मार्क्सवाद भौतिकवाद है। इसलिए धर्म का यह उतना ही निर्मम शत्रु है जितना कि अठारहवीं शताब्दी के विश्वकोशकारों का भौतिकवाद या फ़ायरबाख़ का भौतिकवाद था -- इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विश्वकोशकारों और फ़ायरबाख़ से भी आगे जाता है, क्योंकि भौतिकवादी दर्शन को इतिहास के क्षेत्र में, सामाजिक विज्ञानों के भी क्षेत्र में वह लागू करता है। धर्म के विरुद्ध हमें लड़ाई लड़नी चाहिए -- समस्त भौतिकवाद का और फलस्वरूप मार्क्सवाद का भी यह ककहरा है। लेकिन मार्क्सवाद ऐसा भौतिकवाद नहीं है, जो ककहरे पर ही रुक गया हो। वह आगे जाता है। वह कहता है: हमें यह भी जानना चाहिए कि धर्म के विऱद्ध लड़ाई कैसे लड़ी जाये, और ऐसा करने के लिए ईश्वर और धर्म के मूल को भौतिकवादी पद्धति से जनता को हमें समझाना होगा। धर्म के विऱद्ध चलाये जाने वाले संघर्ष को अरूप सैद्धान्तिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं किया जा सकता, और ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। इस संघर्ष का सम्बन्ध वर्ग-आन्दोलन के उस ठोस व्यवहार के साथ जोड़ना चाहिए जिसका उद्देश्य धर्म की सामाजिक जड़ों का उन्मूलन करना है। शहरी सर्वहारा वर्ग के पिछड़े हिस्सों पर, अर्द्ध-सर्वहारा के व्यापक हिस्सों पर, और किसानों के जन-समुदाय पर धर्म का प्रभाव क्यों बना हुआ है? बुर्जुआ प्रगतिशील, उग्रवादी या बुर्जुआ भौतिकवादी उत्तर देता है: जनता के अज्ञान के कारण। और इसलिए: ''धर्म का क्षय हो, यथार्थवाद चिरंजीवी हो, नास्तिकता(अनीश्वरवाद) के विचारों का प्रचार करना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है।'' मार्क्सवादी कहता है, यह सही नहीं है, यह एक सतही दृष्टिकोण है, संकीर्ण बुर्जुआ सुधारकों का दृष्टिकोण है। यह धर्म के मूल की पर्याप्त गहराई से व्याख्या नहीं करता, यह उसकी भौतिकवादी नहीं बल्कि भाववादी व्याख्या करता है।
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतया सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ का कारण मेहनतक़श जनता की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति तथा पूँजीवाद की उन अन्धी शक्तियों के सामने प्रत्यक्ष दिखने वाली उसकी पूर्ण असहायावस्था है, जो हर रोज़ और हर घण्टा उसे सर्वाधिक भयंकर यातनाओं तथा बर्बर उत्पीड़न की चक्की में पीसती रहती है। यह यातनाएँ और यंत्रणाएँ उन यातनाओं और यंत्रणाओं से भी हज़ार गुना अधिक कठोर होती हैं, जो युद्धों, भूचालों, आदि जैसी असाधारण घटनाओं के चलते उसे भोगनी पड़ती हैं। ''देवताओं का जन्म भय से हुआ है।'' पूँजी की अन्धी शक्ति के भय से -- यह शक्ति अन्धी इसलिए होती है कि जनता उसे पहले से नहीं देख-जान सकती। यह शक्ति ऐसी है जो सर्वहारा वर्ग तथा छोटे मालिकों की ज़िन्दगी के हर कदम पर न केवल 'अचानक', 'अप्रत्याशित', 'आकस्मिक', तबाही, विध्वंस, दरिद्रता, वेश्यावृत्ति, भुखमरी से मौत के भय से आक्रान्त रखती है, बल्कि इन मुसीबतों के पहाड़ों को उनके ऊपर ढाती रहती है -- यह है आधुनिक धर्म की जड़ जिसे भौतिकवादी को, यदि वह 'दूधपीता' भौतिकवादी नहीं बने रहना चाहता -- सबसे पहले और सर्वप्रमुख रूप से ध्यान में रखना चाहिए। इन जन-समुदायों के मस्तिष्कों से, जो पूँजीवादी कठोर श्रम के भार से कुचले हुए हैं और जो पूँजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की 'दया-दृष्टि' पर आधारित रहते हैं, शिक्षा की कोई भी पुस्तक धर्म को नहीं निकाल सकती जबतक कि ये जन-समुदाय स्वयं धर्म की जड़ से लड़ना नहीं सीख लेते, जबतक कि सर्वथा एकताबद्ध, संगठित, सुनियोजित तथा सचेत ढंग से वे पूँजी के शासन के सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करना नहीं सीख लेते।
