Saturday, October 03, 2015

सरलीकरण के आग्रह पर कुछ सरल सवाल

सरलीकरण का आग्रह जहाँ तक भाषा की कृत्रिमता और पण्डिताऊपन के स्‍तर पर है, बिलकुल वाजिब है। लेकिन जटिल और अमूर्त परिघटनाओं के हर हाल में सरल विवरण का आग्रह अन्‍यायपूर्ण होगा। यह केवल सटीकता की कीमत पर ही हो सकता है। हमेशा लेखन से शिकायत करने के बजाय कभी आलोचनात्‍मक विवेक के साथ अपने अध्‍ययन-मनन के  तरीके के बारे में भी सोचिए। दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र या सौन्‍दर्यशास्‍त्र को अख़बारी रिपोर्टों में या गल्‍प में न तो ढाला जा सकता है, न ही उसतरह से इन्‍हें पढ़ा जा सकता है। 'लोकप्रिय' और 'सैद्धान्तिक'/ 'शास्‍त्रीय' के अंतर को हर जगह, हर हाल में मिटाया नहीं जा सकता। पूँजीवादी परिवेश जन-पक्ष की बौद्धिक जमातों को भी हल्‍के-फुलके, चलते-चलाते, किये जाने वाले अध्‍ययन और विमर्श का आदी बनाता है। वह हमारे जीवन से एकांत और विचारों की गहनता का अपहरण करता है। वह हमसे विश्‍लेषण, अमूर्तन और अवधारणायन (कंसेप्‍चुअलाइज़ेशन) की क्षमता छीनने-चुराने की कोशिश करता रहता है। वह कारण-कार्य सम्‍बन्‍ध को ढूँढ़ने की  हमारी आदत को छुड़ाने की कोशिश करता रहता है। इससे शासक वर्ग को अपना वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्‍व (हेजेमनी) स्‍थापित करने में  मदद मिलती है। जन पक्ष के बौद्धिक तत्‍व विचारधारात्‍मक वर्ग संघर्ष करते हैं, अमूर्त परिघटनाओं की समझ बनाते हैं, फिर उन्‍हें सरल समझ की भाषा, नारों और व्‍यावहारिक योजनाओं में ढालकर मेहनतक़श जन समुदाय तक ले जाते हैं। यह बुर्जुआ श्रम-विभाजन से पैदा हुई विवशता है जो समाजवादी संक्रमण की सुदीर्घ अवधि में, जैसे-जैसे समाज आवश्‍यकता के राज्‍य से स्‍वतंत्रता के राज्‍य की ओर आगे बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे समाप्‍त होती जायेगी। लेकिन आज के युग में दार्शनिक साहित्‍य, प्रोपेगैण्‍डा साहित्‍य और एजिटेशनल साहित्‍य के बीच अन्‍तर बना रहेगा, 'प्रोपेगैण्‍डा स्‍लोगन', 'एजिटेशनल स्‍लोगन' और 'ऐक्‍शन स्‍लोगन' के बीच अन्‍तर बना रहेगा।
बौद्धिक विश्‍लेषण-विमर्श वाले लेखन और संगोष्ठियों की भाषा से पुस्तिकाओं, पर्चों और सड़क-चौराहों के भाषणों और मज़दूरों के अध्‍ययन मण्‍डलों की भाषा अलग होगी। इन दोनों में घाल मेल नहीं किया जाना चाहिए। कुछ लोग बौद्धिक दायरे में सरलीकरण के और मज़दूर दायरे में बौद्धिकता के पैरोकार बने रहते हैं। बौद्धिक विमर्शों में स‍तही जुमलेबाजियों को वे अपने ज़मीनी होने की खासियत बताकर अपनी वैचारिक कंगाली को ढँकते हैं और दूसरी ओर वे मज़दूरों-किसानों से बातें करते हैं तो वे उनके सिर के चार फुट ऊपर से गुजर जाती हैं। बात अभिव्‍यक्ति की है ही नहीं, बात सतही अनुभववादी प्रेक्षण पर आधारित सतही विचारों की है, जो दो जगह दो रूपों में सामने आता है। 

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