Friday, February 05, 2016

इन दिनों...



(पुनश्च कुछ खुदरा विचार)



सुकूनतलब ज़ि‍न्दगी की चाहत हमें कायर, कूपमण्डूक और स्वार्थी बनाती हैा



विस्थापन मानव इतिहास की ऐसी त्रासदी है, जिसके बिना दर्शन, कला-संस्कृति-साहित्य का विकास सम्भव
नहीं हो पाता। विस्थापन आपदा है, लेकिन वह साहसी और विजनरी बनाता है।



युद्ध के बुनियादी कारणों के मौजूद रहते शान्ति असम्भव है। शान्तिवाद या तो कूपमण्डूकी फ़ि‍तूर है, या मध्यवर्गीय कायरता है, या भरे पेट की डकार है या युद्ध के मूल कारणों और वास्तविक चरित्र की पर्दापोशी करने वाला सत्ताधारियों का प्रचार है। भूख, लूट, शोषण, अत्याचार, असमानता से भरे समाज में शान्ति की दुहाई देने वाले लोग हत्यारों के सबसे ख़तरनाक कारिन्दे हैं।



स्मृतियाँ यदि ज्यादा जगह छेंक लें तो सपनों और कल्पनाओं के लिए जगह कम हो जाती है।



यथार्थ और फन्तासी को एक-दूसरे में बदल देने का जादू, ज़ि‍न्दगी और सपनों के बीच आवाजाही करते रहने का हुनर, थोड़ा संशय, थोड़ा दिमागी खलल, थोड़ा बचकानापन, थोड़ी यायावरी वगैरह कविता लिखने की ज़रूरी पूर्वशर्तें हैं। लेकिन हमारी जीवन दृष्टि और जीवन की गति के नियमों की समझ ही हमारी कविता को प्रामाणिक बनाती है। अन्यथा, जितनी अधिक कला होती है, कवि उतना ही संदिग्ध और अविश्वसनीय होता जाता है।



ज़ि‍न्दगी, समाज, सोच और शब्दों की तरह आवाज़ों का भी अपना इतिहास होता है, पुराना संगीत या पुराने गीत सुनकर इस बात को एक हद तक समझा जा सकता है।



क्या आप कभी निराश नहीं होते? भई हम तो कभी-कभी होते हैं!



वस्तुपरक से वस्तुपरक आदमी अपने बारे में वस्तुपरक नहीं हो पाता। दूसरे नंबर पर वह उसके बारे वस्तुपरक नहीं पाता जिससे वह प्रेम करता है।



रेंगने वाले जीव घिन पैदा करते हैं। आदमी भी।



''शायद'' -- अक्सर यह शब्द हमारे मूल्यांकनों को सटीक बना देता है।



कला ज़ि‍न्दगी की नकल से शुरू होती है और फिर कुछ सपनों की दास्तान सुनाती है और उम्मीद करती है कि ज़ि‍न्दगी उनकी नकल करे।



आसपास के वर्तमान का कलात्मक पुनर्सृजन करने के लिए इतिहासकार और भविष्यद्रष्टा की अंतर्दृष्टियों का होना ज़रूरी है।



भविष्य से नाउम्मीद लोगों का कोई भविष्य नहीं।



ज़ि‍न्दगी को अच्छी तरह जानने-समझने के लिए ज़ि‍न्दगी की तमाम सरगर्मियों और जद्दोज़हद के बीच होना होता है। साथ ही कभी-कभी उससे दूर पहाड़ों-रेगिस्तानों-जंगलों में और समन्दर किनारे भी होना चाहिए। कभी-कभी काफी हाउसों और चिड़ि‍याखानों और अजायबघरों की भी सैर कर लेनी चाहिए। और कभी-कभी अकेलापन भी ज़रूरी होता है।



कभी-कभी कहीं किसी घर में खाने खाते समय हमें किसी पुराने स्वाद की याद आती है, जिसे हम न तो ठीक-ठीक याद कर पाते हैं, न ही बता पाते हैं। कभी-कभी किसी से मिलकर भी ऐसा ही लगता है।



थोड़ी बेतरतीबी तो अच्छी लगती है। पर उसे ज्यादा मुँह न लगाइये, ज्यादा सिर न चढ़ाइये।



लोग कहते हैं, अब मैं बहुत घटिया खाना बनाती हूँ। मुझे अच्छा लगता है।



अक्सर मैंने पाया है कि पढ़े-लिखे शहरी लोग जब कोई महल या किला देखने जाते हैं तो वास्तुकला और इतिहास पर ध्यान न देकर गाइडों द्वारा सुनाये जाने वाले राजाओं की विलासिता के रंगीन किस्सों और रहस्य-रोमांच भरे किस्‍सों के गहरी रुचि लेते हैं। दूसरे नंबर पर उनकी दिलचस्पी हथियारों और जिरहबख्तरों आदि में होती है। इतिहास को सत्तासीन महाप्रभुओं का कारनामा समझने वाले लोग वर्तमान में किसी फासीवादी निज़ाम को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं। इतिहास को देखने का हमारा नज़रिया हमारे राजनीतिक-सामाजिक नज़रिए से तय होता है। और हाँ, किले और महल घूमते समय बच्चों को अक्सर मैंने पूछते पाया है कि राजे और उनके रानियाँ टट्टी कहाँ करती थीं! लगता है महिमामण्डन का खण्डन सहज बाल वृत्ति होती है।



सपनों की भी इन दिनों बेहतरीन पैकेजिंग के साथ मार्केटिंग होती है। लोग शापिंग मॉल से तरह-तरह के डिब्बाबंद सपने ख़रीदकर लाते हैं। डिब्बे खोलते ही कुछ सपने हमें मायूस कर देते हैं। कुछ हमारे किसी काम के नहीं होते। कुछ डि‍ब्बों को हम अगले दिन खोलने के लिए छाँटकर रख देते हैं और भूल जाते हैं। याद आने पर जब खोलने के लिए उठाते हैं तो उनकी एक्सपायरी डेट बीत चुकी होती हैं।



सफल लोग सफल होने के तरीक़ों पर भाषण देते रहते हैं और किताबें लिखते रहते हैं, पर वे उन तरक़ीबों के बारे में कभी नहीं बताते, जिनके जरिए वे सफल हुए।



दूसरों को सिखाने की ज़रूरी पूर्वशर्त यह है कि आपके पास ताकत हो, हैसियत हो, पैसा हो। सफलता के पीछे चाहे जितने भी कुकर्म हों, हमें बचपन से ही प्रशिक्षित किया गया है कि उनपर ध्यान न दें।



जो पाजामे का नाड़ा भी ठीक से नहीं बाँध पाता, वह भी समाजवाद की असफलता के कारणों पर एक थीसिस दे देता है।



समझदार लोग कभी-कभी मौलिक हो पाते हैं। मूर्ख अक्सर मौलिक होते हैं।



एकदम मौलिक होने के लिए ज़रूरी है आप किसी से प्रभावित न हों, कुछ न पढ़ें-लिखें। लेकिन जब बहुत सारे लोग ऐसे हो जाते हैं तो ऐसे मौलिकों की भीड़ हो जाती है और फिर से मौलिकता का टोटा पड़ जाता है।
नकल भी मौलिक तरीके से की जाती है। प्रभावित भी अपने ढंग से हुआ जाता है।



 टिकट खिड़की पर मैं जम्मू का टिकट लेने के लिए खड़ी थी। अचानक ख़याल आया  कि इन हालात में यदि जूनागढ़ या जामनगर भी चली जाऊँ तो क्या फ़र्क पड़ेगा!

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