इसका अर्थ क्या यह होता है कि धर्म के विरुद्ध लिखी गयी शैक्षणिक पुस्तकें हानिकर अथवा अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक जनवाद के नास्तिकतावादी प्रचार को उसके बुनियादी कर्तव्य के -- शोषकों के विरुद्ध शोषित जन समुदायों के वर्ग संघर्ष को विकसित करने के बुनियादी कर्तव्य के -- अधीन होना चाहिए।
-- व्ला. इ. लेनिन
(धर्म के प्रति मज़दूरों के पार्टी का दृष्टिकोण)
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतया सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ का कारण मेहनतक़श जनता की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति तथा पूँजीवाद की उन अन्धी शक्तियों के सामने प्रत्यक्ष दिखने वाली उसकी पूर्ण असहायावस्था है, जो हर रोज़ और हर घण्टा उसे सर्वाधिक भयंकर यातनाओं तथा बर्बर उत्पीड़न की चक्की में पीसती रहती है। यह यातनाएँ और यंत्रणाएँ उन यातनाओं और यंत्रणाओं से भी हज़ार गुना अधिक कठोर होती हैं, जो युद्धों, भूचालों, आदि जैसी असाधारण घटनाओं के चलते उसे भोगनी पड़ती हैं। ''देवताओं का जन्म भय से हुआ है।'' पूँजी की अन्धी शक्ति के भय से -- यह शक्ति अन्धी इसलिए होती है कि जनता उसे पहले से नहीं देख-जान सकती। यह शक्ति ऐसी है जो सर्वहारा वर्ग तथा छोटे मालिकों की ज़िन्दगी के हर कदम पर न केवल 'अचानक', 'अप्रत्याशित', 'आकस्मिक', तबाही, विध्वंस, दरिद्रता, वेश्यावृत्ति, भुखमरी से मौत के भय से आक्रान्त रखती है, बल्कि इन मुसीबतों के पहाड़ों को उनके ऊपर ढाती रहती है -- यह है आधुनिक धर्म की जड़ जिसे भौतिकवादी को, यदि वह 'दूधपीता' भौतिकवादी नहीं बने रहना चाहता -- सबसे पहले और सर्वप्रमुख रूप से ध्यान में रखना चाहिए। इन जन-समुदायों के मस्तिष्कों से, जो पूँजीवादी कठोर श्रम के भार से कुचले हुए हैं और जो पूँजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की 'दया-दृष्टि' पर आधारित रहते हैं, शिक्षा की कोई भी पुस्तक धर्म को नहीं निकाल सकती जबतक कि ये जन-समुदाय स्वयं धर्म की जड़ से लड़ना नहीं सीख लेते, जबतक कि सर्वथा एकताबद्ध, संगठित, सुनियोजित तथा सचेत ढंग से वे पूँजी के शासन के सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करना नहीं सीख लेते।
इसका अर्थ क्या यह होता है कि धर्म के विरुद्ध लिखी गयी शैक्षणिक पुस्तकें हानिकर अथवा अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक जनवाद के नास्तिकतावादी प्रचार को उसके बुनियादी कर्तव्य के -- शोषकों के विरुद्ध शोषित जन समुदायों के वर्ग संघर्ष को विकसित करने के बुनियादी कर्तव्य के -- अधीन होना चाहिए।
-- व्ला. इ. लेनिन
(धर्म के प्रति मज़दूरों के पार्टी का दृष्टिकोण)
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