारी दहशत के समक्ष एक खामोशी है।''
लेकिन पृथ्वी पर जब तक मनुष्य की ज़ि‍न्दगी धड़कती रहेगी, तब तक तमाम पराजयों, मोहभंगों, विभ्रमों, संशयों और दुविधाओं के बावजूद यथास्थिति की आलोचना और अस्वीकार की आवाज़ें उठती रहेंगी, दु:स्वप्नों के बीच कुछ रचनात्मक स्वप्न देखे जाते रहेंगे और भविष्य-संधान जारी रहेगा। पूँजी के भूमण्डलीय वर्चस्व और फासिस्टी बर्बरता के घटाटोप के इस दौर में भी हिन्दी कविता में बारीक रेशमी कढ़ाई और सुगढ़ तराश वाली बनी-ठनी, छैल-छबीली, अकड़ू कविताओं से अलग ऐसे निर्भीक स्वर मौजूद हैं जो मौजूदा समय और समाज का बेलागलपेट 'क्रिटीक' पेश करते हैं और हमें उस घुटन का अहसास दिलाते हैं जिससे बाहर निकलने का रास्ता हमें स्वयं ही ढूँढ़ना है। देवी प्रसाद मिश्र हमारे समय के एक ऐसे ही कवि हैं जो बेबाक-बेलौस अन्दाज में हमारे सामाजिक-राजनीतिक परिवेश और आत्मिक जगत की सरी विडंबनाओं, त्रासदियों, उम्मीदों और शंकाओं-चिन्ताओं को शब्द देते हैं। देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जीवन का इकहरा चित्र और एकरेखीय गति नहीं है। उनके पास आशावाद का कोई रोमानी, रेडीमेड फार्मूला नहीं है। उनकी कविता संदेह और विश्वास के निरंतर संघातों के बीच से गुजरती हुई हमारे समय और समाज का क्रिटीक प्रस्तुत करती है। उनकी कविता की सारी जद्दोजहद एक जीवन दृष्टि को निरंतर खोजने और विकसित करने की जद्दोजहद है। उनका 'विज़न' कहीं भी अनुभववादी प्रेक्षण में विन्यस्त होकर नहीं रह जाता। अपने कॉमन सेंस, या सहज बोध, और इंट्यूशन, या अन्तर्दृष्टि के ज़रिए चीजों को देखते हुए वे एक जीवन-दृष्टि या विश्व-दृष्टि का सर्जनात्मक संधान करते हैं।
यथार्थ और फन्तासी को एक-दूसरे में बदल देने का जादू, ज़ि‍न्दगी और सपनों के बीच आवाजाही करते रहने का हुनर, थोड़ा संशय, थोड़ा दिमागी ख़लल, थोड़ी बेतरतीबी, थोड़ा बचकानापन, थोड़ी यायावरी वगैरह कविता लिखने की ज़रूरी पूर्वशर्तें हैं। लेकिन हमारी जीवन-दृष्टि और जीवन की गति के नियमों की समझ ही हमारी कविता को प्रामाणिक बनाती है। अन्यथा जितनी अधिक कला होती है, कवि उतना ही संदिग्ध और अविश्वसनीय होता चला जाता है। देवी प्रसाद मिश्र की कविता विश्वसनीय और प्रामाणिक इसलिए लगती है क्योंकि समकालीन यथार्थ के कलात्मक पुनर्सृजन के लिए वह एक इतिहासकार, एक स्वप्नद्रष्टा और अन्त:करण के रिपोर्टर की अन्तर्दृष्टियों को साथ-साथ अपनाती है और अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिए संरचना और शिल्प की चौहद्दी के भीतर काफी उथल-पुथल मचाती है, और यहाँ तक कि, तोड़-फोड़ भी करती है। देवी प्रसाद शायद सिद्धों और नाथों से सीखे किसी जादुई विधान या अनुष्ठान से सामाजिक परिवेश की चिन्ताओं को एक नैतिक विकलता में ढाल देते हैं और फिर उसे कविता की सर्जनात्मक विकलता बना देते हैं। उनकी कविता की बनावट-बुनावट में आभासी तौर पर जो अनगढ़पन, अस्तव्यस्तता और खुरदरापन दिखाई देता है, वह इस कठिन ऐतिहासिक समय के तरल, रहस्यमय, पारभासी यथार्थ को तथा ऐसे समय में न्याय और मनुष्यता के आग्रही हृदय की संवदनात्मक-वैचारिक बेचैनी और नैतिक विकलता को कविता के प्रदेश में उपस्थित करने की मौलिक कश्मकश का नतीजाहै। ये कश्मकश और जद्दोजहद देवी प्रसाद को उनकी मारक छोटी कविताओं से विविधरूपा रहस्यमय आख्यानों, उदास ब्यौरों और स्वप्न सरीखे बयानों के कोलाज सरीखी लम्बी कविताओं की ओर ले जाते हैं और फिर वे ऐसी छोटी कहानियाँ लिखने की अनूठी प्रविधि विकसित करते हैं जहाँ यथार्थ को किसी जादू, रहस्य या फन्तासी के रूप में ढालकर नहीं प्रस्तुत किया जाता बल्कि रोज़मर्रा की ज़ि‍न्दगी की सामान्य सी कोई घटना आख्यान के रूप में इस तरह प्रस्तुत होती है कि कभी किसी त्रासदी, कभी किसी विडंबना और कभी किसी गहन जीवन-राग को उद् घाटित करता हुआ स्वयं जीवन का जादू हमारे सामने साक्षात हो जाता है।
देवी प्रसाद मिश्र शायद सबसे अधिक हमारे समय के प्रवक्ता और समालोचक कवि हैं। वे हमारे समय के मध्यवर्ग के अंत:करण के आयतन को मापने वाले सबसे प्रमुख कवि हैं। उनकी रचनाएँ अपने ढंग से कठिन यंत्रणादायी आत्मसंघर्ष और आत्मसिद्धि की कविताएँ हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देवी प्रसाद मिश्र की सर्जनात्मकता पर हिन्दी आलोचना ने अभी तक न तो कोई सार्थक विमर्श किया है, न ही उसका सटीक, वस्तुपरक मूल्यांकन किया जा सका है। हिन्दी कविता को, और कहानियों को भी, देवी प्रसाद ने जिस रूप में प्रभावित और समृद्ध किया है, उसका सही आकलन शायद कुछ समय बीतने के बाद ही किया जा सकेगा। आखिर ग़ालिब ने यूँ ही तो नहीं कहा है कि : 'आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक।'



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