Saturday, October 03, 2015

धर्म के प्रश्‍न पर मार्क्‍सवादी अवस्थिति (दो)

''... हर प्रकार का धर्म मनुष्‍यों के दिमागों में उन बाह्य शक्तियों के काल्‍पनिक प्रतिबिम्‍ब के सिवा और कुछ नहीं होता जो उनके दैनिक जीवन पर शासन करती हैं। इस प्रतिबिम्‍ब में पार्थिव शक्तियाँ अलौकिक शक्तियों का रूप धारण कर लेती हैं। इतिहास के आरम्‍भ में पहले प्रकृति की शक्तियाँ इस प्रकार मनुष्‍य के दिमागों में प्रतिबिम्बित हुई थीं। आगे जो विकास  हुआ, उसके दौरान इन्‍हीं शक्तियों ने विभिन्‍न जातियों के यहाँ नाना प्रकार से मूर्त रूप धारण कर लिय। तुलनात्‍मक पुराण-विद्या कम से कम इण्‍डो-यूरोपीय जातियों के बारे में इस प्रारम्भिक प्रक्रिया के क्रम का उसके मूल बिन्‍दु तक पता लगा लिया है। यह प्रक्रिया आरम्‍भ हुई थी भारतीय वेदों में, और उसके बाद उसका जिसप्रकार विकास हुआ, उसका भारतीयों , फ़ारसियों, यूनानियों, रोमनों और जर्मनों के इतिहास में विस्‍तार के साथ निरूपण किया जा चुका है; और जहाँ तक उपलब्‍ध सामग्री ने सम्‍भव बना दी, उसका केल्‍ट लोगों, लिथुआनियनों और स्‍लाव लोगों के इतिहास में भी निरूपण किया जा चुका है। लेकिन बहुत दिन नहीं बीतने पाये थे कि प्रकृति की शक्तियों के साथ-साथ सामाजिक शक्तियाँ भी क्रियाशील होने लगीं। मनुष्‍यों की दृष्टि में ये शक्तियाँ भी उतनी ही परायी और उतनी ही अबोध्‍य थीं, जितनी स्‍वयं प्राकृतिक शक्तियाँ थीं। और ये भी उनपर प्रकृति की शक्तियों जैसी प्रकटत: प्राकृतिक अनिवार्यता के साथ शासन करती थीं। वे काल्‍पनिक आकृतियाँ, जो शुरू में केवल प्रकृति की रहस्‍यमयी शक्तियों को ही प्रतिबिम्बित करती थीं, इस बिन्‍दु पर पहुँचकर सामाजिक विशिष्‍टताएँ ग्रहण कर लेती हैं और इतिहास की शक्तियों की प्रतिनिधि बन जाती हैं। विकास की और भी आगे की एक अवस्‍था में अनेक देवताओं के समस्‍त प्राकृतिक तथा सामाजिक  गुण एक परम शक्तिशाली ईश्‍वर में स्‍थानांतरित कर दिये जाते हैं, जो केवल अमूर्त मानव का प्रतिबिम्‍ब होता है। एकेश्‍वरवाद की उत्‍पत्ति इस प्रकार हुई थी। वह उत्‍तरकालीन यूनानियों के विकृत दर्शन का अन्तिम फल था, और वह यहूदियों के विशिष्‍टतया जातीय देवता जेहोवा के रूप में साकार हुआ था। इस सुविधाजनक, उपयुक्‍त एवम सर्वत्र अनुकूलनीय रूप में धर्म मनुष्‍यों पर शासन करने वाली, प्राकृतिक एवं सामाजिक, परायी शक्तियों के साथ उनके सम्‍बन्‍धों के तात्‍कालिक, अर्थात् भाव प्रधान रूप में उससमय तक जीवित रह सकता है, जबतक कि मनुष्‍य इन शक्तियों के नियंत्रण में रहते हैं। परन्‍तु हम बार-बार यह बात देख चुके हैं कि वर्तमान पूँजीवादी समाज में मनुष्‍यों पर उनकी अपनी पैदा की हुई आर्थिक परिस्थितियाँ शासन करती हैं। उनपर वे उत्‍पादन के साधन शासन करते हैं, जिनको खुद उन्‍होंने तैयार किया है। और उनको लगता है, जैसे कोई परायी शक्ति उनपर शासन कर रही है। इसलिए परावर्तन की जिस क्रिया से धर्म का जन्‍म हुआ है, उसका वास्‍तविक आधार अब भी मौजूद है, और उसके साथ-साथ स्‍वयं धार्मिक परावर्तन भी मौजूद है। और यद्यपि पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र ने इन परायी शक्तियों के शासन के कारणिक सम्‍बन्‍धों पर भी कुछ प्रकाश डाला है, तथापि इससे कोई मौलिक अन्‍तर नहीं पैदा होता। पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र न तो सामान्‍य संकटों को रोक सकता है और न ही अलग-अलग पूँजीपतियों को हानि, अप्राप्‍य  त्रृण, दिवालियेपन से, न ही वह मज़दूरों को बेरोज़गारी और निर्धनता से बचा सकता है। यह बात आज भी सही है कि मनुष्‍य इच्‍छा करता है और फल का निश्‍चय भगवान (अर्थात् पूँजीवादी उत्‍पादन-प्रणाली की परायी शक्तियाँ) करता है। केवल ज्ञान प्राप्ति -- यहाँ तक कि यदि वह पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र से बहुत आगे और बहुत गहराई तक विकास कर जाये, तब भी -- केवल ज्ञान-प्राप्ति सामाजिक शक्तियों पर समाज का शासन क़ायम करने के लिए पर्याप्‍त नहीं होता। इसके लिए जो चीज़ सर्वोपरि आवश्‍यक है, वह है एक सामाजिक कार्य और जब यह कार्य सम्‍पन्‍न हो जाता है, जब समाज उत्‍पादन के समस्‍त साधनों पर अधिकार करके तथा उनका एक योजनाबद्ध ढंग से उपयोग करके अपने आपको तथा समस्‍त सदस्‍यों को उत्‍पादन के उन साधनों की दासता से मुक्‍त कर देता है, जिनको उसके सदस्‍यों ने अपने हाथों से बनाया है, पर जो फिर भी एक दुर्धर और परायी शक्ति के रूप में उनके मुकाबले में खड़े हो जाते हैं; और इसलिए जब मनुष्‍य केवल इच्‍छा ही नहीं करता, बल्कि उसका फल भी निश्चित करने लगता है, तब‍ जाकर कहीं उस अन्तिम परायी शक्ति का लोप होगा, जो आज भी धर्म में  प्रतिबिम्बित हो रही है और उसके साथ-साथ स्‍वयं धार्मिक परावर्तन का भी लोप हो जायेगा, क्‍योंकि तब ऐसी कोई चीज़ नहीं रहेगी, जिसका परावर्तन हो सके।
-- फ्रेडरिक एंगेल्‍स
(ड्यूहरिंग मत-खण्‍डन)

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