भ्रान्ति का लौकिक अस्तित्व तब अप्रतिष्ठित होता है जब बेदी तथा चूल्हों के लिए उसका अलौकिक उपदेशअसत्य प्रमाणित हो जाता है। मनुष्य को स्वर्ग की भव्य काल्पनिक यथार्थता में अति-मानव की तलाश थी किन्तु उसे वहाँ अपने प्रतिबिम्ब के अलावा कुछ नहीं मिला। ज़ाहिर है वह अपना आभास (छाया रूप में, जो अमानवीय जीव के रूप में प्रस्तुत होता है) मात्र पाने के लिए तैयार नहीं होगा, क्योंकि जिसकी उसे तलाश है और जिसे वह पा ही लेगा, वह है उसकी वास्तविक यथार्थता।
अधार्मिक आलोचना का आधार है: मनुष्य धर्म का निर्माण करता है, धर्म मनुष्य का निर्माण नहीं करता। धर्म मनुष्य की स्व-चेतना व स्व-प्रतिष्ठा है, ऐसे मनुष्य की जो अभी तक स्वयं को जान नहीं पाया है, या फिर से भटक गया है। किन्तु मनुष्य कोई अमूर्त प्राणी तो है नहीं जिसने दुनिया के बाहर पड़ाव डाल रखा हो। मनुष्य की दुनिया, राज्य, समाज ही मनुष्य है। यह राज्य, यह समाज धर्म को -- एक प्रतिलोमित जगत-चेतना को उत्पन्न करते हैं क्योंकि वे स्वयं भी एक प्रतिलोमित जगत ही है। धर्म इस जगत का सामान्य सिद्धान्त है, इसका सर्वज्ञान गुटका है, आम रूप में इनकी तर्कणा है तथा इसका आध्यात्मिक कीर्ति शिखर है। धर्म इस जगत की उमंग, इसकी नैतिक स्वीकृति, इसका रहस्यमय सम्पूरक, सान्त्वना व पापमोचन का इसका सार्वत्रिक स्रोत है। यह मानवीय सारतत्व का भव्य काल्पनिक मूर्त रूप है, क्योंकि मानवीय सारतत्व की वास्तविक यथार्थता नहीं होती। धर्म के खिलाफ संघर्ष इसलिए परोक्ष रूप से उस जगत के खिलाफ संघर्ष बन जाता है, धर्म जिसकी आध्यात्मिक सुरभि होता है।
धार्मिक व्यथा एक साथ वास्तविक व्यथा की अभिव्यक्ति तथा वास्तविक व्यथा का प्रतिवाद दोनों ही है। धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह (उच्छ्वास) है, निर्दय संसार का मर्म है तथा साथ ही निरुत्साह परिस्थितियों का उत्साह भी है। यह जनता की अफीम है।
जनता के प्रातिभासिक सुख के रूप में धर्म के उन्मूलन का अर्थ है उसके वास्तविक सुख की माँग करना। मौजूदा हालात के सम्बन्ध में भ्रमों का परित्याग करने की माँग उन हालात का परित्याग करने की माँग करता है जिनके लिए भ्रम ज़रूरी बन गये हैं। इसलिए धर्म की आलोचना भ्रूण रूप में आँसुओं की घाटी, धर्म जिसका प्रभामण्डलहै, की आलोचना है।आलोचना ने बेड़ियों में लगे काल्पनिक फूलों को तोड़कर अलग कर दिया है इसलिए नहीं कि मनुष्य अनलंकृत ठण्डी बेड़ियाँ पहनेगा बल्कि इसलिए कि बेड़ियों को तोड़ फेंकेगा और महकते हुए फूल को तोड़कर रख देगा। धर्म की आलोचना मनुष्य का मोहभंग कर देती है ताकि वह मनुष्य (जिसका मोहभंग हो चुका है तथा जो विवेक के रास्ते पर लौट आया है) के रूप में चिन्तन व कर्म कर सके और अपनी यथार्थता को निर्मित कर सके ताकि वह अपने चारो ओर तथा अपने वास्तविक सूर्य के चारो ओर चक्कर लगा सके। धर्म तो वह प्रातिभासिक सूर्य है जो तब तक ही मनुष्य के चारो ओर चक्कर लगाता है जब तक कि अपने चारों ओर चक्कर लगाना शुरू न कर दे।
सत्य के परे जो लोक है उसका लोप होते ही इतिहास का कार्यभार इस लोक के सत्य की स्थापना करना होता है।दर्शन, जो इतिहास की सेवा में प्रस्तुत है, का तात्कालिक कार्यभार यह है कि मनुष्य के आत्म-परायेपन के पवित्र रूप का परदाफाश होते ही आत्म-आत्मपरायेपन के समस्त कुत्सित रूपों का भी परदाफाश करे। इस प्रकार परलोक (स्वर्ग) की आलोचना इहलोक (धरती) की आलोचना बन जाती है। धर्म की आलोचना विधि की आलोचना बन जाती है तथा धर्मशास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना बन जाती है।
-- कार्ल मार्क्स
(हेगेल के न्याय-दर्शन की समालोचना का प्रयास)
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